प्राचीन मथुरा की खोज भाग दस


भगवान श्रीकृष्ण की जन्मभूमि मथुरा नगरी सच में तीन लोक से न्यारी है। आमजन इसकी कहानी को बस श्रीकृष्ण से जोड़कर ही जानते हैं जबकि यह नगरी अपने अतीत में एक विशाल वैभवशाली विरासत को सहेजे हुए है जो श्रीकृष्ण के जन्म से कहीं प्राचीन है। मथुरा की इस अनकही कहानी को लेकर आया है हिस्ट्रीपण्डितडॉटकॉम। यह विस्तृत आलेख लिखा है श्री लक्ष्मीनारायण तिवारी ने। श्री तिवारी ब्रज के इतिहास और संस्कृति के पुरोधा हैं जो अपने कुशल निर्देशन में ब्रज संस्कृति शोध संस्थान (वृन्दावन) का संचालन कर रहे हैं। यह आलेख थोड़ा विस्तृत है अतः इसे यहां किश्तों में प्रकाशित किया जा रहा है। प्रस्तुत आलेख प्राचीन मथुरा की खोज की दसवीं किश्त है।

प्राचीन मथुरा की खोज दसवीं किश्त


प्राचीन मथुरा की इस खोज यात्रा में हम भागवत धर्म (वैष्णव धर्म) के उदय और उसके विस्तार की चर्चा कर रहे हैं। भागवत धर्म के आदि अनुयायी ‘सात्वत लोग’ थे। प्रश्न है कि यह सात्वत कौन थे? महाभारत में यह शब्द श्रीकृष्ण के लिए और संपूर्ण यादवों के लिए प्रयुक्त हुआ है। बाद में यह शब्द भागवत धर्म के उपासकों के लिए भी प्रयोग में आने लगा।

शत्रुघ्न ने स्थापित किया था मथुरा पर राज्य


पौराणिक अनुश्रुति से ज्ञात होता है कि श्रीराम के भाई शत्रुघ्न ने मथुरा पर अपना राज्य स्थापित किया था। शत्रुघ्न के बाद में यादव वंशी ‘सत्वान’ या सत्वंत के पुत्र भीम सात्वत ने मथुरा नगर तथा आसपास के प्रदेश पर अधिकार प्राप्त कर लिया। भीम सात्वत के पुत्र अंधक और वृष्णि थे। इन दोनों के वंश बहुत प्रसिद्ध हुए। अंधक का वंश मथुरा का अधिकारी हुआ और वृष्णि के वंशज द्वारका के शासक हुए। 

गणराज्य थे अंधक-वृष्णियों के राज्य

महाभारत युद्ध से पहले मथुरा के शासक उग्रसेन थे। उग्रसेन का पुत्र कंस उनका उत्तराधिकारी हुआ। द्वारका के वृष्णि वंश में वसुदेव थे। उग्रसेन के भाई देवक के सात पुत्रियाँ थीं, जिनमें देवकी सबसे बड़ी थीं। इन सातों का विवाह वसुदेव के साथ हुआ। वसुदेव और देवकी से श्रीकृष्ण का जन्म हुआ। वसुदेव की बहन कुन्ती राजा पांडु को व्याही गईं जिनसे युधिष्ठिर आदि पांडवों का जन्म हुआ। अंधक और वृष्णियों द्वारा संचालित राज्य गणराज्य थे। हम जानते हैं कि प्राचीन भारत में दो प्रकार की शासन प्रणाली प्रचलन में थीं। गणतंत्र और राजतंत्र। गणतंत्र का शासन किसी एक राजा द्वारा न होकर जनता के चुने हुए व्यक्तियों द्वारा होता था। ये व्यक्ति अपने में से एक को प्रधान चुन लेते थे, जो गणमुख्य या राजा कहलाता था। राजतंत्र में राजा सर्वोच्च एवं स्वेच्छाचारी होता था। महाभारत के समय अंधक और वृष्णि गणराज्यों ने मिलकर अपना एक संघ बना लिया था।इस संघ के दो मुखिया चुने गए। अंधकों के प्रतिनिधि उग्रसेन और वृष्णियों के श्रीकृष्ण।

गुजरात और दक्षिण में जा बसे ‘सात्वत’


