दानलीला का निहितार्थ:-ब्रज सम्पत्ति का संरक्षण और रस संवर्धन

यामिनी कौशिक

श्री कृष्ण लीला में जो रस संचरण हुआ है वह दान लीला के कारण हुआ है। प्राय: जैसा कि कहा जाता है कि यदि राम लीला से वनगमन प्रसंग हटा दिया जाए तो कुछ नहीं रह जाएगा ठीक इसी प्रकार यदि श्री कृष्ण लीला में दान लीला के भाव को ना समझे तो अन्य लीलाओं को समझ पाना असंभव सा ही लगता है क्योंकि मूल में जाकर देखें तो गौ रक्षा, गोवर्धन धारण, गोपी प्रेम, वन लीला, गौ चारण इत्यादि इन सबमे दान लीला की प्रारंभिक भूमिका रही है।वैसे दान के शाब्दिक अर्थ पर विचार करें तो सुपात्र को या ज़रूरतमंद को कुछ देना। पर एक विशेष बात, दी हुई वस्तु पर से दाता का स्वामित्व भी साथ में समाप्त हो जाता है। अब श्री कृष्ण के परिप्रेक्ष्य में दान की प्रासंगिकता देखे तो – ना तो वे ज़रूरतमंद है, ना उन्हें किसी वस्तु विशेष की आवश्यकता।

अब हम श्री कृष्ण के उस दिव्य, भागवतिक स्वरूप को एक बार भूलकर उन्हें श्री नंदबाबा के पुत्र के रूप में भी समझें तो — नंदबाबा ब्रजराज है; विचारणीय है कि क्या ब्रजराज के घर में किसी वस्तु की कमी होगी। और वो भी ८० वर्ष की अवस्था में उनके घर लाला का जन्म हुआ तो अत्यन्त लडैते लाल जी। दूसरी बात मैया भी नाराज़ होती है जब ठाकुर जी इस तरह माँगा जाँची करते हैं यानि कोई पारिवारिक समर्थन भी नहीं प्राप्त और उस पर भी पूरी एक मण्डली का निर्माण कर ऐसा दान लिया कि जगत् प्रसिद्ध “दानीराय” हो गये। और श्री परमानंददास जी भी कह उठे कि — “लला हो! किनि ऐसे ढंग लायौ।” बड़ा विचित्र ढंग है इनका लेने का।

अब प्रश्न है कि दान; आज की सामान्य भाषा में जिसे हम कर (tax) कह सकते है, किस वस्तु का लिया —तो यह सर्व विदित है कि ठाकुर ने दान लिया – दूध, दही, मक्खन, घी का। जिसका कि दान लेना अपने आप में ही आश्चर्य पैदा करता है वर्तमान में तो बहुत प्रकार के कर लिये पर यह कर तो मात्र श्री कृष्ण द्वारा ही लिया गया।

तभी तो गोपी कहती हैं कि —“ कबहू ना दान सुन्यौ गो-रस कौ।”और उसमें भी ठाकुर का पद भी बहुत बड़ा है आख़िर ब्रजराज के एकमात्र सुपुत्र है। यानि की युवराज होकर दूध- दही की दान माँगा जा रहा है -“ तुम तौ कुँवर ! बड़े के ढोटा पार नहीं कछु जस कौ।” और समृद्धि — “ नौ लख धेनु नंद बाबा के, नित नयो माखन होय” अवर्णनीय है।

इस पर भी यदि कोई आना – कानी करती तो ठाकुर अपनी हुकूमत भी दिखाते —“ यही हमारौ राज है ब्रज मण्डल सब ठौर।”

