ब्रज संबंधित तीन शोध पत्र : व्याख्यानों पर मनन अनुचिंतन

अमनदीप वशिष्ठ

पिछले दिनों श्रीरंगम में वैष्णव धारा पर एक संगोष्ठी हुई जिसमें बहुत विद्वानों ने भाग लिया। उनमें तीन युवा विद्वानों से परिचय रहा है और गाहे-बगाहे उनके कार्य को निकट से देखने के अवसर भी मिला। चूंकि जिनके कार्य को हम लम्बे समय से देखते आ रहे हों सो स्वभावतः उनके किये नए शोध को समझने हेतु एक भावात्मक आवेश भी रहता ही है। इसी सिलसिले में सुशांत भारती जी, हितांगी ब्रह्मभट्ट जी तथा सुरभि पांडेय जी के व्याख्यान को सुना। प्रस्तुत अनुचिंतन उस सुने पर ही आधारित है। [लिखित शोधपत्र तो सम्भवतः प्रकाशित होने के उपरान्त विस्तारपूर्वक देखे जाने सम्भव हों।] 

 सुशांत जी का शोधपत्र नागरीदास के रचनाकर्म में वृन्दावन के सामाजिक जीवन का अनुसंधान करता है। हितांगी जी का कार्य सूरसागर की पांडुलिपियों में समर्पण तत्त्व पर तथा सुरभि जी का पत्र ‘रिचुअल एज़ क्रिएशन ऑफ स्पेस’ पर। तीसरे शोध पत्र के शीर्षक को हिंदी में अनूदित करने में किञ्चित कठिनाई है। इसलिए नहीं कि रिचुअल अथवा स्पेस शब्द का हिंदी अनुवाद न हो सकता हो। बल्कि इसलिए कि आधुनिक ज्ञानमीमाँसा में ‘स्पेस’ – ‘मैपिंग’ – ‘लोकेशन’- ‘रीकन्फिगर’ -‘लैण्डस्केप’ आदि शब्द महज़ शब्द नहीं हैं। इनके अर्थसंघात बहुत दूसरी क़िस्म के हैं। अर्थ केवल शब्दकोष से नहीं आता। अर्थों के समूह परिप्रेक्ष्य से आते हैं। फ्रांस में देरिदा मिशेल फूको देल्यूज़ बोर्दियू आदि विद्वानों के काम के बाद उत्तरआधुनिक विमर्श के भाषा में शब्द जिस तरह आते हैं उनकी ध्वनियाँ संश्लिष्ट [इन्ट्रीकेट] होती हैं। इसलिए जब सुशांत जी ‘मैपिंग’ शब्द का प्रयोग करते हैं – या फ़िर सुरभि जी ‘स्पेस’ का अथवा हितांगी जी ‘टेक्सट’ का तो उनके हिंदी अनुवादों से पूरा भावलोक नहीं खुल सकता। मेरे विचार से हिंदी में हम इस तरह से बात करते रहे हैं वह ‘फ्लैट’ यानी सपाट हो गयी है। चूँकि हमारा भावलोक अभी भी ‘निश्चितताओं’ [सर्टिट्यूड्स] की तलाश में है। जैन शास्त्र जिस ‘स्यात’ की बात करता था – सप्तभंगी के रास्ते – यदि हम उस भाषा को विकसित करते तो शायद आज हमें पोस्ट-मॉडर्न फ्रेंच शब्दावली पर उतना निर्भर नहीं रहना पड़ता। खैर फ़िर भी – हम फ्रेंच विद्वानों के आभारी है कि उन्होंने हमें निश्चितताओं की नींद से बाहर ला खड़ा किया है। जैन नय – बौद्ध न्याय और या फिर मिथिला नवद्वीप की भाषा रूपांतरण के द्वारा यूरोप में पुनर्नवा हो रही है। खैर। यहाँ तीनों व्याख्यानों का सार रिपोर्ताज़ प्रस्तुत करना अभीष्ट नहीं वरन कुछेक वे बिंदु जिन्होने विचार हेतु बाध्य किया सो अभिव्यक्त हुए हैं। पूरे विवरण हेतु वे तीनों व्याख्यान सुने जाने चाहियें।

