भरतपुर की कहानी : भाग पांच (थून की गढ़ी का निर्माण और चूरामन की शक्ति का विस्तार)

पिछले भागों में हमने ब्रजमंडल के किसानों की स्वाधीनता की प्रवृत्ति से उपजे मुगल सत्ता के विरोध के प्रमुख नायक बने गोकुला, राजाराम और जोरावर के बारे में जाना। अब आगे :

चूरामन के संघर्ष की शुरुआत

चूरामन भज्जा के भाई ब्रजराज का पुत्र था। भज्जा के पुत्र राजाराम के पुत्र जोरावर की हत्या सिनसिनी के पतन के बाद औरंगजेब के आदेश पर कराई गई थी। इधर ब्रजराज और उसके बड़े पुत्र भाव सिंह की मृत्यु के बाद चूरामन को सिनसिनी की गढ़ी का वारिस माना गया। चूरामन वीर था, साहसी ही नहीं दुस्साहसी भी था। साथ ही कुशल राजनीतिज्ञ और कूटनीतिज्ञ भी था। 1702 ईसवी के करीब वह क्रांतिकारी दलों का नायक बना। उसने अपना संघर्ष जारी रखने के लिए आय के साधन के रूप में राजमार्गों पर लूटपाट का काम शुरू कर दिया। वह राजमार्गों पर के निकलने वाले व्यापारिक और शाही काफिलों को लूटकर धन एकत्र करता था। उसके इस अभियान में उसे तमाम सहयोगी भी मिल गए थे जिससे जल्द ही उसके पास पर्याप्त सैनिक बल भी इकट्ठा हो गया। 

सिनसिनी पर चूरामन का अधिकार

चूरामन अपने जन्मस्थान सिनसिनी की गढ़ी पर अधिकार करना चाहता था, इसके लिए उसने दो बारह वर्ष तक सतत प्रयास किए और अंत में 1704 ईसवी में वह सिनसिनी पर अधिकार करने मे सफल हो गया। उसने इस गढ़ी को मजबूत बनाने का कार्य शुरू किया। तभी औरंगजेब ने अपने पोते शहजादा बेदारबख्त को फिर से सिनसिनी पर अधिकार करने का आदेश जारी कर दिया। बेदारबख्त ने अपने ससुर मुख्तयार खां को सेना देकर भेजा। नौ अक्तूबर 1705 ईसवी को मुख्तयार खां ने सिनसिनी की गढ़ी पर फिर से अधिकार कर लिया। चूरामन गढ़ी से निकल कर भाग गया। 

थून गढ़ी का निर्माण

चूरामन ने अऊ, कामां, पहाड़ी, कठूमर और बरोदा मेव परगनों की सरहद पर वर्तमान डीग कस्बा के पश्चिम में 11 मील दूर दलदल और विस्तृत सघन जंगलों के बीच थून नमक नया गांव बसाया। इस गांव के चारों ओर कच्ची मिट्टी का परकोटा बना कर इसे गढ़ी का रूप दिया। इसकी सुरक्षा के लिए गहरी खाई खोद कर जल भरवा दिया। कुछ ही समय में थून गढ़ी में 80 गांव शामिल हो गए। सिनसिनी और थून किलों के अंतर्गत 110 गांवों का एक अर्ध स्वतंत्र जाट सत्ताधारी राज्य बन गया। चूरामन स्वयं इन गांवों से खिराज वसूल करता था और सुरक्षात्मक जाट गढ़ियों में लूट का माल रखता था। मीर गुलाम अली के अनुसार ‘खजाने की रक्षा के लिए अपने स्वजातीय बंधुओं का पूरा भरोसा न करके पड़ोसी गांवों से कतिपय जाटव परिवारों को लाया और उन पर खजाने की सुरक्षा का भार सौंप कर किले में बसाया। उसने पर्याप्त सेना और युद्ध का सामान इसी गढ़ी में संकलित किया। सैनिक बल और गढ़ी की सुरक्षा के लिए एक छोटा सा जिंसी तोपखाना भी तैयार किया।

