मथुरा की कहानी भाग आठ


पूर्व कथा

पिछले भागों में हम चंद्रवंश की शुरुआत, यदुवंश की शुरूआत, श्रीकृष्ण की कथा, महाजनपदों का विवरण, मौर्य साम्राज्य, शुंगवंशी राजाओं, मथुरा के मित्रवंशी राजाओं, मथुरा के शक शासक राजुबुल, शोडास, मथुरा के दत्त शासक, कुषाण शासक विम तक्षम, कनिष्क, वासिष्क, हुविष्क, वासुदेव, कुषाण काल में बमथुरा की सांस्कृतिक और व्यापारिक उन्नति के बाद यहां से और पद्मावती के नाग राजाओं तक कि कथा का वर्णन कर चुके हैं। यह नाग राजा भारशिव कहलाते थे। अब आगे…

गुप्त वंश की शुरूआत


ईस्वी चौथी शती की शुरुआत में मगध में महाराज गुप्त ने गुप्तवंश की सत्ता स्थापित की। महाराज गुप्त के बाद उसका पुत्र घटोत्कच राजा बना। घटोत्कच का उत्तराधिकारी चन्द्रगुप्त प्रथम हुआ जो 320 ईस्वी में पाटिलपुत्र का राजा बना। इसके राज्यारोहण के वर्ष से एक नया संवत चलाया गया जो गुप्त सम्वत कहा जाता है।

समुद्रगुप्त (335 से 376 ईस्वी)


चन्द्रगुप्त प्रथम का का उत्तराधिकारी उसका पुत्र समुद्रगुप्त हुआ। इसने भारतभर में अपनी विजय पताका फहराई। इसने दक्षिण के कोट्टुर, कांची आदि प्रदेशों को जीता तो उत्तर के तमाम राजाओं को परास्त किया। इसकी विजय गाथा प्रयाग के किले के एक शिलालेख पर अंकित मिली है। इस लेख के अनुसार समुद्रगुप्त ने उत्तर भारत के रुद्रदेव, मतिल, नागदत्त, चन्द्रवर्मन, गणपति नाग, नागसेन, अच्युत, नन्दी तथा बलवर्मा आदि राजाओं को हराकर उनके राज्यों को अपने राज्य में मिला लिया। 

समुद्रगुप्त का मथुरा पर अधिकार


समुद्रगुप्त ने उत्तर भारत के जिन राज्यों को जीता उनमें मथुरा भी था। समुद्रगुप्त से पराजित होने वाला मथुरा का शासक गणपति नाग था। मथुरा के नाग शासन को समाप्त करने के बाद समुद्रगुप्त ने मथुरा को अपने राज्य में शामिल कर लिया था। इस प्रदेश के लिए समुद्रगुप्त ने क्या शासन व्यवस्था की इसका पता नहीं चलता है। 

रामगुप्त


समुद्रगुप्त के बाद उसका पुत्र रामगुप्त बहुत कम समय के लिए पाटिलपुत्र का शासक हुआ। रामगुप्त के समय पर शकों के एक प्रबल आक्रमण हुआ। शकों की विशाल सेना से भयभीत हो रामगुप्त ने शकराज के पास संधि प्रस्ताव भेजा। शकराज ने सन्धि के एवज में रामगुप्त से उसकी पत्नी ध्रुवस्वामिनी की मांग की। इस प्रस्ताव से रामगुप्त का छोटा भाई चन्द्रगुप्त द्वितीय बहुत क्रुद्ध हुआ। वह ध्रुवस्वामिनी का रूप बनाकर अपने कुछ सैनिकों के साथ शकराज के शिविर में गया और उसने शकराज की हत्या कर दी। युद्ध में भी शक पराजित हुए और भाग खड़े हुए। इसके बाद चन्द्रगुप्त ने अपने कायर भाई रामगुप्त की हत्या कर दी और पाटिलपुत्र की गद्दी पर बैठ गया। सम्राट हर्ष के दरबारी कवि बाणभट्ट द्वारा रचित हर्ष चरित्र से ज्ञात होता है कि शकराज से युद्ध वाली घटना मथुरा के समीप ही घटी थी।

