वक्त कहां किसी की सुनने को

कहानी

पायल कटियार

मैं प्रतिदिन की भांति अपने ऑफिस से घर के लिए जा रही थी। इस बीच जैसा मेरी दिनचर्या में शामिल था कि मुझे जो भी महिला या लड़की मिलती, मैं उसे बिना मांगे अपनी एक्टिवा पर लिफ्ट दे दिया करती थी। मैं प्रतिदिन अपनी एक्टिवा को रोक कर महिला या लड़की को बैठने को कहती और कहती बैठ जाओ आगे जहां तक जाना हो, मैं छोड़ दूंगी। ऐसा मैं इसलिए करती थी क्योंकि मेनरोड से रिहाइशी एरिया के बीच कोई वाहन नहीं चलते थे। ऑटो रिक्शा वाले मेनरोड पर ही सवारियों को उतारकर आगे बढ़ जाते थे। अंदर तक का सफर करीब एक किलोमीटर तक का था। मुझे लगता है  इस सफर को पैदल तय करना खास तौर पर जब हाथ में कोई भारी भरकम सामान हो तो तय करना और भी ज्यादा दूभर होता है। फिर महिला होने के नाते मेरी हमदर्दी महिलाओं के साथ सदा ही रही है। 

 खैर जो भी बैठती वह मेरा एक बार मेरे दुप्पटे से कवर किये फेस को झांकने की कोशिश जरूर करती थी। मेरी आदत थी कि मैं अपनी लिफ्ट दी महिला से कोई पर्सनल सवाल या बात नहीं करती थी। बस चुपचाप जहां तक मैं जाऊं वहां तक या वो जहां तक उतरने को न बोले वहां तक चुपचाप बिना बोले उसे छोड़ देती थी। हालांकि हर लिफ्ट लेने वाली बुजुर्ग महिलाएं मुझे लाखों दुआएं देती थीं। कई सवाल करतीं आपको पहचाना नहीं है कौन हैं आप? मेरा हर किसी से बस एक ही उत्तर होता जरूरी नहीं है आपको मुझे पहचानना और यह कहकर लिफ्ट लेने वाली महिला, लड़की को उतारकर मैं अपनी गाड़ी आगे बढ़ा देती। 

