रेडक्लिफ ने गुरदासपुर भारत को देकर खोल दिया कश्मीर का रास्ता

आज की कहानी है एक ऐसे अंग्रेज की है जिसने कागज के नक्शे पर लकीर खींच कर भारत और पाकिस्तान की सरहदें तय कर दी थीं। इस लकीर को खींचते समय उसने एक ऐसी करामात कर दी कि भारत का जम्मू-कश्मीर पर दावा पक्का हो गया। यह कहानी है सिरिल रेडक्लिफ नामक एक अंग्रेज वकील की जिसे पंजाब और बंगाल के विभाजन के लिए बनाए गए बाउंड्री कमीशन्स का मुखिया बनाया गया था। सिरिल रेडक्लिफ को जब सीमा निर्धारण का काम सौंपा गया था तो उसे यह साफ तौर पर बताया गया था कि पंजाब और बंगाल प्रान्तों के मुस्लिम बहुल आबादी वाले इलाके पाकिस्तान को दिए जाएंगे और हिन्दू बहुल आबादी वाले इलाके भारत में रखे जाएंगे। पर अपना काम करने के दौरान रेडक्लिफ ने पंजाब प्रांत के उत्तरी छोर पर बसे छोटे से शहर गुरदासपुर और उसके पास के कई मुस्लिम आबादी वाले गांवों का क्षेत्र भारत के हिस्से में दे दिया। दरअसल यहां रेडक्लिफ किसी के साथ पक्षपात नहीं कर रहा था, उसने वहां पास से बह रही रावी नदी को दोनों देशों की विभाजक रेखा के रूप में स्वीकार किया था। अगर वह ऐसा नहीं करता तो उसके नक्शे पर पाकिस्तान का एक कौना भाले की तरह भारत में घुसा नजर आता। रेडक्लिफ ने बाईचांस अपने मन में आये इस विचार के कारण यह खास इलाका भारत को दे दिया था जिसका दर्द पाकिस्तान को अब तक सालता है। अगर उस समय गुरदासपुर का क्षेत्र भारत को न मिला होता तो भारत से कश्मीर में आवागमन का कोई व्यावहारिक रास्ता भारत के पास उपलब्ध नहीं होता जिसके चलते भारत का कश्मीर से सम्पर्क ही खत्म हो जाता और वहां के राजा हरीसिंह के सामने कश्मीर को पाकिस्तान में विलय करने के अलावा कोई चारा नहीं बचता। यह बस एक भाग्य का खेल था कि रेडक्लिफ की विभाजन रेखा ने कश्मीर की चाबी के रूप में गुरदासपुर भारत को दे दिया था। इस लेख में आगे हम आपको बताएंगे सिरिल रेडक्लिफ और भारत विभाजन के सम्बंधित और भी बहुत सारी रोचक जानकारी।

मेहनताना उसने लिया नहीं और धन्यवाद किसी ने दिया नहीं

सिरिल रेडक्लिफ को भारत और पाकिस्तान दोनों ही देशों के लोग नाम और काम से भलीभांति जानते हैं और अक्सर उसकी आलोचना भी करते हैं। उसने काम ही ऐसा नाशुक्रा किया था जिसके लिए भले ही उसने अपनी सारी योग्यता और परिश्रम लगाया था पर उसकी आलोचना की ही जानी थी। और वह खुद भी इस बात को जानता था कि उसे कोई धन्यवाद नहीं देगा। आखिर उसने काम ही ऐसा किया था ‘भारत और पाकिस्तान का बंटवारा’। हालांकि उस बंटवारे के लिए वह व्यक्ति दोषी नहीं था उसने तो बस विभाजन की रेखाएं खींची थीं। रेडक्लिफ की नियुक्ति से पहले ही वायसराय माउंटबेटन ने जवाहरलाल नेहरू और मुहम्मद अली जिन्ना को इस बात के लिए राजी कर लिया था कि रेडक्लिफ जहां से भी विभाजन रेखाएं खींचेगा उसे दोनों ही नेता स्वीकार करेंगे। रेडक्लिफ की रेखाओं को दोनों ही देशों ने स्वीकार किया भी पर उसकी आलोचना में भी कोई कसर नहीं छोड़ी। उस समय आमजन में भी रेडक्लिफ के प्रति खासी नाराजगी थी। यही वजह थी कि जब रेडक्लिफ भारत छोड़कर गया तो उसे भारी सुरक्षा के साथ भेजा गया। यहां तक कि उसके सवार होने से पहले उसके हवाई जहाज की भी गहनता से जांच की गई। विभाजन रेखाएं खींचने के काम के लिए उसके काम का पारिश्रमिक दो हजार पौंड तय हुआ था पर अपनी आलोचना से खिन्न रेडक्लिफ ने अपना मेहनताना लेने से ही इनकार कर दिया था। आइए कहानी को विस्तार से समझते हैं।