जाजऊ का युद्ध और चूरामन की लूटपाट

20 फरवरी 1707 ईसवी को बादशाह औरंगजेब मर गया। उसका स्थान लेने के लिए उसके पुत्र मुहम्मद आजम शाह और बहादुर शाह के बीच संघर्ष का बिगुल बज गया। जून 1707 में आगरा के पास जाजऊ नामक स्थान पर दोनों के बीच निर्णायक युद्ध हुआ। चूरामन भी अपनी सेना लेकर युद्ध भूमि में जा पहुंचा। वह मुगल साम्राज्य का खजाना और सैनिकों को लूटकर नवीन सैनिक शक्ति प्राप्त करने का अवसर खोज रहा था। इस युद्ध के दौरान अचानक बहादुर शाह के शामियाने में आग लग गई। चूरामन अपने सैनिकों को साथ लेकर घुस गया और बहादुर शाह की सेना को लूटने लगा। इस युद्ध में आजम शाह को पराजय मिली। हार का रुख देखकर उसने आजम शाह की सेना को लूटना शुरू कर दिया। इस युद्ध में उसने हार जीत का कोई ध्यान नहीं रखा और निसंकोच होकर दोनों सेनाओं को लूटा। जाट सैनिक कीमती सामान, ऊंट, घोड़ा आदि जानवर लूट ले गए। स्वयं चूरामन ने शाही खजाने, आभूषण और बहुमूल्य हीरे जवाहरात पर अधिकार कर लिया। इस क्रांति से चूरामन को यश और धन दोनों ही मिले। 

बहादुरशाह द्वारा चूरामन को मनसब प्रदान करना

जाजऊ युद्ध से लौटकर चूरामन ने सिनसिनी पर अधिकार किया। आगरा दिल्ली राजमार्ग पर उसका इतना भय व्याप्त था कि यह मार्ग दो माह तक बंद पड़ा रहा। दोनों और की सरायों में हजारों यात्री रुके रहे पर आगे बढ़ने का साहस न कर सके। परेशान होकर सितंबर 1707 में नए बादशाह बहादुरशाह ने छत्रसाल राठौड़ के नेतृत्व में सेना भेजकर चूरामन का दमन करने का अभियान शुरू किया। उसी समय वजीर मुनीम खां की सलाह पर चूरामन आगरा पहुंचा और बहादुरशाह के समक्ष पेश हुआ। वजीर मुनीम खां की सलाह पर बादशाह ने चूरामन को 1500 जात और 500 सवार का मनसब देकर साम्राज्य की सेना में शामिल कर लिया। इस तरह मुगल मनसब हासिल करने से एक ओर जहां चूरामन की राजनैतिक स्थिति सुरक्षित और सुदृढ़ हुई वहीं अन्य जाट सरदारों के समक्ष विरोधाभास भी बना। आगरा के सूबे में स्थाई शांति स्थापित करने के इच्छुक बादशाह बहदुरशाह ने सिनसिनी की गढ़ी को एक बार फिर मुगल आधिपत्य में लेना चाहा। इस बार मनसबदारी हासिल कर चुका चूरामन विरोध करने की स्थिति में नहीं था। दो दिसंबर 1707 को सिनसिनी पर मुगल फौजदार रिजा बहादुर के नेतृत्व में भीषण हमला हुआ। एक हजार से ज्यादा जाट सैनिक खेत रहे। गढ़ी को बर्बाद कर दिया गया और ऐतिहासिक रूप से चूरामन और उसके पूर्वजों के जन्मस्थान का सामरिक और राजनैतिक महत्त्व सदैव के लिए खत्म हो गया। 

ब्रज क्षेत्र में चूरामन ने किया अपनी शक्ति का विस्तार

थून और सिनसिनी के अंतर्गत बसे गांवों के किसानों व जमींदारों के आर्थिक सहयोग से चूरामन ने अपनी कमान में शक्ति का विस्तार करना शुरू किया। उस समय मथुरा जिले के शेरगढ़ कस्बे के दुर्ग में तैनात शाही बलूची प्रबंधकों ने विद्रोह कर दिया था। नायब फौजदार रहीम उल्ला ख़ां बलूचियों को दबाना चाहता था पर चूरामन के परामर्श और सहयोग के बिना उसकी हिम्मत नहीं हो रही थी। उस समय तक चूरामन न केवल मथुरा साथ ही अलीगढ़ व मुरसान क्षेत्र के जाट, गूजर, कछवाहा, जसावत, तंवर, बघेल, बाछिल और अन्य राजपूत जमींदारों के साथ मित्रता कर अपनी स्थिति मजबूत कर चुका था। तीन दिन के संघर्ष के बाद चूरामन की सहायता से नायब फौजदार शेरगढ़ के बलूचियों को पराजित कर पाने में सफल हुआ। शेरगढ़ के पतन के बाद चूरामन की ख्याति सारे ब्रजमंडल में फैल गई। बादशाह बहादुरशाह के जीवनकाल में वह कई अभियानों का हिस्सा रहा जहां उसने छापामार युद्ध प्रणाली के इतर आमने सामने के युद्ध, घेराबंदी और मोर्चाबंदी आदि का अनुभव लिया। साथ ही शाही दरबार की राजनीतिक उठापटक को समझा जिससे वह न केवल राजनीति अपितु कूटनीति का भी ज्ञाता हो गया।