चन्द्रगुप्त द्वितीय (376 से 413 ईस्वी)


चन्द्रगुप्त द्वितीय ‘विक्रमादित्य’ के नाम से प्रसिद्ध है। इसके समय पर उज्जयिनी, पाटिलपुत्र और अयोध्या नगरों की तरक्की हुई।

गुप्तकाल में मथुरा की दशा


चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के काल के तीन लेख मथुरा से प्राप्त हुए हैं। पहला लेख गुप्त सम्वत 61 (ईस्वी 380) का है। यह मथुरा नगर के रंगेश्वर महादेव के पास चंडूल-मंडूल बगीची से मिला है। लाल पत्थर का यह अठपहलू स्तम्भ चन्द्रगुप्त के पांचवें राज्यवर्ष में लिखा गया था। इस लेख में उदिताचार्य के द्वारा उपमितेश्वर तथा कपिलेश्वर नामक शिव प्रतिमाओं की प्रतिष्ठापना का वर्णन है। जिस खम्भे पर यह लेख उत्कीर्ण है उस पर ऊपर त्रिशूल तथा नीचे दण्डधारी रुद्र (लकुलीश) की मूर्ति बनी है। चन्द्रगुप्त के अन्य दोनों लेख कटरा केशवदेव से मिले हैं। इनमें से एक पर महाराज गुप्त से लेकर चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य तक कि वंशावली दी हुई है। इस लेख के अंत में चन्द्रगुप्त के द्वारा कोई बड़ा धार्मिक कार्य कराए जाने का संकेत मिलता है। इस लेख का अंतिम भाग खण्डित होने के कारण यह साफ पता नहीं चलता है कि यह बड़ा धार्मिक कार्य क्या था। कुछ विद्वानों का अनुमान है कि चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ने श्रीकृष्ण जन्मस्थान पर एक भव्य मंदिर का निर्माण कराया था। तीसरा लेख श्रीकृष्ण जन्मस्थान की सफाई कराते समय 1954 ईस्वी में प्राप्त हुआ है। यह लेख भी खण्डित अवस्था में है और इसमें प्रारंभिक गुप्त वंशावली के अतिरिक्त शेष भाग टूट गया है। 

फाह्यान का मथुरा के बारे में वर्णन


चन्द्रगुप्त के शासनकाल में फाह्यान नाम का एक चीनी यात्री भारत आया था। वह अन्य स्थानों के साथ-साथ मथुरा भी पहुंचा था। इस नगर का जो वर्णन उसने लिखा है उससे मथुरा की तत्कालीन स्थिति का पता चलता है।

वह लिखता है : 

“यहां (मथुरा) के छोटे-बड़े सभी लोग बौद्ध धर्म की मानते हैं। शाक्यमुनि (बुद्ध) के बाद से यहां के निवासी इस धर्म का पालन करते आ रहे हैं। मोटुलो (मथुरा) नगर तथा उसके आसपास पूना (यमुना) नदी के दोनों ओर 20 संघाराम (बौद्धमठ) हैं, जिनमें लगभग तीन हजार भिक्षु निवास करते हैं। छह बौद्ध स्तूप भी हैं। सारिपुत्र के सम्मान में बना हुआ स्तूप सबसे अधिक प्रसिद्ध है। दूसरा स्तूप आनन्द के तथा तीसरा स्तूप मुद्गल पुत्र की याद में बनाया गया है। शेष तीन स्तूप बौद्धों के तीन त्रिपिटक अभिधर्म, सूत्र और विनय के लिए निर्मित हैं।

