स्वामी हरिदास जी ने किया था अनुपम और अलौलिक रसमयी नित्यविहारोपासना के सिद्धांत का प्रतिपादन

स्वामी हरिदास जी की जयंती पर विशेष

गोपाल शरण शर्मा “रसिकगोपाल”

भाद्रपद माह के शुक्ल पक्ष की अष्टमी को जहां वृषभानु सुता की लाडली श्रीराधारानी का प्राकट्य हुआ वहीं यह दिन संगीत शिरोमणि रासिकाचार्य स्वामी श्री हरिदास जी के जन्मोत्सव का भी होता है। 

अनन्य नृपति श्री स्वामी हरिदास।

कुंजबिहारी सेये विनु जिन छिन न करी काहू की आस।

सेवा सावधान अति जान सुघर गावत दिन रस रास।

ऐसो रसिक भयौ नही ह्वै है भू-मण्डल आकास।

रसिक चक्र चूणामणि श्री स्वामी हरिदास जी महाराज श्री राधाकृष्ण के युगल स्वरूप की उपासना के परम रसिकाचार्य है। श्रीधाम वृन्दावन की हरित्रयी में से एक श्री स्वामी हरिराम व्यास जी उन्हें अद्भुत  रसिक बताते हुये कहते हैं कि ऐसा रसिक जो सदैव स्यामा – कुंजबिहारी की आराधना में रत रहता है, जिसे जीवित रहते हुये भी अपनी देह का भान नही है, जिसने सभी रागों को त्याग दिया है, ऐसा परम रसिक, परम उपासक परम भक्त न अभी तक कोई इस भू-मण्डल पर एवं आकाश में हुआ है न होगा।

स्वामी हरिराम व्यास रसिकाचार्य स्वामी हरिदास जी को “अनन्य नृपति” कह कर संबोधित करते हैं। ’अनन्य’ शब्द से तात्पर्य है कि जब प्रेमी को अपने प्रियतम के सिवा कुछ और देखने का समय नही मिलता, वह श्रवणों से केवल अपने प्रियतम का गुणगान सुनना चाहता है। अर्थात उसकी समस्त इन्द्रियां अपने प्रियतम के साथ ही एकमेव होकर रहती है, उसी को अनन्यता कहते हैं । भगवत रसिक देव अपनी अनन्यता का वर्णन करते हुये कहते हैं:- 

नैननि देखोै और नही, श्रवण सुनौं नहीें और।

घ्राण न सूँघो और कछु रसना कहौं न और ।।

रसना कहौं न और,त्वचा परसौं नहीं औरें ।

कुंजबिहारी केलि झेलि इन्द्रिन सब ठौरें ।।

भगवत रसिक अनन्य नेक उपदेषौं सैननि।

बैननि मैन जगाय रैन दिन देखौं नैननि।।

स्वामी हरिदास जी महाराज ने श्री राधामाधव के युगल स्वरूप को निहारने का एक अलग ही मार्ग सुझाया है । श्री स्वामी जी ने जिस रसमयी नित्यविहारोपासना का सिद्धांत प्रतिपादित किया वह अनुपम एवं अलौकिक है। प्रेम की गति अद्भुत होती है, और सच्चे प्रेम की तो अत्यंत अद्भुत । उसमें अपने शरीर के सारे सुख और स्वार्थ विस्मृत हो जाते हैं । प्रियतम को जो जो बातें रुचती-सुहाती हैं वही बातें प्रेमी को भी भाती हैं । लौकिक प्रेम में जहाँ प्रेमी अपना सुख चाहता है, प्रेमिका अपना रस वहाँ प्रेम कभी स्थाई नही हो सकता। स्वामी हरिदास जी की उपासना तत्सुखमयी है । श्री राधा का समस्त लीला विलास प्रियतम के लिये है, और श्री कुंजबिहारी भी वही करते हैं जिससे राधा को सुख प्राप्त हो। श्री स्यामा-कुंजबिहारी का युगल स्वरूप एक प्राण दो देह के समान है। श्री राधा-माधव की समस्त केलि-क्रीडाएँ सहचरियों को प्रसन्नता प्रदान करती है एवं प्रिया-प्रियतम का सुख ही सखियों का सुख है। स्वामी हरिदास जी सखी रूप में श्री स्यामा-कुंजबिहारी के युगल स्वरूप की उपासना में निरंतर रत रहकर उनकी नित्य विहार की केलियों को निहारते हैं। 