बिना ताज का स्वतंत्र राजा बन गया चूरामन

17 फरवरी 1712 को लाहौर छावनी में बादशाह बहादुरशाह की मृत्यु हो गई। उसके चारों पुत्रों ने उत्तराधिकार के लिए संघर्ष छेड़ दिया। लाहौर में हुए उत्तराधिकार के युद्ध में चूरामन ने शहजादे अजीमुश्शान का पक्ष लिया था पर जीत जहांदरशाह की हुई और वह अगला मुगल शासक बना। अपने क्षेत्र में अपनी स्थिति मजबूत बनाए रखने के लिए चूरामन युद्ध के तुरंत बाद थून लौट आया। आगरा मथुरा के शाही राजमार्ग पर उसका प्रभाव और दबदबा और बढ़ता गया। बहादुरशाह के समय मिले उसके अधिकारों में ने बादशाह ने कोई कटौती नहीं की। चूरामन ने अपनी जागीर में वृद्धि करने के प्रयास जारी रखे। उसने मथुरा के पश्चिमी भाग, नगर, कठूमर, नदबई, हेलक आदि परगनों पर बिना विरोध के अधिकार कर लिया। इस समय चूरामन केवल जाटों का ही सरदार नहीं था। वह वास्तव में बिना ताज का स्वतंत्र राजा बन चुका था। दिल्ली से चंबल पर्यंत आबाद जाट एवं अन्य हिंदू नागरिकों का वह न्यायाधिकारी, जीवन और संपदा का रक्षक था। जबकि उसने जहांदरशा के सामने पेश होकर उससे अपने अपराध क्षमा कराने का कोई प्रयास नहीं किया था। बादशाह भी उस पर हाथ डालने के बजाय राग रंग में डूबा हुआ था जिसके चलते चूरामन अपनी शक्ति के विस्तार में संलग्न था। उसने मुसलमान नागरिकों का भी सम्मान किया और दो धर्म के अनुयाई बिना भेदभाव के शांतिपूर्वक जीवनयापन करने लगे। 

चूरामन को मिली राव बहादुर खां की उपाधि

जहांदर शाह के प्रतिद्वंद्वी अजीमुश्शान के पुत्र शहजादा फर्रुखशियर ने सैयद बंधुओं की सहायता पाकर बादशाह जहांदार शाह के विरुद्ध अभियान छेड़ा। जहांदार शाह ने इस अभियान में तमाम हिंदू राजाओं की मदद मांगी साथ ही चूरामन से भी सहायता मांगी। चूरामन अपना भाग्य आजमाने के लिए एक बार फिर मुगल शहजादों के बीच उत्तराधिकार की जंग में सामूगढ़ के मैदान में पहुंच गया। प्रारंभ में उसने फर्रुखशियर के सहयोगी सैयद अब्दुल्ला खां के सैनिकों को लूटा पर बाद में परिस्थिति बदलते ही वह बादशाह के शाही खजाने, युद्ध सज्जित हाथी, ऊंट और गाड़ियों आदि की लूट का माल कब्जा कर थून लौट गया। 12 जनवरी 1713 को फर्रुखशियर बादशाह बना। प्रारंभ में उसने चूरामन को दबाने के प्रयास किए पर बाद में आगरा के सूबेदार समसामुद्दौला खानदौरान के माध्यम से उसका बादशाह से मेल हो गया। बादशाह ने उसके मनसब ने वृद्धि की और उसे राव बहादुर खां की उपाधि से सम्मानित किया। चूरामन को उत्तर में बारहपूला से दक्षिण में चंबल नदी पर्यंत, पूर्व में आगरा से पश्चिम में रणथम्भोर प्रांत की सीमाओं तक शाही मार्गों की राहदारी का भार सौंप कर राहदार खां के शाही पद पर नियुक्त किया। कुछ समय बाद मीर बक्शी हुसैन अली खां के प्रस्ताव पर उसको बरौड़ा मेव (आधुनिक तहसील नगर), कठूमर (जिला अलवर), अखैगढ़ या सौंखर सोंखरी (कुछ भाग आधुनिक जिला अलवर तथा कुछ भाग आधुनिक तहसील नदबई में शामिल), हेलक (तहसील कुम्हेर) और अऊ (तहसील डीग) नामक पांच परगने जागीर में दिए गए।