कालिदास का मथुरा वर्णन

कालिदास चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के समकालीन था। अपने ग्रंथ रघुवंश में कालिदास ने शूरसेन जनपद, मथुरा, वृन्दावन, गोवर्धन तथा यमुना नदी का वर्णन किया है। इंदुमती के स्वयंवर में विभिन्न प्रदेशों से आये हुए राजाओं के साथ शूरसेन के अधिपति सुषेण का भी वर्णन है। कालिदास द्वारा वर्णित इस शूरसेन के अधिपति सुषेण का नाम काल्पनिक प्रतीत होता है। पौराणिक सूचियों तथा शिलालेख आदि में मथुरा के किसी सुषेण राजा का जिक्र नहीं मिलता है। यह सुषेण नाम काल्पनिक होने पर भी यह तो कहा ही जा सकता है कि शूरसेन वंश की गौरवपूर्ण परम्परा ईस्वी पांचवीं शती तक अक्षुण थी। 

बाद के गुप्त शासक


चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य का उत्तराधिकारी उसका पुत्र कुमारगुप्त प्रथम हुआ। कुमारगुप्त के समय पर उत्तर-पश्चिमी सीमा से आक्रमण कर हूणों ने पूर्वी मालवा तथा पंजाब पर अधिकार कर लिया। कुमारगुप्त के बाद उसका पुत्र स्कंदगुप्त शासक बना। उसने हूणों से युद्ध लड़कर उनकी बढ़ती हुई शक्ति को रोका। यह गुप्तवंश का अंतिम प्रतापी शासक था। स्कंदगुप्त के बाद पुरुगुप्त (468 – 473 ईस्वी), नरसिंह गुप्त, कुमारगुप्त द्वितीय, विष्णुगुप्त, बुधगुप्त, तथागत गुप्त, बालादित्य, भानुगुप्त तथा वज्र आदि शासक हुए।

हूणों के आक्रमण


इधर हूणों की शक्ति घट रही थी वहीं दूसरी ओर 500 ईस्वी के लगभग तोरमाण के नेतृत्व में हूणों ने पश्चिमी मध्य भारत पर अधिकार कर लिया। हूणों ने तक्षशिला जैसे नगरों को उजाड़ दिया और राज्यों को रौंदते हुए वे मध्य भारत तक पहुंच गए। 

मथुरा में हूणों ने की बर्बादी


हूणों ने मथुरा जैसे समृद्ध नगर को बुरी तरह बर्बाद किया। उस समय यहां बड़ी संख्या में बौद्ध स्तूपों और संघारामों के अतिरिक्त विशाल जैन और हिंदू मंदिर थे। हूणों ने तमाम इमारतों को जलाकर नष्ट कर दिया। प्राचीन मूर्तियों को तोड़ डाला गया। चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के समय पर श्रीकृष्ण जन्मस्थान पर बनवाया गया विशाल मंदिर भी हूणों की बर्बरता का शिकार हुआ होगा। हूणों के इस आक्रमण के बाद से लेकर महमूद गजनवी के समय (1017 ईस्वी) तक मथुरा पर दूसरा कोई विदेशी आक्रमण नहीं हुआ।

हूणों का पराभव


ईस्वी 515 के लगभग हूणों के शासक तोरमाण की मृत्यु हो गई। तोरमाण के बाद उसका पुत्र मिहिरकुल राज्य का उत्तराधिकारी हुआ।  533 ईस्वी में मालवा के शासक बने यशोधर्मन ने मिहिरकुल को परास्त करने में सफलता पाई। मिहिरकुल पराजित होकर कश्मीर को तरफ भाग गया। इसी यशोधर्मन ने गुप्तवंश की प्रधान शाखा के अंतिम शासक वज्र को परास्त कर मार डाला। इस तरह सवा दो सौ वर्षों तक राज करने का बाद गुप्त वंश का पतन हो गया। 

कन्नौज में मौखरियों की सत्ता स्थापना


ईस्वी छठी शती के मध्य में मौखरि वंश के ईशानवर्मन ने कन्नौज में अपनी सत्ता स्थापित कर ली। इसी तरह वर्धन वंश की सत्ता थानेश्वर में स्थापित हो गई। मथुरा इस समय कन्नौज के मौखरियों के अधीन हो गया था।

(आगे किश्तों में जारी)

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