स्वामी हरिदास जी की रसोपासना में विशुद्ध प्रेम के चार प्रकाश हैं। एक श्रीधाम वृन्दावन, दूसरी सखी, तीसरे स्वयं श्री कुंजबिहारी और चौथी श्री माधव की आराधिका श्री प्रिया जी। स्यामा-स्याम की सहज जोड़ी का न आदि है न अंत। उनका संयोग घन-दामनि की तरह है जिसमें कभी वियोग की स्थिति नही आती। नित्य वृन्दावन में उनकी सहचरियों के साथ होने वाली दिव्यतम आनन्द प्रदान करने वाली केलि लीलाओं का वर्णन करते हुये रसिकाचार्य स्वामी हरिदास जी कहते हैं :-

माई री सहज जोरी प्रगट भई जु ,

रंग की गौर स्याम घन दामनि जैसे।

प्रथम हूँ हुती, अबहूँ ,

आगेहूँ रहिहै न टरिहै तैसे ।।

स्वामी हरिदास जी ने अपनी उपासना पद्धति में विधि-निषेध के जंजाल से अलग कर केवल भाव की उपासना को बढावा दिया। उनकी इस पद्धति से प्रभावित होकर राधावल्लभ सम्प्रदाय के श्री ध्रुवदास जी ने उनकी प्रशंसा करते हुये लिखा :-

“रसिक अनन्य हरिदास जू, गायौ नित्य विहार।

सेवा हू में दूर किये विधि – निषेध जंजार ।।”

श्री स्वामी हरिदास जी की उपासना का पथ लोक वेद से पृथक है। स्वामी जी की उपासना प्रणाली को “बाँका पथ’’ भी कहा गया है। वल्लभ सम्प्रदाय के श्री गोविन्द स्वामी इस संबंध में कहते हैं कि :-

रसिक अनन्यनि कौ पथ बाँकौ ।

जा पथ कौ पथ लेत महामुनि ,

मूँदत नैंन गहैं नित नाकौ।।

जा पथ को पछितात है वेद

लहै नहि भेद रहै जकि जाकौ

सो पथ श्री हरिदास लह्यौ,

रस – रीति की प्रीति चलाइ निसाँकौ ।

निसाननि बाजत गाजत गोविन्द ,

रसिक अनन्यनि कौ पथ बाँकौ।।

स्वामी श्री हरिदास जी की रसोपासना पद्वति का संकेत उनकी रचना केलिमाल में प्राप्त होता है। “ केलिमाल ” में 110 पदों का संग्रह है जो आनन्द प्रदान करने वाले विभिन्न राग – रागनियों में निबद्ध है।

श्री स्वामी हरिदास जी की तत्सुखी उपासना अद्वितीय एवं विशुद्ध प्रेममयी है। यह भक्ति मधुर रस से भी ऊपर महामधुर रस सार स्वरूपिणी है। स्वामी नवलदास जी इसका वर्णन करते हुये कहते है :-

आसू कौ रसिक रसरीति हू में रस पीवै,

जगत अनन्यन की पूरी भई वासना ।

नवल बिहारी जू कौ प्रगट बिहार गावै ,

साँचे श्री हरिदास जिनकी सुदृढ़ उपासना ।।

जिस प्रकार आम में से छिलका, गुठली आदि को अलग कर रस निकाल लिया जाता है उसी प्रकार रसिक शिरोमणि स्वामी हरिदास जी ने अपनी प्रेमोपासना से कर्म, ज्ञान आदि तत्वों को अलग कर दिया है। स्वामी हरिदास जी यहीं पर नही ठहरे, उन्होंने उस शुद्ध रस भी छान कर उसमें से ब्रह्म के अवतारवाद आदि निमित्तों को अलग कर प्रेम के अति  विशुद्धतम रूप का आस्वादन करने के लिये अपने अनुगतो को सुलभ कराया है। प्रेम की इतनी  विशुद्धता अन्य उपासना पद्वतियों में दृष्टिगोचर नही होती इसलिये स्वामी हरिदास 

की उपासना को “अनन्योपासना” भी कहा जाता है। 

अनन्य रसिकशेखर श्री स्वामी हरिदास जी श्री स्यामा कुंजबिहारी के नित्यविहार के सतत अवलोकन में सदा निमग्न रहते हैं। यही उनकी आराधना, उपासना है। स्वामी हरिदास जी श्रीराधा रानी की अनन्य सहचरी श्री ललिता सखी के अवतारी स्वरूप हैं। अपनी दिव्य देह से वे श्रीराधा-माधव की दिव्य नित्य केलि में ललिता स्वरूप में विद्यमान रह कर श्री स्यामा कुंजबिहारी को नव-नव लाड़ लड़ाते हैं।

गोपाल शरण शर्मा “रसिकगोपाल”

(हिस्ट्रीपंडित डॉटकॉम के लिए यह आलेख गोपाल शरण शर्मा “रसिकगोपाल” ने लिखा है। गोपाल वृंदावन में रहते हैं और वृंदावन के कला, संस्कृति और इतिहास के अध्येता हैं।)

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