यह रस वार्ता अनुपम और परम दिव्य है और अंत रहित है। लेकिन अब हम इस लीला के तत्व मीमांशीय वर्णन पर आते है जैसा कि ब्रज शब्द के अर्थ से ही स्पष्ट है कि – “ब्रज गवां गोष्ठे” अर्थात् गायों का चलता – फिरता समूह ही ब्रज है। उस समय गौ धन को ही सर्वोत्तम और सर्वश्रेष्ठ धन माना जाता था। जिसके पास जितना अधिक गोवंश वह उतना ही समृद्ध। और गौ की महिमा तो सर्व विदित है ही। गौ महिमा का वर्णन करते हुए स्वयं श्री ठाकुर जी ने कहा है कि “ये गैया तिहुँ लोक तारिनी चारयौ जुग परमान, (श्री माधवदास जी) तो जो ब्रजगोपिकाएं अपना दूध – दही – घी-मक्खन ब्रज के बाहर मथुरा नगर (मथुरा सप्त पुरियों में आता है अपना ब्रज क्षेत्र मथुरामण्डलान्तर्गत मान्य है) में विक्रय हेतु जाती थी वहाँ का तत्कालीन राजा कंस था; जिसके आतंक से हम सब भलीभाँति परिचित है, एक तरह से उस गो- उत्पाद से कंस के अधीन राक्षसी वृत्ति का पोषण हो रहा था, जो न केवल ब्रज के लिए साथ ही संपूर्ण जगत् के लिए घातक था क्योंकि वह जान चुका था कि देवकी मैया के अष्टम् पुत्र श्री कृष्ण ब्रज में नंदराय ज़ू के यहाँ पोषित हो रहे हैं।

इस हेतु कंस द्वारा पूर्व में अनेकों बार ब्रज पर राक्षसों को भेजकर आत्मघाती हमले किए गए।वैसे भी दूध को सद्य पुष्टिवर्धक माना जाता है। तो इस प्रकार उन पुष्टिवर्धक गो – उत्पादों से कंस और उसके आतातायी दुष्टों को बल मिल रहा थाऔर पोषण हो रहा था। और वे ब्रज जनों के गो -उत्पादों को पाकर बलयुक्त होकर इन्हीं ब्रजजनो को ही आतंकित कर रहे है। इस कारण यह ब्रज सम्पत्ति का, एक प्रकार का अपव्यय ही था, उस पर रोक लगाने हेतु श्री ठाकुर ने इस प्रकार की रसमयी लीलाओं का वर्धन किया। क्योंकि पूर्व में इंगित कर दिया गया है कि ठाकुर ब्रजराज श्री नन्द जू के पुत्र है अत: राजा या राजपुत्र का यह कर्तव्य होते कि धन के अपव्यय को रोकें । यही कारण रहा कि श्री कृष्ण ने अपने राज्य की प्रति अपने कर्तव्य का पालन ही किया।यदि प्रत्यक्ष रूप से रोकते तो ठाकुर जाने क्या होता परंतु इस प्रकार इस लीला के माध्यम से अनेकानेक रसमयी परम दिव्य एकांतिक रसवर्द्धनी लीलाओं का विस्तार हुआ। इन रसमयी लीलाओं का वर्णन ब्रजरसिकों ने अपनी वाणियों में प्रचुर रूप से किया है।

“हमरौ दान देहु ब्रज नारी।

मदमाती गज गामिनी डोलै तू दधि बेचन हारी।

रूप तोहि विधना ने दीयौ ज्यौं चंदा उजियारी।।

मटुकी सीस कटीले नयना मोतिन माँग संवारी।।

हार हमेल गले में राजै अलकैं घूघंर वारी।

या ब्रज में जेती सुन्दरि हैं सब हम देखी भारी।

‘नारायण’ तेरी या छवि पर नंद नंदन बलिहारी।।”

जय गिरिराज

यामिनी कौशिक

(हिस्ट्रीपंडित डॉटकॉम के लिए यह आलेख यामिनी कौशिक ने लिखा है। यामिनी दर्शन शास्त्र से परास्नातक हैं और गोवर्धन में रहती हैं।)

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