१. नागरीदास का सांस्कृतिक पाठ

सुशांत जी ने नागरीदास के एक ‘टेक्स्ट’ का सांस्कृतिक पाठ किया। अलबत्ता ये परम्परा पुरानी है। वासुदेवशरण जी ने अपनी थीसिस मूलतः जिस तरह लिखी थी वह व्याकरण के ग्रंथ का सांस्कृतिक अध्ययन ही था और इसी तरह से बाद में हर्षचरित का भी। सुशांत जी ने नागरीदास की रचना में सामाजिक बुनावट पर कहते हुए जो संकेत किया उससे दो तीन बिंदु स्पष्ट हुए। एक तो यह कि हमारे यहाँ समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण अनुपस्थित नहीं है। वह दरअसल आध्यात्मिक स्ट्रक्चर के भीतर रहता है। लेकिन उसे ‘एक्स्प्लिकेट’ करना सीधा काम नहीं है। परन्तु जिस तरह नागरीदास जी के कार्य से कुछ संकेत मिले हैं वह मद्धम भले हों लेकिन महत्त्वपूर्ण हैं। उसमें चार वर्ग दीखते हैं। साधुसंत गोस्वामी – कवि गायक – शिल्पकार कामगार वर्ग तथा वनस्पति जंतु। सुशांत जी की एक टिप्पणी में संकेत था कि सत्रहवीं अट्ठारहवीं शताब्दी के दौरान वृन्दावन की सामाजिक बुनावट को लेकर बहुत अधिक सामग्री नहीं है। हाल ही में प्रकाशित वृन्दावनधामानुरागावली किञ्चित बाद की है। अलबत्ता उससे कुछ तो कमी पूरी होगी ही। नागरीदास जी का वर्गीकरण मानीखेज़ है लेकिन कोई फूको के हवाले से ये पूछ सकता है कि क्या इन वर्गों की कोई आतंरिक शक्ति संरचना भी है! यानी ठाकुरजी की पोशाक बनाने वाले कारीगर अथवा ठाकुरजी के सेवा में लगे गोस्वामी की सामाजिक अवस्थितियाँ आपस में किस तरह जुड़ी हैं। आधुनिक भारत में सामाजिक अवस्थितियों का प्रश्न बहुत केंद्र में आ गया है। अतः नागरीदास द्वारा प्रस्तुत क्रम क्या कोई शक्तिमीमांसा लिए हुए भी है या फ़िर वो सहज रूप में आ गया है। सुरभि जी के पत्र में जिस ‘रिचुअल स्पेस’ की बात हुई जिसे बाद में संगोष्ठी में ही एक प्रश्नकर्ता ने आगे बढ़ाते हुए ‘मेटा रिचुअल’ कहा – उसी  ‘रिचुअल स्पेस’ का सामाजिक पक्ष पुनः देखना होगा। सुरभि जी के व्याख्यान के बाद एक प्रश्न उठा कि कार्तिक व्रत का वृन्दावनी अनुष्ठान समाप्त होने के बाद उन महिलाओं के जीवन पर महीने भर चलने वाले उस अनुष्ठान का क्या प्रभाव रहता है। स्वभावतः ये भी बात चली कि समाज के अलग अलग वर्गों से आने वाली महिलाओं के बीच के सामाजिक संबंध किस तरह बदलते हैं। एक संकेत दिलचस्प था कि कार्तिक के अनुष्ठान तक जातीय क्रम विलीन हो जाता है। लेकिन उड़ीसा गाँव लौटते ही वह पुनः ‘रिस्टोर’ [पुनर्प्रतिष्ठित] हो जाता है। सब अपने अपने जातीय संरचनाओं के भीतर चले जाते हैं। अब इसे सुशांत जी के कार्य से जोड़कर देखें तो हमारे लिए कई नए रास्ते खुल जाते हैं। नागरीदास जी वृन्दावन में ‘एट होम’ होते हुए भी एक तरह की ‘एग्ज़ाइल’ [निर्वासन] में हैं। अपना राज्य छोड़कर आने के पीछे राजनैतिक उठापटक भी है। उनका विवरण एक ख़ास तरह के कम्बीनेशन से आ रहा है। वे राजपरिवार से भी हैं और भक्त भी। एडवर्ड सईद लगातार संकेत करते रहे हैं कि जब हम सामाजिक प्रेक्षण करते हैं तो उसमें हमारी अपनी जगह भी एक भूमिका अदा करती है। जिसे वे ‘स्ट्रैटेजिक लोकेशन’ एहते हैं। हमें ये देखना होगा कि नागरीदास की ‘स्ट्रैटेजिक लोकेशन’ और बाद में आये वृन्दावनधामानुरागावली के रचयिता गोपाल राय की जगह में कितना फ़र्क़ है! और वो फ़र्क़ उनके विवरणों को कितना प्रभावित करता है। नागरीदास जी ने अपना दार्शनिक प्रस्थान ब्रज को चुना है- मूलतः किशनगढ़ का होते हुए भी। [खुद सुशांत जी ने आरम्भ में स्वयं के मूलतः भोजपुरीभाषी इलाक़े से होने की बात कहते हुए अपनी बात ‘ब्रजभाषा’ में शुरू की। चूँकि बात को मातृभाषा में कहने का अनुरोध था। ये एक मिसाल है कि हम अपनी ज्ञानमीमांसीय भूमि को ख़ुद भी चुनते हैं। कभी कभी वह एक ‘गिवन’ (प्रदत्त तत्त्व) होता है और कभी हम उसे अर्जित करते हैं। सोरेन कीर्कगार्ड का ‘आइदर ऑर’ हम सबके सामने रहता ही है। सुशांत जी ने ब्रज को अर्जित किया है।] सुशांत जी ने तीसरे कामगार वर्ग के विवरण देते हुए वृन्दावनी पाक परम्परा का तफसीलवार ब्यौरा दिया। मिठाईयों के उस ब्यौरे का संकेत ये कि वृन्दावनी धारा इहलौकिक और पारलौकिक का संश्लेषण रचती है। ‘रस’ आध्यात्मिक भी है और इसी ‘लोक’ से उपजा भी। वह लोक मनुष्य वनस्पति जंतु जगत सबको घेरे है। ‘श्वान’ संबंधी पद का ब्यौरा ‘लोक’ का मनुष्येतर पक्ष ही है। वासुदेवशरण जी की परम्परा का पुनर्पाठ सुशांत जी के कार्य से हुआ सो वह एक शुभ संकेत है। आशा है इसी तरह धामानुरागावली का भी अध्ययन शीघ्र आएगा।

