पर्यावरण पुरोधा सन्त रमेश बाबा

(संत रमेश बाबा जिन्होंने ब्रज के पौराणिक स्वरूप को बचाने के लिए उल्लेखनीय कार्य किया है।)

आज जिनकी कथा मैं यहां प्रस्तुत कर रहा हूँ उन्हें आमतौर पर ‘ब्रज के विरक्त सन्त’ कहा जाता है लेकिन मैंने कथा का शीर्षक रखा है ‘पर्यावरण पुरोधा सन्त’। समझ तो आप गए ही होंगे कि मैं बात कर रहा हूँ मानमंदिर वाले सन्त रमेश बाबा की। 

ब्रज के संतों की कथा शुरू होगी तो बहुत लंबी चलेगी राधा-कृष्ण की भक्ति करते हुए अपने जीवन को सार्थक बनाने वाले सन्तों में शायद ही कोई ऐसा मिले जिसने ब्रज के पर्यावरण की रक्षा के लिए एक आंदोलनकारी की भूमिका निभाई हो। ब्रज का पर्यावरण यानी ब्रज के पर्वत, वन-उपवन, यमुना और कान्हा की प्रिय गउएं। इनकी रक्षा के लिए आगे आने वाले इकलौते सन्त रमेश बाबा हैं जिन्होंने ब्रज के पौराणिक स्वरूप को वापस लाने की दिशा में उल्लेखनीय कार्य किया है।

तीर्थराज प्रयाग में बाबा का जन्म हुआ। विख्यात ज्योतिषाचार्य बलदेव प्रसाद शुक्ल इनके पिता थे। इनकी माता का नाम हेमेश्वरी देवी था। इस दंपत्ति ने पुत्र प्राप्ति की इच्छा से रामेश्वरम में पुत्र कामेष्टि यज्ञ किया। शिव कृपा से सन 1938 में पौष मास कृष्ण पक्ष की सप्तमी तिथि को मध्यान्ह 12 बजे बाबा का जन्म हुआ। इनके ज्योतिषाचार्य पिता ने इनका ललाट देखते ही घोषणा कर दी थी कि “यह बालक गृहस्थ ग्रहण न कर नैष्ठिक ब्रह्मचारी ही रहेगा, इसका प्रादुर्भाव जीव-जगत के निस्तार के निमित्त ही हुआ है”।
बाबा ने प्रयाग में ही विद्या ग्रहण की। उनके अंदर की आध्यात्मिक ज्योति उन्हें गृहत्याग कर ब्रज आने के लिए प्रेरित करती थी। बाबा ने दो बार जन्मभूमि छोड़कर ब्रजभूमि आने की कोशिश की पर मां के स्नेह का बंधन उन्हें रोके रहा। तीसरी बार किसी तरह वे सब बन्धनों को तोड़कर ब्रजभूमि आने में सफल हो ही गए। ब्रज आकर उन्होंने ख्यातिनाम सन्त प्रियाशरण जी महाराज का शिष्यत्व स्वीकार किया।

बरसाना के ब्रह्मांचल पर्वत पर स्थित मान गढ़ उन दिनों डाकुओं का छुपने का ठिकाना होता था। उन दिनों जहान डाकू का बड़ा खौफ था राजस्थान, हरियाणा और उत्तरप्रदेश में उसका आतंक था। कहते हैं कि मान गढ़ पर उसके छुपने का ठिकाना था। बाबा ने अपने भजन-ध्यान के लिए मान गढ़ को ही चुना। उस स्थान पर धार्मिक गतिविधियों के बढ़ने पर डाकुओं को वह स्थान छोड़ना पड़ा। किसी जर्जर, लुप्तप्राय धर्मस्थल को कब्जा मुक्त कराने में बाबा को मिली वह पहली सफलता थी। उस समय तक शायद बाबा को खुद नहीं मालूम होगा कि उनकी वजह से ब्रज के अनगिनत दुर्लभ लुप्तप्राय धर्म स्थलियाँ प्रकाश में आएंगी। बाबा मान मन्दिर में भजन करते और लाड़लीजी मन्दिर में आकर आरतियों में हिस्सा लेते। वाद्य यंत्र बजाते हरि कीर्तन करते।

बरसाना का प्रसिद्ध गहवरवन अवैध कब्जों का शिकार था। बाबा इस वन को नष्ट होने से बचाने के लिए आगे आये और बड़े ही संघर्षों के बाद इस स्थल को संरक्षित करवा पाए। उसके बाद ब्रज में स्थित पुराने धर्म स्थलों के जीर्णोद्धार का जो क्रम शुरू हुआ वह अनवरत जारी है। रत्न कुंड ढभाला, विह्वल कुंड संकेत, कृष्ण कुंड नन्दगांव, बिछुवा कुंड बिछोर, गया कुंड कामां, लाल कुंड दुदावली, गोपाल कुंड डीग, रुद्र कुंड जतीपुरा, गोमती गंगा कोसी कलां, ललिता कुंड कमई, नयन सरोवर सेऊ, बिछुआ कुंड जतीपुरा, मेंहदला कुंड हताना, धमारी कुंड और लोहरवारी कुंड आदि सरोवरों का जीर्णोद्धार बाबा के प्रयासों से हुआ है।

उन दिनों ब्रज के धार्मिक महत्व के पर्वतों का खनन कार्य भी होता था जिससे कृष्ण कालीन स्थलियाँ लुप्त हो रही थीं। बाबा इन्हें बचाने के लिए भी आगे आये। इसके लिए संघर्ष बहुत कड़ा रहा। अंत मे 5253 हेक्टेयर भू भाग को आरक्षित घोषित कर दिया गया। 
ब्रज में गायों की दुर्दशा को देखकर बाबा के प्रयासों से माताजी गोशाला की नींव 2007 में रखी गई। इस गोशाला में आज चालीस हजार से अधिक गायों की सेवा होती है।
यमुना मुक्ति के लिए मान मन्दिर सेवा संस्थान के नेतृत्व में बाबा के निर्देश पर यमुना मुक्ति आंदोलन चल रहा है। इसके लिए दो बार दिल्ली तक पद यात्राएं भी की जा चुकी हैं। 
बाबा की प्रेरणा से आज देश के 32000 गांवों में हरिनाम संकीर्तन करते हुए प्रभात फेरियां निकाली जाती हैं।

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