योगेन्द्र सिंह छोंकर जो बेखुदी न दे पाया तेरा मयखाना साकी दे गईं दो खामोश ऑंखें
दो खामोश आंखें – 8
योगेन्द्र सिंह छोंकर पीने को दो घूँट जो रोपी अंजुली उसके गोल घड़े के सामने पाया घड़ा खाली है हर […]
दो खामोश आंखें 7
योगेन्द्र सिंह छोंकर किसी के रूप से होकर अँधा जो मैं भटका जहाँ में जानता हूँ पीठ पर चुभती रहेंगी […]
दो खामोश आंखें – 6
योगेन्द्र सिंह छोंकर अपनी अपनी वासनाओं में हस्तमैथुनरत दुनिया में बेइरादा डोलती कुछ बावरी भी हैं दो खामोश ऑंखें
दो खामोश आंखें – 5
योगेन्द्र सिंह छोंकर हो जाऊं जहाँ के लिए मसीहा या फिर कातिल मैं क्या हूँ जानती हैं बखूबी दो खामोश […]
दो खामोश आंखें – 4
योगेन्द्र सिंह छोंकर तेरी हैं या मेरी हैं या हैंं किसी और की किसकी हैं ये तो खुद भी नहीं जानती […]
दो खामोश आंखें – 3
योगेन्द्र सिंह छोंकर तेरे जाने का ख्याल मुझे दहशत नहीं देता मत समझना मैं तुम्हे दिल से नहीं लेता न […]
दो खामोश आंखें 2
योगेन्द्र सिंह छोंकर इत्तिला अपनी रवाग्नी की करते समय जो थी पीर चहरे पर तीस आवाज में लिख पाने में […]
दो खामोश आंखें – 1
कैसे लिखूं मैं वो प्यारे पल जिनका साक्षी मैं और दो खामोश ऑंखें
जीवन दर्शन
जीवन दर्शन कंक्रीट के इस जंगल में आपाधापी के इस दंगल में आधुनिकता की होड़ में दौलत की अंधी दौड़ […]