२. सूर समर्पण पुष्टि – एक नया प्रस्थान

हितांगी ब्रह्मभट्ट का कार्य पिछले कुछ वक़्त से पढ़ने का अवसर मिला है। उसमें पश्चिम की टेक्नीक और पूर्व के बीजसूत्र दोनों हैं। उनके कार्य में भाषा तथा कलारूप दोनों का दार्शनिक विश्लेषण शामिल रहता है। अतः मेरी दिलचस्पी स्वतः बढ़ जाती है।  सुशांत जी कार्य भी एक तरह से ‘टेक्स्ट’ आधारित था तो हितांगी जी का कार्य भी ‘टेस्क्ट’ आधारित ही। अलबत्ता अंतर ये कि हितांगी जी ने एक तत्त्वमीमांसीय कोटि [एपिस्टेमोलॉजिकल कैटेगरी] के विश्लेषण को आधार बनाया – सो वह थी भक्ति में समर्पण तत्त्व। उसके कई आयामों में एक था हॉली साहिब की व्याख्या पर उनका अभिमत। पूरी बात सूर के काव्य [सूरसागर !] को आधार बनाकर हुई। हॉली साहिब के अनुसार सूर तथा वल्लभ सम्प्रदाय का स्थापित संबंध आलोच्य है। वे अपने कार्य की बुनियाद ‘टेक्स्ट’ को ही रखते हैं। चूंकि लम्बे समय से उनके कार्य का आधार भी ‘ऑथर -अथॉरिटी’ के अंतरसंबंधों के इर्द-गिर्द घूमता रहा है। दरअसल सूर की प्रतिभा इतनी गहन है कि उनको एक जगह देखना कठिन होता ही है। हिंदी आलोचक साही जी ने एक बार संकेत किया था कि सूर के काव्य-चमत्कार में सूर की प्रतिभा ज़्यादा है और ब्रजभाषा का सामर्थ्य कम। उनके शब्द हालाँकि ठीक यही नहीं थे जो मैंने अभी प्रयोग किये। लेकिन सूर के रचनाकर्म में ब्रजभाषा आगे है या खुद सूर की प्रतिभा ये तय करना बहुत मुश्किल हो जाता है। फ़िर ये सम्प्रदाय से संबंध तय करना तो और भी मुश्किल शै ठहरेगी। इससे पहले नागरीदास पर चर्चा करते हुए जब सुशांत जी उनका निम्बार्क मत से संबंध कहते हैं तो उन मुश्किलों का भी संकेत कर देते हैं जो अमूमन उपस्थित होती हैं। खैर लेकिन हितांगी जी ऐतिहासिक विश्लेषण का स्थूल रास्ता नहीं पकड़तीं। [जयदेव के गीतगोविन्द के गुजराती परम्परा पर चर्चा करते हुए भी उन्होंने पुराना थियोलॉजिकल रास्ता नहीं पकड़ा था।] उनका मार्ग दिलचस्प है। सो वह ये कि ब्रजलीला की पूरी काव्य-योजना में जिस तरह सूर पात्रों के साथ एकाकार होते हैं – और फिर ‘छाप’ के साथ पुनः स्वयं के मूल रूप में लौट आते हैं, ठीक वही बिम्ब योजना पुष्टिमार्गीय सेवा के दौरान भक्त की रहती है। वह ब्रजलीला में गोप-गोपियों की अलग अलग भूमिकाओं के साथ तदाकार [आइडेंटिफाई] हो जाता है – और फ़िर पुनः अपने मूल भक्त रूप में लौट आता है। अतः सूर और पुष्टिमार्गीय सेवा के यथार्थ स्वरूप ही में एक गहरा ‘कॉरेस्पॉन्डेंस’ है। दूसरा यह कि समर्पण का पुष्टि-विचार बगैर दैवीकरण किये घटित होता है। [सरण्डर विदाउट डीफिकेशन]. सूर तथा पुष्टिमार्गीय सेवा भावना के वर्तमान में वह प्रक्रिया समान है। ये सारी बात हितांगी जी ने कुछ पदों पर चर्चा करते हुए की है। साथ ही कुछ चित्र भी शामिल किये।  