संभवतः यह एकीकृत संघ वृष्णि ही कहलाने लगा था और इन्हीं लोगों को सात्वत भी कहा जाता था। जब मगध के राजा जरासंध ने मथुरा पर निरन्तर आक्रमण किये तो सात्वत लोग मथुरा व ब्रज क्षेत्र को छोड़कर भारत के पश्चिमी समुद्र तट गुजरात और दक्षिण में जाकर बस गये। इसलिए दक्षिण के कई राजाओं की वंशावली में उनकी वंश परम्परा सात्वत वंशीय श्रीकृष्ण से जुड़ी हुई दिखलाई गईं हैं।

वज्रनाभ ने किया ब्रज का जीर्णोद्धार


स्कन्ध पुराण के अनुसार श्रीकृष्ण की चौथी पीढ़ी में वज्रनाभ का जन्म हुआ। जिन्होंने मथुरा पर पुनः अपना राज्य स्थापित किया और ब्रज में श्रीकृष्ण के लीला स्थलों को खोज कर उनके जीर्णोद्धार का कार्य किया।

पौराणिक आख्यानों से ज्ञात होता है कि श्रीकृष्ण के बाद समुद्र तट पर स्थित द्वारका और श्रीकृष्ण के वंशज वृष्णियों का विनाश हो गया। जो लोग बचे रह गए उन्हें अर्जुन ने ‘बहुधान्यक प्रदेश’ हरियाणा के निकट पंजाब में लाकर बसा दिया था। इस तरह वृष्णियों की एक शाखा हरियाणा व पंजाब के क्षेत्र में बची रह गई और एक लम्बे समय तक इस क्षेत्र पर राज्य करती रही।

लंदन में संग्रहित है वृष्णिसंघ का सिक्का


आप को यह जानकर आश्चर्य होगा कि वृष्णियों की यह शाखा विक्रम संवत् के प्रारंभ होने से कुछ शताब्दियों पहले तक अस्तित्व में थी। यह वृष्णिगण संघ के रूप में सक्रिय राज्य कर रही थी। सौभाग्य से इस गणसंघ का एक चांदी का सिक्का नष्ट होने से बचा रह गया। यह सिक्का प्रसिद्ध पुरातत्वविद् कनिंघम को प्राप्त हुआ। चांदी का यह सिक्का अब ब्रिटिश संग्रहालय, लंदन में संग्रहीत है। पंजाब के सुनेत (जिला लुधियाना) से भी वृष्णिगण संघ की कुछ मिट्टी की मुहरें प्राप्त हुईं हैं। ऐसी ही एक मुहर हरियाणा के झज्झर स्थित गुरुकुल संग्रहालय में संरक्षित है।

देवगढ़ से प्राप्त हुई बलराम की प्रतिमा


वृष्णिगण संघ के सिक्के पर एक ओर बाढ़ युक्त स्तंभ है। जिसके शीर्ष के रूप में सिंह और हस्ति मुण्ड है तथा सिरे पर एक त्रिरत्न बना है। उसके चारों ओर ब्राह्मी अभिलेख ”वृष्णिराजज्ञ गणस्य त्रतरस्य” अंकित है। दूसरी ओर एक बड़े चक्र के साथ यही अभिलेख खरोष्ठी लिपि में अंकित है। मिट्टी की मुहरों पर चार चिह्न सिंह-हस्ति, मूसल, गदा और चक्र अंकित हैं। गदा और चक्र तो वासुदेव श्रीकृष्ण के जाने पहचाने आयुध हैं। मूसल भी संकर्षण बलराम के आयुध के रूप में प्रसिद्ध है। बलराम का दूसरा आयुध हल है। वही यहाँ सिंह-हस्ति के कलात्मक रूप में व्यक्त किया गया है। हल का ऐसा कलात्मक रूप हमें देवगढ़ (गया) से प्राप्त पहली सदी ईस्वी की बलराम प्रतिमा में भी दर्शित होता है। जिसमें हल के एक ओर सिंहाकृति बनी है। यह प्रतिमा पटना संग्रहालय में सुरक्षित है। ठीक यही चिह्न सिक्के पर अंकित हैं। सिक्के पर सिंह-हस्ति का वही रूप है जो मुहरों पर मिलता है। इस प्रकार यह बलराम का और दूसरी ओर अंकित चक्र वासुदेव श्रीकृष्ण का प्रतीक है।

लक्ष्मीनारायण तिवारी, सचिव, ब्रज संस्कृति शोध संस्थान, वृन्दावन।

(आगे किश्तों में जारी)         

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