रैडक्लिफ ही क्यों?

यहां सवाल यह उठता है कि यह विभाजन रेखा खींचने का काम रैडक्लिफ को ही क्यों दिया गया। उसमें ऐसी क्या खास योग्यता थी कि इन दोनों देशों के कर्ताधर्ताओं ने अपनी विभाजक रेखाएं खींचने की जिम्मेदारी उसे सौंपी थी। दरअसल हुआ यह था कि जब भारत और पाकिस्तान का बंटवारा होना तय हो गया था, तो वायसराय माउंटबेटन ने विभाजन की तैयारियां शुरू कर दीं थीं। सरकारी महकमों की संपत्तियों का बंटवारा करने के लिए कर्मचारियों को काम पर लगा दिया था। अब सवाल यह था कि ब्रिटिश भारत के उस समय के दो बड़े और महत्त्वपूर्ण प्रान्त पंजाब और बंगाल को किस तरह बांटा जाए। दोनों ही राज्यों में हिन्दू और मुस्लिम अच्छी संख्या में थे। बंटवारा भी इन्हीं राज्यों का होना था। इसके लिए माउंटबेटन ने जवाहरलाल नेहरू और मोहम्मद अली जिन्ना से कहा कि आप विभाजन की रेखाओं को आपसी सहमति से तय कर लीजिए। इस पर इन दोनों ही नेताओं ने कहा कि अगर यह काम हम दोनों करने बैठे तो कभी सहमति नहीं बन पाएगी। बेहतर हो कि ब्रिटिश सरकार ही किसी योग्य और निष्पक्ष बैरिस्टर के अधीन एक सीमा आयोग बनाकर को इस काम को करा दे। यहां निष्पक्ष होने से अभिप्राय ऐसे व्यक्ति से था जो किसी भी तरह भारत से सम्बंधित न हो। यहां किसी को जानता न हो और कभी यहां आया न हो। ताकि उसके किये काम पर कोई भी देश पक्षपात का आरोप न लगा सके। इस तरह यह दायित्व रैडक्लिफ को सौंपा गया जो एक योग्य बैरिस्टर तो था ही साथ ही उसकी दूसरी बड़ी योग्यता यह थी कि उसका भारत सम्बन्धी ज्ञान शून्य था। 

आसान नहीं था रैडक्लिफ का काम

सिरिल रेडक्लिफ ने ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से कानून की डिग्री प्रथम श्रेणी में प्राप्त की थी। उसे ‘आल सोल्स फेलोशिप’ भी मिली थी। वह इंग्लैंड का सबसे तेज-तर्रार बैरिस्टर माना जाता था। उसने कई क्षेत्रों में गहन जानकारियां पाईं थीं पर उसका भारत सम्बन्धी ज्ञान लगभग शून्य था। 22 जून 1947 की दोपहर को सिरिल रेडक्लिफ लंदन के न्यू-स्क्वायर स्थित अपने लॉ-चैम्बर में बैठा था, तभी उसे लॉर्ड चांसलर का बुलावा आया। लार्ड चांसलर ने जब उसे भारत भेजने और वहां जाकर विभाजन रेखाएं खींचने का दायित्व सौंपा तो वह सन्न रह गया। पंजाब और बंगाल के नाम भी उसने पहली बार सुने थे। उसे यह तक मालूम नहीं था कि कौनसा राज्य पूरब में है और कौनसा पश्चिम में। पर वह सरकार के इस काम को करने के लिए तैयार हो गया। एक घण्टे बाद इंडिया ऑफिस के स्थाई सेक्रेटरी के कार्यालय में उसने भारत के नक्शे में बंगाल व पंजाब प्रान्त देखे, जिनका उसे विभाजन करना था। आठ करोड़ 80 लाख की आबादी और एक लाख 75 हजार वर्ग मील का विस्तार। 