हितांगी जी की तर्कप्रणाली से जो नए प्रश्न उपस्थित हुए हैं उनसे हॉली साहिब के कार्य पर पुनः चर्चा आरम्भ होगी। दिलचस्प ये होगा कि इस चर्चा की टेक्नीक ऐतिहासिक विवरण न होकर दार्शनिक प्रस्थान लिए होगा।

३. वृन्दावनी आनुष्ठानिकता का अकादमिक विवेचन

सुरभि पांडेय जी का कार्य मूलतः ‘फील्डवर्क’ आधारित है। वृन्दावन में कार्तिक मास के दौरान आने वाली उड़िया तीर्थयात्री स्त्रियों से संबद्ध। श्रीधाम ही में कुछ समय रहने के दौरान उन भक्त स्त्रियों की चर्या को देखने का अवसर मिला था। अलबत्ता उस पूरे आनुष्ठानिक क्रम को ठीक से समझने में अब मदद मिली जबकि सुरभिजी के व्याख्यान को ठीक से सुना। इस तरह के व्याख्यान से कुछ आवश्यक सूत्र मिलते हैं जो ब्रज के अध्येताओं को सीखने चाहियें। हम जो अनुष्ठान दैनंदिन जीवन में देखते हैं उनको देखना एक बात है। उनका ब्यौरा दर्ज कर लेना भी आवश्यक है। लेकिन सबसे महत्त्वपूर्ण  है – उन  विवरणों को ‘डिस्कोर्स'[ विमर्श] के भीतर गुज़ारकर नए ‘नैरेटिव'[आख्यान] का निर्माण। ब्रज के पुराने फील्डवर्क के साथ मूल सीमा यही थी [जो एक तरह से उस दौर के बाकी जनपदीय इलाक़ों के अध्ययनों  भी थी] कि उन संकलनों से दृष्टिकोण नहीं उभर पाते थे। इसलिए वे कार्य महज़ फील्ड-डायरेक्ट्री बनकर रह जाते थे। सुरभि जी ने अपने फील्डवर्क के ब्यौरों को दो तरह से देखा है। पहले ‘रिचुअल स्पेस’ की निर्मिति में और फ़िर उसके ‘टेम्पोरल’ [कालाबद्ध] आयाम में। मसलन भक्त स्त्रियों के सामाजिक विवरण और वृन्दावनी भूमि पर उनके रूपांतरण या फ़िर मंदिर की भूमि पर बनाये गए अल्पना कला रूप। इस सबमें गीतों तथा कथा की भूमिका। तुलसी विवाह का एक तरह से ‘इम्पेन्डींग डायमेंशन'[ सम्भाव्य आयाम] के रूप में लगातार मौजूद रहना। दिनों के साथ अनुष्ठान के स्वरूप का बदलना। अब मान लें कि कोई फागुन या सावन या किसी दूसरे रथ-उत्सव पाटोत्सव आदि का अध्ययन करने चले तो उसे इस कार्य से सीखना होगा कि वह अपने वैचारिक आयाम को तो तय कर ही ले। ‘सर्वे’ एक काम तो होता है लेकिन वह अंतिम काम नहीं होता। अतः यह ध्यानपूर्वक सुने जाने वाला व्याख्यान है। जिससे युवा विद्यार्थियों को विशेष सीखना चाहिए।

