मथुरा शहर का एक ऐतिहासिक कुआं : सप्तसमुद्री कूप

लक्ष्मीनारायण तिवारी (वरिष्ठ इतिहासकार)

पिछले दिनों मैं जब राजकीय संग्रहालय , मथुरा के परिसर में दोपहर के वक्त खड़ा गुनगुनी धूप सेंक रहा था, तब मेरा ध्यान इसी परिसर में स्थित सप्तसमुद्री कूप (कुआँ) की ओर गया। मैं बहुत देर तक इसे निहारता रहा, और इसे देख कर मेरे मस्तिष्क में मथुरा के इतिहास की कई पर्तें खुलने लगीं। मथुरा का अतीत चलचित्र की भाँति उभर कर सामने आने लगा। मानो यह कूप मुझ से कह रहा हो – ‘मैं कोई साधारण कूप नहीं हूँ। मैंने  इस महापुरी का चरम उत्थान और फिर पतन भी देखा है ! मैं मथुरा के इतिहास का प्रत्यक्ष साक्षी हूँ।’

दो हजार वर्ष से अधिक पुराना है यह कुआं

वास्तव में मथुरा का यह कूप एक सामान्य कुआँ भर नहीं है। इस के प्राचीन महत्व का उल्लेख भारतीय संस्कृति के महान आचार्य डॉ० वासुदेवशरण अग्रवाल ने भी किया है। सप्तसमुद्री कूप के नाम से प्रसिद्ध मथुरा का यह कुआँ लगभग दो हज़ार वर्षों से भी अधिक प्राचीन है। यह प्राचीन भारत के उस वैभवशाली मथुरा नगर की याद दिलाता है, जो एशिया का एक प्रमुख व्यापारिक केन्द्र हुआ करता था। जब मथुरा से विदेशी व्यापार का संचालन होता था और मथुरा से व्यापारी समुद्र पार यात्रा करने जाते थे। हम यह जानते हैं कि प्रथम सदी (कुषाण काल) में मथुरा देश का प्रमुख व्यापारिक महानगर था। उस समय व्यापारी सुदूर समुद्र पार की यात्राओं से बहुत सा धन कमाकर लौटते, तब सवा पाव से सवा मन सोने तक का दान करते थे। मत्स्य पुराण के षोडश महादान प्रकरण में सप्त समुद्र महादान की भी गिनती है। जिन कुओं के जल से ये दान संकल्प किये गये, वह सप्त समुद्री कूप कहलाते थे। मथुरा के अलावा उस काल के प्रधान व्यापारी नगर काशी, प्रयाग, पाटलिपुत्र में भी ऐसे सप्त समुद्री कूप बचे हैं।

मथुरा महात्म्य में वर्णित है इस कूप की महिमा

लेकिन मध्यकाल तक आते आते मथुरा अपना व्यापारिक वैभव खो चुका था , वह  यमुना नदी के किनारे – किनारे सिमटा हुआ छोटा सा नगर था, जिस का महत्व एक तीर्थ के रूप में रह गया था, किन्तु आश्चर्य यह है कि मध्यकाल तक मथुरा के सप्त समुद्री कूप का धार्मिक महत्व बना रहा।’ मथुरा महात्म्य’ नामक ग्रंथ में इस कूप की महिमा का वर्णन प्राप्त होता है –

‘अथात्र मुंचते प्राणान्मम लोकं स गच्छति।

अर्कस्थलसमीपे तु कूपं तु विमलोदकम्॥

सप्त सामुद्रिकं नाम देवा नामपिदुर्लभम्‌।

तत्र स्नानेन  वसुधे स्वच्छंदेन अनालस:॥’

(अर्क स्थल के समीप स्वच्छ जलयुक्त कूप है। यह सप्त समुद्रिक कूप के नाम से प्रख्यात् है, देवताओं के लिए दुर्लभ है। इस तीर्थ (कूप) में स्नान करने वाले इष्ट गति को प्राप्त होते हैं।) 

अनेक ब्रजयात्रापरक ग्रंथों में मिलता है जिक्र

18 वीं सदी में जब मथुरा का क्षेत्र आमेर – जयपुर के शासक महाराजा सवाई जयसिंह के अधिकार में आया तो, महाराजा ने मथुरा नगर का एक नक्शा (मानचित्र) तैयार कराया और दिलचस्प बात यह है कि मथुरा नगर के इस प्रथम नक्शे में भी सप्त समुद्री कूप को विशेष रूप से दर्शित किया गया है। अनेक ब्रज यात्रापरक ग्रंथों में भी मथुरा के इस कूप का उल्लेख प्रमुखता से प्राप्त होता है। ब्रिटिश काल तक यह कूप मथुरा नगर की सिंचाई के लिए प्रयुक्त होता रहा । इस का जल अत्यन्त मीठा था। हालाँकि यह कूप मध्यकालीन मथुरा नगर से थोड़ा दूर था, फिर भी लोक की स्मृति में बना रहा। 

कई दुर्लभ व महत्त्वपूर्ण मूर्तियां मिली हैं इस कुएं से

माथुर चतुर्वेदी ब्राह्मणों के परिवार में नव विवाहित दम्पति इस कूप की पूजा हेतु आते थे। जहाँ यह कूप है, वहाँ सन् 1917 ई० के लगभग मथुरा में उत्तर प्रदेश की पहली आधुनिक कॉलौनी डैम्पियर पार्क बनी, फिर यहाँ सन् 1930 ई० के लगभग संग्रहालय की इमारत निर्मित हुई जिस के परिसर में ही यह मथुरा का ऐतिहासिक सप्त समुद्री कूप है। इस कूप में से मथुरा कला की कई  महत्वपूर्ण एवं दुर्लभ मूर्तियाँ भी प्राप्त हुईं हैं, जो राजकीय संग्रहालय, मथुरा में सुरक्षित हैं। परन्तु अब यह पूर्णत: सूख चुका है । संग्रहालय प्रशासन ने भी इसे बहुत पहले ढक कर बन्द कर दिया।

आधुनिक मथुरा नगर भी अब इस कूप को पूरी तरह से भुला चुका है । अब यह कूप शान्त है और मेरे जैसे इतिहास प्रेमी को ही मथुरा के इतिहास की कहानियाँ सुनाता है ।

लक्ष्मीनारायण तिवारी, वृंदावन

(हिस्ट्रीपण्डित डॉटकॉम के लिए यह आर्टिकल लक्ष्मीनारायण तिवारी ने लिखा है। लक्ष्मीनारायण एक ख्यातिनाम इतिहासकार है और ब्रज संस्कृति शोध संस्थान, वृन्दावन के सचिव हैं।)

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