मथुरा की कहानी भाग सात

पूर्व कथा

पिछले भागों में हम चंद्रवंश की शुरुआत, यदुवंश की शुरूआत, श्रीकृष्ण की कथा, महाजनपदों का विवरण, मौर्य साम्राज्य, शुंगवंशी राजाओं, मथुरा के मित्रवंशी राजाओं, मथुरा के शक शासक राजुबुल, शोडास, मथुरा के दत्त शासक, कुषाण शासक विम तक्षम, कनिष्क, वासिष्क, हुविष्क, वासुदेव आदि का वर्णन करते हुए मथुरा की सांस्कृतिक और व्यापारिक उन्नति का वर्णन कर चुके हैं। अब आगे…

मथुरा से कुषाण सत्ता का पतन


ईस्वी दूसरी शती का अंत होते होते मथुरा प्रदेश और उसके पश्चिम से कुषाणों की सत्ता उखड़ गई। मध्य देश और पूर्वी पंजाब से कुषाणों को हटाने में कई शक्तियों का हाथ था। कौशाम्बी तथा विंध्य प्रदेश के मघ राजाओं एवं पद्मावती, कांतिपुरी तथा मथुरा के नागवंशी लोगों ने मध्य देश से तथा यौधेयों और मालवों ने राजस्थान व पंजाब से कुषाणों को भगाने में प्रमुख भाग लिया। इन सबके प्रयास से कुषाण जैसी शक्तिशाली सत्ता का जो करीब पिछले दो सौ वर्ष से भारत के एक बड़े भूभाग पर जमी हुई थी का अंत हो गया। 

मथुरा और पद्मावती के नाग शासक


नाग लोग भारत के प्रमुख आदिम निवासियों में से हैं। प्राचीन साहित्यिक उल्लेखों से ज्ञात होता है कि ये लोग अनार्य थे और सर्प को देव रूप में पूजते थे। महाभारत युद्ध के बाद उत्तर पश्चिम भारत में नागों की शक्ति बहुत बढ़ गई थी। इनके सरदार तक्षक ने राजा परीक्षित को मार डाला था जिसका बदला परीक्षित के पुत्र जनमेजय ने नाग यज्ञ करके लिया था। उस समय के बाद से लेकर कुषाण काल तक मथुरा या कुरु प्रदेश में नागों का कोई जिक्र नहीं मिलता है। पुराणों में गुप्त वंश के सत्तारूढ़ होने से पहले मथुरा में सात नागवंशी राजाओं के राज्य करने का उल्लेख मिलता है। इसी तरह कांतिपुरी, विदिशा और पद्मावती (वर्तमान पदम पवाया, मध्य भारत) में भी नागों के शासन का पता चलता है। पर कुछ राजाओं के नामों के अलावा पुराणों में कोई अन्य जानकारी नहीं मिलती है। पुराणों के अनुसार पद्मावती में नौ नाग राजाओं ने राज्य किया था। 

नागों की भारशिव शाखा


ऐसा प्रतीत होता है कि मथुरा और पद्मावती के नाग शासक एक ही मुख्य शाखा के थे। यह मुख्य शाखा भारशिव कहलाती थी। इन भारशिव राजाओं ने शैव उपासना को बढ़ाया। अभिलेखों के अनुसार ये राजा अपने कंधों पर शिवलिंग वहन करते थे।  अपने पराक्रम से इन्होंने भागीरथी (गंगा) तक के प्रदेश को जीतकर अपना यश बढ़ाया और दस अश्वमेध यज्ञ किये। कुछ विद्वानों का मानना है कि ये दस अश्वमेध यज्ञ वाराणसी में गंगा के तट पर किये गए जहां दशाश्वमेध घाट है। इस विवरण से यह जान पड़ता है कि पद्मावती व मथुरा के नागों के अधिकार में वर्तमान आगरा मण्डल व झांसी मण्डल का पश्चिमी भाग तथा धौलपुर व ग्वालियर का उत्तरी भाग था। 

सिक्कों तथा अभिलेखों के आधार पर अब तक निम्न नाग राजाओं के नाम ज्ञात हुए हैं :

भीम नाग, विभु नाग, प्रभाकर नाग, स्कंद नाग, वृहस्पति नाग, व्याघ्र नाग, वसु नाग, देव नाग, भव नाग, गणपति नाग, महेश्वर, नागसेन तथ वीरसेन। 

यह कहना कठिन है कि इनमें से कितने राजाओं ने मथुरा पर राज्य किया और कितनों ने पद्मावती पर। इन राजाओं में से गणपति नाग, भव नाग तथा वीरसेन के सिक्के मथुरा से काफी संख्या में मिले हैं जिससे अनुमान होता है उक्त राजाओं ने मथुरा पर शासन किया था।

समुद्रगुप्त ने किया नागों की परास्त


ईस्वी चौथी शती के मध्य में जब समुद्रगुप्त के द्वारा गुप्त साम्राज्य का विस्तार किया जा रहा था उस समय मथुरा पर गणपति नाग तथा पद्मावती पर नागसेन राज्य कर रहे थे। ये दोनों नागवंशी राजा समुद्रगुप्त से पराजित हुए औरन इनका राज्य गुप्त साम्राज्य का अंग बन गया। समुद्रगुप्त ने नाग साम्राज्य का अंत भले ही कर दिया था पर नागवंशियों का गौरव गुप्तकाल तथा उसके बाद भी बना रहा। समुद्रगुप्त ने अपने पुत्र चंद्रगुप्त विक्रमादित्य का विवाह नागवंश की कन्या कुबेरनागा के साथ किया था। स्कंदगुप्त के समय (455- 467 ईस्वी) में गंगा-यमुना के बीच अन्तर्वेदी का गोप्ता ( राज्यपाल) शर्वनाग नामक नागवंशी व्यक्ति था। राज्य के अन्य उच्च पदों पर भी नागवंश के लोग नियुक्त रहे होंगे।

नाग शासन काल और मथुरा


नागों के शासन काल में मथुरा में शैव धर्म की उन्नति हुई। नाग देवी- देवताओं की प्रतिमाओं का निर्माण भी इस काल में बहुत हुआ। इस अवधि में अन्य धर्मों के विकास भी अवरुद्ध नहीं हुआ। 313 ईस्वी में मथुरा के जैन श्वेतांबरों ने स्कंदिल नामक आचार्य की अध्यक्षता में एक बड़ी सभा का आयोजन किया। इस सभा में कई धार्मिक ग्रंथों के शुद्ध पाठ स्थिर किये गए। 

नागों के समय में मथुरा और पद्मावती बड़े समृद्ध नगरों के रूप में विकसित हुए। यहां विशाल, मंदिर, मठ, महल तथा अन्य इमारतों का निर्माण हुआ। धर्म, कला, कौशल और व्यापार के ये प्रधान केंद्र हुए। नाग शासन काल का अंत होने के बाद मथुरा को राजनीतिक केंद्र होने का गौरव फिर कभी प्राप्त नहीं हुआ।

(आगे किश्तों में जारी)

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