४. निवेदन

इन व्याख्यानों को सुनते हुए कुछ समस्याएं भी उभरती हैं। प्रोफेसर कृष्ण चंद्र गोस्वामी जी ने पिछले दिनों अपनी डायरी के कुछ पृष्ठ साझा किये थे। उनको पढ़कर जो सबसे पेचीदा प्रश्न उभरता है वह है ‘कल्चरल सेल्फ’ यानी सांस्कृतिक आत्म का प्रश्न। उन पृष्ठों पर कभी अलग से चर्चा करने का मन है। लेकिन फिलहाल हम यह अपने आप से पूछ सकते हैं कि ये जो ‘स्पेस’ – ‘मैपिंग’ – ‘लोकेशन’- ‘रीकन्फिगर’ -‘लैण्डस्केप’ सरीखे शब्द हमें मिले हैं उनसे हम एक नए तरह से सोच तो पा रहे हैं। लेकिन क्या ये शब्द एक सीमा तक जाकर महज़ शिल्प-विधान [ क्राफ्ट फॉर्म-टेक्नीक] बनकर तो नहीं रह जाएंगे। उनका हमारे अपने सेल्फ से क्या रिश्ता है ! हालांकि मेरे विचार से कभी कभी ये भी लगता है कि इन नयी अवधारणाओं की मदद से ही हम अपने आप को एक दूरी से देख पाते हैं। उस दूरी से एक तरह की ‘ऑब्जेक्टिविटी’ [वस्तुनिष्ठता] का निर्माण होता है। रेने देकार्त ने कभी कहा था – आई थिंक देयरफोर आय एम। मैं विचार करता हूँ इसलिए ‘मैं हूँ’। हमारे यहाँ ‘मेरा होना’ पूरी तरह विचार पर निर्भर नहीं रहा। इसलिए कहना मुश्किल है कि ब्रज का सेल्फ क्या ‘कार्टीज़ियन सेल्फ’ ही है। शायद इन तीनों युवा अध्येताओं को कभी न कभी उस सवाल से टकराना तो पड़ेगा ही।खैर। जिस तरह से युवा अध्येता काम कर रहे हैं उससे एक बात तो तय है। अब हम पूरे विश्व के साथ संवाद में प्रविष्ट हो रहे हैं। उसमें विवाद भी होगा और संवाद भी। वही द्वंद्वात्मकता का ठोस आकार है और हमारी नय-दृष्टि  का भी।

(हिस्ट्रीपंडित डॉटकॉम के लिए यह आलेख अमनदीप वशिष्ठ ने लिखा है। अमन हरियाणा के रोहतक में रहते हैं। अमन व्यवसाय से शिक्षक हैं तथा ब्रज के इतिहास और संस्कृति संबंधी विषयों के मर्मज्ञ हैं।)

error: Content is protected !!