मथुरा की कहानी भाग छह


पूर्व कथा

पिछले भागों में हम चंद्रवंश की शुरुआत, यदुवंश की शुरूआत, श्रीकृष्ण की कथा, महाजनपदों का विवरण, मौर्य साम्राज्य, शुंगवंशी राजाओं, मथुरा के मित्रवंशी राजाओं, मथुरा के शक शासक राजुबुल, शोडास आदि का वर्णन करते हुए मथुरा के दत्त राजाओं तक की कहानी बता चुके हैं। अब आगे…

कुषाण वंश (लगभग 1 ईसवी से 200 ईसवी तक)


लगभग ईसवी सन की शुरूआत में शकों की कुषाण शाखा का प्राबल्य हुआ। विद्वानों ने इन्हें युइशि या ऋषिक तुरुष्क (तुखार) नाम दिया है। युइशि जाति मध्य एशिया में रहती थी। वहां से निकाले जाने पर इस जाति के लोग कम्बोज, वाल्हीक में आकर बस गए और यहां की सभ्यता से प्रभावित हुए। वहां से हिन्दुकुश के पार उतरकर वे चितराल देश के पश्चिम से उत्तरी स्वात और हजारा के रास्ते आगे बढ़े। तुखार प्रदेश में उनकी पांच रियासतें हो गईं। ईसवी पूर्व प्रथम शती में भारत के साथ संपर्क से कुषाणों ने यहां की सभ्यता को अपनाया। 

कुजुल ने जमाई सत्ता


कुषाणों का एक सरदार कुजुल कर कड़फाइसिस था। उसने काबुल तथा कन्दहार पर अपना अधिकार जमा लिया। इसके आगे पूर्व में यूनानी शासकों की शक्ति अब कमजोर हो गई थी, जिसका लाभ उठाकर कुजुल ने अपना। प्रभाव इधर भी बढ़ाना शुरू कर दिया। पल्लवों की शक्ति को समाप्त करके उसने अपने शासन का विस्तार पंजाब के पश्चिम तक कर लिया। मथुरा के आसपास तक इस शासक के सिक्के प्राप्त हुए हैं।

विम तक्षम (लगभग 40-77 ईसवी)


कुजुल के बाद उसका पुत्र विम तक्षम (विम कड़फाइसिस) 40 ईसवी के लगभग राज्य का उत्तराधिकारी हुआ कुजुल के द्वारा जीते गए प्रदेशों के अतिरिक्त विम ने पूर्वी उत्तर प्रदेश तक अपना अधिकार स्थापित कर लिया। बनारस इसके राज्य की पूर्वी सीमा हो गई। इस भूभाग का प्रमुख केंद्र मथुरा नगर हुआ। विम के सिक्के बनारस तक बड़ी संख्या में प्राप्त हुए हैं। इन पर एक ओर राजा की मूर्ति मिलती है और दूसरी ओर नंदी बैल के साथ खड़े हुए शिव की। इस राजा की उपाधि ‘महिष्वरस’ (माहेश्वरस्य) थी जिससे पता चलता है कि यह शिवभक्त था। इसके सिक्कों पर खरोष्ठी लिपि में लेख अंकित हैं।

मथुरा के मांट से मिला देवकुल


मथुरा जिले के मांट गांव के पास इटोकरी टीले से विम की विशालकाय मूर्ति मिली है। इस मूर्ति का सिर टूट गया है। सिंहासन पर बैठा हुआ राजा लम्बा कोट तथा सलवार के ढंग का पायजामा पहने हुए है। हाथ में वह कटार लिए हुए था जिसकी केवल मूंठ बची हुई है। पैरों में तसमों से कसे हुए ऊंचे जूते पहने हुए है। पैरों के नीचे ब्राह्मी लेख उत्कीर्ण है। इस लेख से पता चलता है विम के शासनकाल में एक यहां एक देवकुल, उद्यान, पुष्करिणी तथा कूप का निर्माण किया गया था। 