चूरामन के सहयोगी जाट सरदारों का सम्मान

चूरामन के साथ शाही परगनों की लूट और हसनपुर युद्ध में सहयोगी रहे आधुनिक हाथरस मुरसान क्षेत्र के ठेनुआ जाट सरदार भूरेसिंह और उसके पुत्रों को चूरामन के आग्रह पर सैयद बंधुओं ने कतिपय अधिकार और सम्मान प्रदान किए। उन्हें जावरा, टप्पा के आसपास बाड़ा, टुकसान, सिमधारी, छोटुआ, कोटापट्टी आदि तालुके और गांव जागीर में दिए गए। भूरेसिंह ने अपने पुत्र तथा अन्य बंधुओं की कमान में एक शक्तिशाली सैनिक दल गठित कर चूरामन की राजनैतिक गतिविधियों में जीवनभर साथ दिया और अंत में हाथरस तथा मुरसान के जाट राज्यों का विकास हुआ।  आधुनिक गोवर्धन के दक्षिण में राया, सौंख, अडींग आदि में कुंतल (खूंटेल) डूंग की जमींदारी थी। उनको भी जमींदारी, जागीर तथा निश्चित पट्टों पर भूमियां दी गईं। इनको फौजदार की उपाधि भी दी गई। सौंख में हाथीसिंह, अडींग में फौंदासिंह, पैंठा में ठाकुर सीताराम ने गढ़ियों का निर्माण कराया। चूरामन ने इन्हें हरसंभव सहायता प्रदान की। चूरामन के बढ़ते प्रभाव के विरुद्ध उसके राजनीतिक विरोधियों ने सोगरिया जाट सरदार रुस्तम के पुत्र खेमकरण को बहादुर खां की उपाधि दिलाई और फतहपुर (आधुनिक भरतपुर), मलाह, अघापुर, बराह (आधुनिक आगरा जिले में बरौली के गांव), इकरन तथा कुछ अन्य गांव परगना रूपवास की जागीर में प्रदान किए गए। इस तरह यह संपूर्ण क्षेत्र जाट जमींदारों के अधिकार में आ गया।

राहदारी कर की कड़ाई से वसूली और भयंकर लूटमार

राहदारी का निश्चित व नैतिक अधिकार मिलने के बाद शाही राजमार्गों से आने जाने वाले व्यापारी, बंजारा दल तथा काफिलों के जानमाल की सुरक्षा और शांति व्यवस्था का उत्तरदायित्व चूरामन पर था। उसने शाही मार्गों पर नवीन चौकियां स्थापित कीं और अपने कर्मचारी, सिपाही तैनात किए। शाही मार्गों पर चारों ओर चूरामन के गस्ती चौकीदार तथा राहदारी वसूल करने वाले कर्मचारियों का एक जाल सा बिछ गया। अब कोई भी व्यापारी, बंजारा दल या उनका सामान राहदारी व चुंगी भुगतान किए बिना शाही मार्गों से बचकर नहीं निकल सकता था। चूरामन ने वजीर तथा राजा रतनचंद के इशारे पर व्यापारियों से मनमानी राहदारी तथा चुंगी वसूली इतनी निष्ठुरता और स्वच्छंदता से करना शुरू किया कि शीघ्र ही चतुर्दिग करुण चीत्कार गूंज उठा। चूरामन ने पड़ोसी जागीरदारों के क्षेत्र में भी रुखाई व कड़ाई के साथ हस्तक्षेप किया। उसने परगना कामां, सहार, फतहपुर सीकरी, मेवात व आगरा के वक्फ गांवों में लूटमार भी की। एक ओर चूरामन की यह गतिविधियां थीं जो बादशाह को उससे रुष्ट कर रहीं थीं दूसरी ओर उसका हिमायती खानदौरान भी सैयद बंधुओं से मिल गया था। बादशाह सैयद बंधुओं से नाखुश था पर प्रत्यक्ष रूप से उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकता था। इसलिए बादशाह ने चूरामन के खिलाफ अभियान छेड़ने का मन बनाया। 

(अगले भाग में जारी …)

(विशेष : यह कहानी ठाकुर देशराज, कालिका रंजन कानूनगो, उपेन्द्रनाथ शर्मा आदि इतिहासकारों की पुस्तकों में दिए गए तथ्यों पर आधारित है।)

डिस्क्लेमर : ”इस लेख में बताई गई किसी भी जानकारी/सामग्री में निहित सटीकता या विश्वसनीयता की गारंटी नहीं है। हमारा उद्देश्य महज सूचना पहुंचाना है, इसके उपयोगकर्ता इसे महज सूचना के तहत ही लें।”

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