अंग्रेज मानते थे कि कभी नहीं होगा भारत और पाकिस्तान में युद्ध

इंग्लैंड के प्रधानमंत्री एटली से मुलाकात करने के बाद जल्द ही रेडक्लिफ ने भारत के लिए उड़ान भरी। दिल्ली हवाई अड्डे पर उतरने के तुरंत बाद वह वायसराय माउंटबेटन से मिलने पहुंच गया। पंजाब और बंगाल दोनों ही प्रान्तों में रेडक्लिफ की सहायता के लिए चार-चार मैजिस्ट्रेट नियुक्त किए गए थे। इन मैजिस्ट्रेट्स का काम यह सिफारिश करने का था कि सीमा रेखा कहाँ-कहाँ से होकर गुजरेगी। पर वायसराय माउंटबेटन ने रेडक्लिफ को यह पहले ही बता दिया था कि सीमा रेखा कहां से गुजरेगी यह तय करने का अंतिम अधिकार सिर्फ रेडक्लिफ को ही था। भारतीय सेना के कमांडर-इन-चीफ का यह मानना था कि भारत और पाकिस्तान के बीच कभी कोई युद्ध नहीं होगा इसलिए सीमा निर्धारण करते समय रेडक्लिफ को सरहदों पर सुरक्षा के प्रबंध की संभावनाओं पर विचार करने की जरूरत ही नहीं थी। सीमाओं की सुरक्षा जैसे महत्त्वपूर्ण मुद्दे की अवहेलना यह मानकर की जा रही थी कि विभाजन के बाद हिन्दू और मुसलमानों के बीच आपसी संघर्ष तो होने वाला ही नहीं था। अंग्रेजों का यह अनुमान कितना भ्रामक साबित हुआ!

हर दिन तीस मील लंबी रेखा खींचनी थी जरूरी

अपना काम शुरू करते ही रेडक्लिफ लाहौर पहुंचा और उसने पंजाब की धरती के बारे में सूचनाएं प्राप्त करना शुरू कर दिया। उसकी सहायता के लिए नियुक्त मैजिस्ट्रेट्स ने ऐसी परस्पर विरोधी रिपोर्ट्स दीं कि उनका कोई अर्थ ही नहीं रह गया। रेडक्लिफ जहां भी जाता, हिन्दू और मुसलमान उसे घेर लेते और प्रभावित करने की कोशिश करते। रेडक्लिफ की कलम के एक झटका उन्हें उखाड़ सकता था या जमा सकता था। रेडक्लिफ को लाहौरियों ने इतना विवादास्पद माना कि पंजाब के गवर्नर ने उसे अपने यहां ठहराने तक से इनकार कर दिया। रेडक्लिफ को पंजाब और बंगाल को घूम फिर कर अच्छी तरह देख लेने का अवसर नहीं मिला। उन खेतों और लोगों के साथ उसका कोई सीधा संवाद नहीं हो सका, जिन्हें न केवल विभाजित बल्कि तबाह कर देने की क्षमता उसके द्वारा खींची जाने वाली रेखाओं में थी। दिल्ली के वायसरीगल एस्टेट के एक बंगले में बैठकर उसने आबादी की तालिकाओं, सच्ची-झूठी सिफारिशों और विभिन्न नक्शों की मदद से पंजाब और बंगाल को विभाजित करने वाली रेखाएं खींचने का काम शुरू कर दिया। उसे औसतन हर दिन तीस मील लंबी रेखा खींचनी थी ताकि काम समय पर पूरा हो सके।

