चौरासी खम्बा कामां का इतिहास

 चौरासी खम्बा कामां का इतिहास

 
पुराने समय में काम्यवन के नाम से जाने जाना वाला कामां राजस्थान के भरतपुर जिले का एक उपखण्ड है। यहां मन्दिर, कुंड जैसे धर्मस्थलों की भरमार है। यहां एक अति प्राचीन जर्जर इमारत है जिसे चौरासी खम्भा के नाम से जाना जाता है। आज के इस किस्से में हम जानेंगे इसी ‘चौरासी खम्भा’ के बारे में।
(खंभों पर की गई नक्काशी)
 
चौरासी खम्भा एक ऐसी इमारत है जिसे लेकर किस्से-किवदंतियों की भरमार है। इसके बारे में स्थानीय लोगों से बात करें तो जितने मुंह उतनी बातें। 
एक ने बताया कि इस इमारत को जिन्नों ने बनाया था वो भी एक ही रात में। लो कर लो बात आज के दौर में भी जिन्नों के किस्से कौन यकीन करेगा? हमने भी नहीं किया। बताने वाला भी अड़ गया बोला जिन्नों ने इस बिल्डिंग को बनाना शुरू किया और रात के करीब दो बजे तक ही बना पाए थे कि पड़ोस में किसी बुढ़िया ने चाकी चलाकर गेंहू पीसना शुरू कर दिया और जिन्न काम अधूरा छोड़ गए। उस भले आदमी ने तो प्रमाण के लिए बिल्डिंग की छत पर उकेरी हुई चाकी और बुढ़िया की आकृतियां भी दिखाईं पर जिन्नों की कहानी हमने नहीं मानी। एक और सनसनीखेज जानकारी उसने दी कि इस बिल्डिंग के भूतिया होने का सबसे बड़ा प्रत्यक्ष प्रमाण यह है कि इस बिल्डिंग में चौरासी खम्भे हैं लेकिन गिनने पर कभी चौरासी नहीं लगते कभी एक-दो कम या ज्यादा। हमने कहा ये तो गिनने वाले के गणितीय ज्ञान पर निर्भर करता है और चूंकि हमें गणित में रुचि नहीं इसलिए खम्भे गिनने का श्रम हमने नहीं किया।
(खंभों पर की गई नक्काशी)
 
एक और व्यक्ति से बात की तो उसने इसे एक प्राचीन विष्णु मंदिर बताया। बताया गया कि यह विष्णु मंदिर कामसेन नामक एक यदुवंशी राजा ने बनवाया था यह कामसेन राजा तंत्रविद्या का ज्ञाता था और उसके दरबार में तांत्रिकों का जमावड़ा रहता था। हो सकता है यह तंत्रविद्या सिद्धि का स्थान रहा हो और उसकी आड़ में जिन्नों की कहानी गढ़ दी गयी हो।
किसी ने बताया कि यहां कृष्ण जी का छठी पूजन हुआ था तो किसी ने इसे वह स्थान बताया जहां पांडवों ने अज्ञातवास बिताया था। इस बीच एक ऐसा भी व्यक्ति मिला जो इसे मस्जिद बताने लगा। हमने कहा बस अब स्थानीय लोगों से पूछना बन्द। अब कुछ रिसर्च जैसा खुद ही करना पड़ेगा। उसके लिए इस बिल्डिंग का सूक्ष्म अवलोकन और इतिहास की पुस्तकों के पन्ने पलटने के अलावा कोई चारा नहीं।
(मध्य में बना सिंघासन)

 बिल्डिंग का अवलोकन करने पर पता चला कि चौरासी खंभों के बीच के चौक की लंबाई 52 फुट 8 इंच और चौड़ाई 49 फुट 9 इंच। खंभों पर शानदार नक्काशी करके मनुष्य के चेहरे, फूल-पत्तियां आदि आकृतियां उकेरी गईं हैं। कुछ पत्थर ऐसे भी मिले जिन पर कुछ शिलालेख जैसा कुछ अंकित था पर समस्या वही इस लिपि को पढ़े कौन।

खैर, पुस्तकों के अध्ययन वाले काम से कुछ सफलता मिली। 
भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय के अंतर्गत वैज्ञानिक एवम तकनीकी शब्दावली आयोग में वरिष्ठ अनुसंधान अधिकारी रहे विजयेंद्र कुमार माथुर की लिखी हुई एक पुस्तक में इसका विस्तृत वर्णन मिला। इस पुस्तक का नाम है ऐतिहासिक स्थानावली और प्रकाशक है राजस्थान हिंदी ग्रंथ अकादमी जयपुर। यह पुस्तक प्रकाशित हुई थी 1969 में। 
(शिलालेख जिसे हम पढ़ नहीं पाए)
 
इस पुस्तक में चौरासी खम्भा की बिल्डिंग का जिक्र कुछ यूं है
 “चौरासी खम्भा नामक स्थान से भी, जो कामवन के निकट ही है, 9वीं शती ई0 का एक अभिलेख प्राप्त हुआ है जिसमें गुर्जर प्रतिहार वंश के राजाओं का उल्लेख है। इस वंश की रानी बच्छालिका ने यहां विशाल विष्णु मंदिर बनवाया था जिसे बाद में मुस्लिम आक्रमणकारियों ने मस्जिद के रूप में परिवर्तित कर दिया था। इस मंदिर को अब चौरासी खम्भा कहा जाता है। इसके खंभों में रूपवास और फतहपुर-सीकरी का पत्थर लगा हुआ है। प्राचीन समय में इन स्तंभों की संख्या बहुत अधिक थी और इन पर गणेश, काली, विष्णु आदि की मनोहर मूर्तियां अंकित थीं जो नष्ट कर दी गईं। स्थानीय जनश्रुति के अनुसार इस मंदिर को जिसमें अनगिनत स्तम्भ थे, विश्वकर्मा ने एक ही रात में बनाया था। 1882 ई0 में सर एलेग्जेंडर नाम के एक पर्यटक ने इस मंदिर के 200 स्तम्भों को देखा था। 13वीं शती में दिल्ली के सुल्तान इल्तुतमिश ने आक्रमण कर इस स्थान को नष्ट कर दिया था। जैसाकि प्रवेशद्वार पर अंकित फ़ारसी अभिलेख से सूचित होता है–‘दिनुस्सुलतान उल आलम उल आदिल उल आज़मुल मुल्क अबुल मुज़फ्फर इलतीतमिश उस्सुलतान।’ 
इसके पश्चात 1353 ई0 में फ़िरोज़ तुगलक ने यहां आक्रमण कर विध्वंस किया। उसने प्रवेश द्वार के स्थान पर अपना नाम खुदवाया। सात फुट ऊंचा और चार फुट चौड़ा एक मेहराबदार दरवाजा बनवाकर उसकी मेहराब पर कुरान की आयतें खुदवायीं। पास ही नमाज का एक चबूतरा बनवाया जो आज भी है।”
 वैसे आज यह बिल्डिंग एक जर्जर खण्डहर से अधिक कुछ नहीं है। इसका इतिहास जहां से जितना भी मिला वो यहां लिख दिया है। आगे कुछ और पता चलेगा तो फिर से लिखा जाएगा। फिलहाल यह खण्डहर पुरातत्व विभाग की देखरेख में है। 
 
 
 
 

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