देवकुल का अभिप्राय मन्दिर से होता है पर यहां पर इसका अर्थ ‘राजाओं का प्रतिमा कक्ष’ है। कुषाणों में मृत राजा की मूर्ति बनवाकर ‘देवकुल’ में रखने की प्रथा थी। इस प्रकार का एक देवकुल मांट के उक्त टीले में तथा दूसरा मथुरा नगर के उत्तर में गौकर्णेश्वर मन्दिर के पास विद्यमान था। दूसरी शती में सम्राट हुविष्क के शासनकाल में मांट वाले देवकुल की मरम्मत कराई गई थी।

कुषाण राज्य का प्रमुख नगर मथुरा


विम के उत्तरी साम्राज्य की मुख्य राजधानी हिन्दुकुश के उत्तर में तुखार देश (बदख्शां) में थी। भारतीय प्रदेशों के शासन क्षत्रपों द्वारा कराया जाता था। उसका साम्राज्य एक ओर चीन साम्राज्य को छूता था तो दूसरी ओर उसकी सीमाएं दक्षिणापथ के सातवाहन राज्य से लगती थीं। इतने विशाल साम्राज्य के लिए प्रादेशिक शासकों का होना आवश्यक था। मथुरा में कुषाणों का देवकुल होने तथा विम की मूर्ति प्राप्त होने से यह अनुमान किया जा सकता है कि मथुरा में विम का निवास कुछ समय तक अवश्य रहा होगा और यह नगर कुषाण साम्राज्य के मुख्य केंद्रों में से एक रहा होगा।

कनिष्क (78 – 101 ईस्वी)


विम के बाद कनिष्क उसका उत्तराधिकारी हुआ। इतिहासकार मानते हैं कि कनिष्क विम के परिवार का नहीं था, वह कुषाणों के किसी अन्य घराने का था। कनिष्क जिस दिन राजा बना उस दिन से उसने एक संवत चलाया जो ‘शक संवत’ के नाम से प्रसिद्ध है। कनिष्क कुषाणों का सबसे अधिक प्रतापी शासक था। इसके राज्य का विस्तार अफगानिस्तान और कश्मीर से लेकर पूर्व में बनारस या उससे भी कुछ आगे तक था। कनिष्क ने चीन के अंतर्गत तुर्किस्तान पर आक्रमण करके उसे भी जीत लिया था। इससे कनिष्क के राज्य की सीमाएं उत्तर में काशगर, यारकंद तथा खोतान तक पहुंच गईं थीं। चीनी तथा खोतानी साहित्य में कनिष्क की विजय यात्राओं के उल्लेख मिलते हैं। इतना बड़ा राज्य स्थापित करने के बाद कनिष्क ने राज्य संचालन की उचित व्यवस्था की। उसने उत्तर में पुरुषपुर (पेशावर) को मुख्य राजधानी बनाया। मध्य में मथुरा तथा पूर्व में सारनाथ इसके मुख्य केंद्र बनाये गए। 

