भारतीय इतिहास में दस्तावेजी हेर फेर का इतिहास

दस्तावेजों में हेर फेर करके या जाली दस्तावेज बनाकर शासन से लाभ लेने की घटनाएं हम अक्सर अपने परिवेश में देखते रहते हैं। कोई फर्जी दस्तावेज बनाकर सरकारी नौकरी हासिल करता हुआ पकड़ा जाता है तो कोई किसी अन्य लाभ को लेता हुआ। क्या आपने कभी सोचा है कि इस तरह से दस्तावेजी हेर फेर कर फ्राड करने का इतिहास कितना पुराना है? इतिहास में इस तरह से जाली दस्तावेज बनाने की शुरुआत कब से हुई थी? आइए इस लेख में विस्तार से जानते हैं। 

पहले समझें ताम्रपत्र क्या होता था 

जैसा कि हम लोग जानते हैं कि कागज के चलन से पूर्व लेखन के लिए ताड़ के पत्ते प्रयोग में लाए जाते थे पर कोई महत्वपूर्ण सूचना या सनद (प्रमाण पत्र) लिखना हो तो कोई ऐसी विधि चाहिए होती थी जो लंबे समय तक सुरक्षित रहे। इस कार्य के लिए ताम्रपत्र प्रयोग में लाए जाते थे। ताम्रपत्र तांबे की प्लेट हुआ करता था जिसपर खोद कर अक्षर बनाए जाते थे और तहरीर दर्ज की जाती थी। उस समय जमीन दान में दिए जाने का चलन होता था। अकसर जमीन के रूप में पूरा का पूरा गांव ही किसी को दान दे दिया जाता था। इस तरह के दान का विवरण इन ताम्रपत्रों पर अंकित करके पाने वाले को सनद के तौर पर दिया जाता था जिससे वह या उसके वंशज भविष्य में भी दान में प्राप्त भूमि पर अपना अधिकार सिद्ध कर पाएं।

आखिर किसे दिया जाता था यह ताम्रपत्र

पुराने जमाने में विद्यानुरागी ब्राह्मणों को और मठों तथा विहारों को पूरे गांव दान में दिए जाते थे। राजा द्वारा ब्राह्मणों को दिए गए भूमिदान को अग्रहार कहते हैं। ऐसे दान के लिए राज्यादेश जारी किए जाते थे। फिर दान के इस विवरण को तांबे के पत्रों पर बड़ी सावधानी से खोजा जाता था। इन्हें ही ताम्रपत्र या ताम्रशासन कहते हैं। इन ताम्रपत्रों में छेद करके इनमें एक मोटी कड़ी डाल दी जाती थी और इसके जोड़ पर राजमुद्रा का ठप्पा लगा दिया जाता था। भारत के विभिन्न प्रदेशों से ऐसे हजारों ताम्र पत्र मिले हैं। 

आखिर क्या लिखा जाता था इन ताम्रपत्रों पर

ऐसे ताम्र पत्रों में प्रायः राजा की विस्तृत वंशावली, तिथि या शासन काल का वर्ष दिया रहता है। यह जानकारी बड़े महत्त्व की होती है। कांचीपुरम के पल्लव शासकों का और महाविदर्भ के वाकाटक नृपतियों का इतिहास मुख्यतः ताम्र पत्रों में दी गई जानकारी के आधार पर ही रचा गया है।

ताम्रपत्रों में उस स्थान का भी उल्लेख रहता है जहां से राजा की ओर से वह ताम्रपत्र दिया जाता है। अग्रहार में दी गई भूमि या गांव की सीमाओं के बारे में भी उसमें विस्तृत जानकारी रहती है। जिस विषय (जिले) और भुक्ति (सूबे) में वह भूमि या गांव होता है उनके भी नाम ताम्रपत्र में दिए रहते हैं। ताम्रपत्रों के इस विवरण से प्राचीन भारत के भूगोल के बारे में महत्त्वपूर्ण जानकारी मिलती है। यह भी पता चलता है कि आज के गांव व नगर प्राचीन काल में किन नामों से जाने जाते थे। जैसे आज का तिरहुत (बिहार) प्राचीन तीरभुक्ति है। 

क्या है जाली ताम्रपत्रों की कहानी

उन दिनों में शिलालेख और ताम्रपत्र चलन में थे। पर जाली शिलालेख बनाना इतना आसान नहीं था इसलिए जाली शिलालेख बहुत कम मिले हैं। किंतु जाली ताम्रपत्र बड़ी आसानी से बनाए जा सकते हैं। ऐसे जाली ताम्रपत्रों को कुताम्र या कूटशासन कहते थे। आज भी जाली दस्तावेजों को कूटरचित कहा जाता है। फिर भी धनलोलुप लोगों ने समय समय पर बहुत सारे जाली ताम्रपत्र बनाए हैं। ऐसे जाली ताम्रपत्र हर्ष काल में भी बने हैं। भारतीय पुरालिपी शास्त्र के प्रख्यात पंडित फ्लीट महाशय ने 1901 ईस्वी में ऐसे करीब 55 जाली ताम्रपत्रों की एक सूची प्रकाशित की थी। उसके बाद और भी कई कूटशासन प्रकाश में आए हैं। आज के पुरालिपीविद ऐसे जाली ताम्रपत्रों को पहचान लेते हैं। 

मनुस्मृति में क्या सजा लिखी है जाली ताम्रपत्र बनाने वाले के लिए

मनुस्मृति (अध्याय 9, श्लोक 232) में उल्लेख है कि, कूटशासन तैयार करने वाले को राजा की ओर से मृत्यु दण्ड मिलना चाहिए। इससे स्पष्ट होता है कि मनुस्मृति की रचना के समय तक जाली दस्तावेज बनाना भारतीय उपमहाद्वीप में चलन में आ गया था। असली ताम्रपत्र इतिहास को जानने के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। 

पिछले करीब दो सौ साल में भारत के कौने कौने में, मठों मंदिरों में, गुफाओं में, घरों में और खंडहरों में हजारों ताम्रपत्रों और शिलालेखों की खोज हुई है। देश विदेश के पुरालिपीविदों ने इनका गहन अध्ययन किया है, शास्त्रीय पत्रिकाओं में इन्हें प्रकाशित करके इनके बारे में विस्तृत जानकारी दी है। इसी जानकारी के आधार पर भारतीय इतिहास व संस्कृति की बहुत सारी विलुप्त कड़ियों को जोड़ना संभव हुआ है। 

(गुणाकर मुले द्वारा लिखित पुस्तक भारतीय लिपियों की कहानी में दिए विवरण पर आधारित)

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