 प्रतिदिन की यह क्रिया से शायद मुझे भी आत्म संतुष्टि देती थी। उस दिन भी प्रतिदिन की भांति जब मेन रोड से अंदर की ओर चलने लगी तो मुझे मुझे आधी कमर झुकाए एक बुजुर्ग दिखे। मेरी सवारी तो महिलाएं और लड़की ही होती थीं इसलिए मैंने भी ज्यादा ध्यान न दिया। लेकिन उन्होंने मुझसे आगे चल रहे पहले तीन बाइक सवारों को रुकने के लिए हाथ दिया। लेकिन किसी भी बाइक सवार ने अपनी बाइक को न रोका न ही पूछा कि क्यों रोक रहे हो? खैर मुझे लगा आज लगता है इन्हें ही लेकर जाना पड़ेगा।  सो मैने अपनी एक्टिवा को उनके सामने रोक दिया। हालांकि उन्होंने मुझे न तो रोकने की कोशिश की न ही मेरी एक्टिवा को देखकर हाथ दिया। शायद उन्हें लगा होगा कि जब तीन लड़के न रुके तो मैं तो फिर एक लड़की हूं। खैर मैंने उनके आगे अपनी गाड़ी रोकी और कहा कि बैठ जाओ। वह मेरी शक्ल देखने लगे। मैने फिर से कहा बैठ जाओ। वह बैठ गए। मैं उन्हें और उनके हाथ में पकड़े कुछ बोझ को ढोते हुए चल दी। थोड़ा चलकर अंदर काशीराम कॉलोनी के सामने उन्होंने मुझे रोकने के लिए कहा सो मैने उन्हें वहां पर उतार दिया। उतरने के दौरान मैने बस इतना ही पूछा कि इस उम्र में इतनी कड़ाके की सर्दी में क्या जरूरी था उनका घर से बाहर निकलना? बुजुर्ग ने जबाव दिया कि उनका बेटा कहीं चला गया है वह पुलिसवालों से मिलकर आए हैं। उसके बाद बात आई और गई हो गई। कई दिन बीत गए मैं इस बात को भूल चुकी थी।  एक दिन मैं पड़ौस में एक शादी का व्यवहार देने के लिए एक के घर गई। अपने काम के चलते मेरे पास समय का अभाव रहता है इसलिए मैं किसी के भी कार्यक्रम में कम ही शामिल हो पाती हूं। हालांकि इस तरह से टाइम बे टाइम मिलकर अपने व्यवहारों को जरूर निपटाती हूं सो उस दिन उनके घर पर गई थी। इस बीच हमारी बातचीत में उन्होंने मुझे बताया कि एक बुजुर्ग बाबा काफी दिनों ने से नहीं आए हैं। उनके लिए उन्होंने ढेर सारे कपड़े और कुछ खाने पीने का सामान निकालकर रखा हुआ है। शायद सर्दी के कारण बीमार हो गए होंगे। बातों ही बातों में पता चला उनका बेटा गायब हो गया है। काफी टाइम हो गया है लेकिन कोई पता न चल सका। मैने लापरवाही वाले अंदाज में कहा मार दिया होगा किसी ने या किसी का कर्जा होगा तो लेकर भाग गया होगा। तब उन्होंने बताया कि गरीब आदमी है कौन मारेगा इनसे किसी को क्या मिलेगा? एक ही बेटा था। एक बहू है उसके चार छोटे-छोटे बच्चे हैं। बेचारे के पास दो वक्त की रोटी के लिए भी पैसे नहीं हैं। यहां आता है तो हम लोग उसे कभी आटा तो कभी दवा के लिए पैसे दे देते हैं। दोनों बूढ़े बुढ़िया अपनी बहू और बच्चों के लिए भीख मांगकर काम चलाते हैं। मैने उनसे पूछा कि क्या पुलिस ने कुछ नहीं किया? इस पर वह लंबी सी सांस लेते हुए कहने लगी पुलिस ने आज तक बिना किसी से लिए दिये किया है? जो इन गरीब के लिए कुछ करेगी? उनकी बातें सुनकर दिमाग जैसे सुन्न हो गया। यह वही बाबा थे जिसे शायद लिफ्ट दी थी। मैं अपने आपको अपराध बोध महसूस कर रही थी। सोच रही थी काश मैने उनसे बात की होती तो शायद कुछ मदद कर सकती। फिलहाल चलते वक्त उनसे बस इतना ही कहा कि आप पता करिए कि अब वह कहां हैं? उनकी मैं जितना हो सके मदद कर दूंगी। एक लंबा अरसा बीत गया काफी दिनों तक बाबा का कोई अता- पता न चला। एक दिन उड़ती हुई खबर आई कि बाबा की बहू ने भी आत्महत्या कर ली है और वे बुजुर्ग और अपनी पत्नी और अपने बेटे के चार छोटे-छोटे बच्चों को लेकर कहीं चले गए हैं।

 मैने अपने घर के आंगन में उनके लिए इकट्ठा किए सामान पर नजर डाली तो लगा जैसे वह मुझसे कह रहे हों कोई कुछ अपने साथ नहीं ले जाता सब यहीं छूट जाता है…।

(यह कहानी पायल कटियार ने लिखी है। पायल आगरा में रहती हैं और पेशे से पत्रकार हैं।)

[नोट: इस कहानी के सभी पात्र और घटनाए काल्पनिक है, इसका किसी भी व्यक्ति या घटना से कोई संबंध नहीं है। यदि किसी व्यक्ति से इसकी समानता होती है, तो उसे मात्र एक संयोग कहा जाएगा।]

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