कनिष्क के समय बौद्ध धर्म की उन्नति


कनिष्क के समय पर मथुरा नगर की बहुत उन्नति हुई। राजनीति के साथ-साथ धर्म, कला, साहित्य तथा व्यापार के केंद्र के रूप में मथुरा की पहचान बनी। कनिष्क के स्वयं बौद्ध धर्म का अनुयायी होने के कारण यहां मथुरा में भी बौद्ध धर्म फला-फूला। उस समय पर मथुरा में बहुत से बौद्ध स्तूपों और संघारामों आदि का निर्माण हुआ। बुद्ध की प्रतिमा का मानुषी रूप में निर्माण इसी काल में प्रारंभ हुआ। महायान धर्म की उन्नति के फलस्वरूप पूजा के लिए बड़े पैमाने पर यहां धार्मिक प्रतिमाएं बनाई गईं। कनिष्क के समय की सैकड़ों बौद्ध प्रतिमाएं अब तक प्राप्त हो चुकी हैं।तक्षशिला और पेशावर की तरह ही मथुरा में भी कनिष्क ने अनेक बौद्ध स्तूप और मठ बनवाये। कनिष्क स्वयं बौद्ध धर्म का अनुयायी था पर दूसरे धर्मों के प्रति सहिष्णु था यही वजह थी कि उसके काल मे यहां जैन और हिन्दू धर्म भी उन्नत हुए। उसके काल मे यहां जैनियों के अनेक स्तूप, आयाग पट्ट, तीर्थंकरों की प्रतिमाएं तथा अन्य कलाकृतियों का निर्माण हुआ। इसी तरह शिव, विष्णु सूर्य, दुर्गा, कार्तिकेय आदि हिन्दू देवताओं की प्रतिमाएं भी बनाई गईं।

वासिष्क (102 – 106 ईस्वी) 


कनिष्क के बाद कुषाण साम्राज्य का उत्तराधिकारी वासिष्क हुआ। इसके समय के दो लेख मिले हैं। ये लेख चौबीसवें और अट्ठाईसवें शक संवत के हैं। इससे ज्ञात होता है कि वासिष्क ने ईस्वी 102 से ईस्वी 106 तक राज्य किया था। इनमें से पहला लेख मथुरा नगर के सामने यमुनापार स्थित ग्राम ईसापुर से मिला है। इस लेख में मथुरा के कुछ ब्राह्मणों द्वारा द्वादशरात्र नामक वैदिक यज्ञ करने का उल्लेख है।

हुविष्क ( 106 – 138 ईस्वी) 


वासिष्क के बाद हुविष्क कुषाण साम्राज्य का उत्तराधिकारी हुआ। इसके राज्यकाल के लेख शक सम्वत के 28वें वर्ष से लेकर 60वें वर्ष तक के मिलते हैं। जिनसे यह पता होता है कि हुविष्क ने 106 ईस्वी से लेकर 138 ईस्वी तक शासन किया था। इसके लेखों और सिक्कों के प्राप्ति स्थानों से ज्ञात होता है कि इसका राज्य काबुल से लेकर मथुरा के कुछ पूर्व तक था। कनिष्क की तरह हुविष्क भी बौद्ध धर्म का मानने वाला था। मथुरा में इसने एक विशाल बौद्ध विहार का निर्माण कराया था जिसका नाम हुविष्क विहार था। इसके अलावा इसके समय पर बहुत से अन्य स्तूप और विहार मथुरा में बनाये गए। इसके समय पर बड़ी संख्या में बौद्ध मूर्तियों का निर्माण भी हुआ। मथुरा से प्राप्त एक लेख से यह ज्ञात होता है कि हुविष्क के पितामह के समय में बनवाये गए देवकुल की दशा उस समय खराब हो गई थी जिसकी मरम्मत हुविष्क के शासनकाल में कई गई। 

मांट के इटोकरी टीले से प्राप्त देवकुल में विम, कनिष्क तथा चट्टन की पाषाण प्रतिमाएं मिली हैं पर हुविष्क की नहीं। मथुरा नगर के उत्तर में प्रसिद्ध गौकर्णेश्वर की मूर्ति वास्तव में शिव की मूर्ति नहीं है। इस विशाल मूर्ति की बनावट तथा वेशभूषा से वह किसी शक राजा की मूर्ति लगती है। इसका सिर भी सुरक्षित है जिसके ऊपर ऊंची नोकदार टोपी है। बहुत संभव है कि यह प्रतिमा हुविष्क की ही हो।

वासुदेव (138 – 176 ईस्वी)