लोगों को नहीं पता था कि उनका घर भारत में है या पाकिस्तान में

आखिरकार तय समय के अंदर ही रेडक्लिफ को अपना काम पूरा करने में सफलता मिल ही गई। 13 अगस्त की सुबह उसके एक आईसीएस सहयोगी ने विभाजन रेखाओं की रिपोर्ट्स दो सीलबंद लिफाफों में रखकर वायसराय भवन पहुंचा दीं। वायसराय माउंटबेटन ने उन्हें एक डिस्पैच बॉक्स में 72 घण्टों के लिए रखवा दिया। अगले दिन 14 अगस्त को वायसराय पाकिस्तान के स्वतंत्रता दिवस समारोह में शामिल हुआ और उसके अगले दिन 15 अगस्त को वह भारत के स्वतंत्रता दिवस समारोह में व्यस्त रहा। इस तरह पंजाब व बंगाल के जिन इलाकों से होकर सीमा रेखा गुजरने की संभावना थी, वहां के सैकड़ों गांवों के हजारों लोग आजादी के दिन तक यह भी नहीं जान पाए कि भारत में हैं या पाकिस्तान में हैं। 16 अगस्त के दिन माउंटबेटन ने दोनों देशों के प्रधानमंत्रियों को अपने यहां बुलाया। माउंटबेटन ने बॉक्स खोल कर दोनों लिफाफे बाहर निकाले। एक लिफाफा उसने भारत के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को दिया और दूसरा लिफाफा उसने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री लियाकत अली को दिया। माउंटबेटन ने दोनों से कहा कि वे अलग-अलग कमरों में बैठकर रिपोर्ट्स के अध्ययन करें और दो घण्टे बाद फिर से मिलें। दो घण्टे बाद जब नेहरू और अली वापस लौटे तो उनके चेहरों पर आक्रोश था। यह आक्रोश देखकर माउंटबेटन समझ गया कि सिरिल रेडक्लिफ ने अपना काम बिना किसी पक्षपात के पूरा कर दिया है। 

तकनीकी दृष्टि से सही पर व्यावहारिक दृष्टि से गलत

विभाजन रेखा खींचते वक्त रेडक्लिक को जिन बातों को ध्यान में रखने की सलाह दी गई थी, उसका उसने ईमानदारी से पालन किया था। कुछेक अपवादों को छोड़ दें तो उसने पंजाब और बंगाल में बहुसंख्यक आबादी के धर्म के आधार पर ही विभाजन रेखाएं खींचीं थीं। इसी वजह से जो रेखा खिंच कर तैयार हुई वह बिल्कुल वैसी ही थी जैसी होने की सबको पहले से आशंका थी – ‘तकनीकी दृष्टि से सही पर व्यावहारिक दृष्टि से सत्यानाशी’। बंगाल की विभाजन रेखा ने दोनों ही भागों को एक आर्थिक अभिशाप दिया। दुनिया का 85 प्रतिशत पटसन जिस क्षेत्र में पैदा होता था वह पाकिस्तान के हिस्से में आया लेकिन उस पटसन की खपत के लिए वहां एक भी मिल नहीं थी। 100 से ज्यादा मिलें जिस महानगर में थीं, वह कलकत्ता भारत के हिस्से में आया। जिस बंदरगाह से पटसन को दुनिया भर में भेजा जा सकता था वह कलकत्ता में ही था। पर 100 मिलें मिलने का भारत को कोई फायदा नहीं था क्योंकि यहां पटसन उत्पादन शून्य था। पंजाब की विभाजन रेखा खींचने के दौरान रेडक्लिफ बहुत परेशान हुआ। पंजाब की विभाजन रेखा कश्मीर की सरहद पर स्थित एक घने जंगल के बीच से शुरू हुई, जहां से ऊझ नामक नदी की पश्चिमी धारा पंजाब में दाखिल होती है। जहां-जहां सम्भव हुआ विभाजन रेखा ने रावी और सतलुज नदियों का पीछा किया। 200 मील दक्षिण में उतरकर उसने भारतीय मरुभूमि के कगार को छुआ। लाहौर पाकिस्तान को मिला और अमृतसर भारत को मिला।

(स्रोत : फ्रीडम एट मिडनाईट, लेखक डोमिनिक लापिएर और लैरी कलिन्स)

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