हुविष्क के बाद वासुदेव मथुरा की गद्दी पर बैठा। इसके लेख मथुरा के आसपास ही मिले हैं। जिनसे अनुमान लगता है कि वासुदेव के शासनकाल में कुषाण वंश की शाखा का अधिकार कम हो गया था। वासुदेव के सिक्कों पर पीछे की तरफ नंदी बैल सहित शिव की मूर्ति मिलती है। इससे यह अनुमान होता है कि यह राजा शैव मत का अनुयायी रहा होगा। इस प्रकार अपने पूर्ववर्ती विम तथा कनिष्क द्वितीय की तरह वासुदेव भी शैव मत का पोषक ज्ञात होता है। वासुदेव के शासनकाल में बड़ी संख्या में हिन्दू देवी-देवताओं की मूर्तियों का निर्माण हुआ। वासुदेव कुषाण वंश का अंतिम प्रसिद्ध शासक था। इसके राज्य का अंतिम लेख 98वें वर्ष का मिलता है जिससे अनुमान होता है कि इसी वर्ष (176 ईस्वी) के लगभग इसका देहांत हो गया था।

कुषाण काल और मथुरा


कुषाणों के समय मे मथुरा एक महत्त्वपूर्ण स्थान बन गया था। यहां पर विविध धर्मों का विकास हुआ तथा स्थापत्य और मूर्तिकला में अभूतपूर्व प्रगति हुई। मथुरा में बनी हुई मूर्तियों की मांग देशभर में होने लगी। मथुरा की मूर्तियां श्रावस्ती, सारनाथ, सांची, कौशाम्बी, राजगृह आदि स्थानों से मंगवाई जाने लगीं। 

उत्तर भारत के प्रमुख राजमार्ग पर स्थित होने के कारण यहां का व्यापार भी बढ़ा। इस काल में संगठित रुप में विविध शिल्पों और व्यापार के संचालन के उदाहरण मथुरा और अन्य नगरों में मिलते हैं।

कुषाण काल में बैंकिंग सिस्टम


 उस काल के अभिलेखों और साहित्यिक विवरणों के ज्ञात होता है कि शिल्पियों और वणिकों ने अपने निकाय बनाये थे जो समृद्ध और शक्ति सम्पन्न थे। वे लोग बैंकिंग सिस्टम की व्यवस्था भी करते थे जिनका उपयोग जनता कर सकती थी। इस काल का एक लेख नासिक से प्राप्त हुआ है जिसमें जुलाहों के दो निकायों के वर्णन है। इसके अनुसार एक प्रतिशत और पौन (¾) प्रतिशत की मासिक ब्याज दर से दो हजार तथा एक हजार चांदी के सिक्के (कार्षापण) जमा किये गए थे। मथुरा से प्राप्त दूसरी शती के एक लेख के अनुसार यहां की एक पुण्यशाला के लिए 550-550 चांदी के सिक्कों की दो धनराशियां अक्षयनीवी (स्थायी मूलधन) के रूप में दो निकायों में जमा की गई थीं। इस धन से प्राप्त होने वाले ब्याज से नित्य पुण्यशाला में आने वाले दीन-दुखियों का पोषण किया जाता था। इसके अतिरिक्त उसी ब्याज से प्रति मास एक दिन सौ ब्राह्मणों को भोजन कराया जाता था। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि कुषाण काल के दौरान चीजें कितनी सस्ती थीं।

मथुरा तक पहुंचा चीन का रेशम


इस काल में चीन से रेशम बड़ी मात्रा में भारत आने लगा था। राजवर्ग तथा प्रजा में से बड़े लोग चीनी कौशेय (रेशमी वस्त्र) पहनना पसंद करते थे। मथुरा, कौशाम्बी, अमरावती आदि स्थानों से प्राप्त बहुत सी मूर्तियों पर रेशमी वस्त्र दिखाई पड़ते हैं। भगवान बुद्ध के चीवर प्रायः इसी वस्त्र के दिखाए गए हैं। मथुरा के कलाकारों ने स्त्रियों की प्रतिमाओं को भी चीनी वस्त्रों से अलंकृत किया है। 

(आगे किश्तों में जारी)

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