वैर की कहानी : भाग एक

“वैर की शोभा निराली है! चतुर्दिक वृक्ष गुल्म, अनेकों बाग, सरोवर विद्यमान हैं! चतुर्वर्ण के शूरवीर यहां निवास करते हैं! विशाल महल तथा गढ़ सौंदर्य सुषमा के प्रतीक हैं!” 

वैर की प्रशंसा में यह पंक्तियां हम नहीं लिख रहे हैं, यह पंक्तियां जिस ग्रन्थ से ली गईं हैं उसका नाम है “रस पीयूष निधि” और इसे लिखा था अठारहवीं शताब्दी के प्रसिद्ध आचार्य सोमनाथ ने। पर दुर्भाग्य से वैर अपनी वह सांस्कृतिक गरिमा खो रहा है और नई पीढ़ी इस विरासत से अनभिज्ञ है। इस विरासत को आप तक पहुंचाने के लिए “वैर की कहानी” शीर्षक से हम एक लेख श्रृंखला लेकर आये हैं जिसे पढ़कर आप वैर की विरासत को समझ पाएंगे।

वैर की अवस्थिति और नामकरण

वैर नगर भरतपुर जिला मुख्यालय के दक्षिण पश्चिम में 48 किमी, डीग के दक्षिण पश्चिम में 58 किमी, बयाना के उत्तर पश्चिम में 17 किमी और भुसावर के पूर्व में 13 किमी की दूरी पर स्थित है। अठारहवीं शताब्दी के दरबारी लेखक आचार्य सोमनाथ और सूदन आदि ने इसे बैरिगढ़ लिखा है। मान्यता है कि इस नगर के आसपास बेर या झरबेरियों की बहुतायत थी जिससे इसको बैर, वरि या वैरिगढ़ कहा जाने लगा। मुगलकाल या उससे पूर्व इसकी राजनीतिक महत्ता नहीं रही इसी वजह से इस स्थान का उस काल कोई लिखित अभिलेख नहीं मिलता है। अब तक प्राप्त पहला लिखित प्रमाण जो एक अठसते के रूप में मिला है वर्ष 1694 ईस्वी का है। इस अठसते के अनुसार गांव का नाम वेर था और यहां जाट जाति के लोगों की जमींदारी थी। यह भी ज्ञात होता है कि उस समय (1694 ईस्वी) यह भुसावर परगने के अंतर्गत आता था। वैर टप्पे के अंतर्गत पांच दाख़िली नगले भी आते थे जो एमरेजपुर, पीर मुहम्मदपुर, सहजादपुर, सलेमपुर तथा हुसैनपुर थे। 

वैर का प्रशासनिक प्रबन्ध

सल्तनत काल या उससे पूर्व यह बयाना परगने/सरकार/दस्तूर सर्किल के अंतर्गत रहा। बाद के वर्षों में यह क्षेत्र जयपुर राज्य के शासकों की सूबेदारी में दे दिया गया। इसके बाद जब सिनसिनवार जाटों के नेतृत्व में सारे क्षेत्र के लोगों ने हथियार उठा लिए तो जयपुर के राजा सवाई जयसिंह के लिए इस क्षेत्र को अपने अधिकार में रख पाना सम्भव नहीं रहा। अंततः जयसिंह ने जाट राज्य के स्वामी बदनसिंह के पुत्र प्रताप सिंह को मथुरा के जयसिंहपुरा स्थित अपनी सैनिक छावनी में बुलाया। दस्तूर क़ौमवर के अनुसार 30 अप्रैल 1725 ईस्वी को मथुरा छावनी में जयसिंह ने प्रताप सिंह को परगना भुसावर के जाट-गूजर बाहुल्य गांवों का पट्टा दे दिया। इसके बाद कुछ विद्रोही स्थानीय जमींदारों का दमन करते हुए बदन सिंह ने भुसावर, टोडाभीम और बयाना आदि क्षेत्रों पर अधिकार किया और शांति स्थापित की। 

वैरगढ़ की स्थापना

बदन सिंह ने 1725 ईस्वी के अंत में परगना भुसावर, बयाना और उच्चैन के मध्यभाग में वैर नाम के एक नए परगने का गठन किया। बदन सिंह ने अपने पुत्र प्रताप सिंह को यह क्षेत्र जागीर में दे दिया। इस जागीर में पांच लाख रुपया सालाना की जमा का क्षेत्र शामिल था। असली और दाख़िली मिलाकर करीब दो सौ गांव इस जागीर से लगे थे। इसके पश्चिम में स्थित बल्लभगढ़ एक अलग परगना बनाया गया। दक्षिण के पहाड़ी इलाके में बसे गांव जहाज, हाड़ौती, उमरेड और तुहारी वैर की जागीर के अंतर्गत रखे गए। 1726 ईस्वी में जब डीग और कुम्हेर के दुर्गों की नींव रखी गई लगभग उसी समय वैरगढ़ की नींव रखी गई। प्रताप सिंह की स्थापत्य कला में विशेष रुचि थी और उसने अपनी देखरेख में इस दुर्ग का निर्माण कराया।

वैरगढ़ का निर्माण

यहां पुराने समय का एक विशाल टीला था जिसे घेरकर इस दुर्ग की नींव डाली गई। दुर्ग के चारों ओर सुरक्षा के लिए एक गहरी खाई बनाई गई। इस खाई में हमेशा जल भरा रहता था। जल भरने के लिए सीता बांध यहां तक एक नहर खोदी गई जो सीता नहर कही जाती थी। इस तरह की खाई डीग और भरतपुर के दुर्गों के चारों ओर भी देखने को मिलती है। गढ़ में निवास गृह, कचहरी, बारूदखाना, शस्त्रागार, सैनिक निवास आदि बनाये गए। जल व्यवस्था के लिए एक मुख्य नहर, कुछ कुएं और दो बावड़ियों का निर्माण भी किया गया। गढ़ में प्रवेश के लिए दो मुख्यद्वार बनाये गए जो पूर्वी और पश्चिमी द्वार कहे जाते हैं। गढ़ के नीचे खाई से बाहर पूर्वी मुख्यद्वार के सामने नए नगर को बसाया गया। 

कच्चे परकोटे के अंदर था समूचा वैर

वैर नगर की सुरक्षा के लिए एक बाहरी परकोटे का निर्माण किया गया था। इस परकोटे में प्राचीन वैर नगर और नयावास गांव का क्षेत्र शामिल था। परकोटा कच्चा था और इसकी परिधि करीब दो किमी की थी। इस परकोटे के बाहर भी गहरी खाई बनाई गई थी। पर यह खाई अब पूरी तरह से भर चुकी है। शायद ही इसका कोई अस्तित्व बचा हो। इस परकोटे के अंदर नगर में प्रवेश करने के लिए पांच पक्के द्वार बनाये गए। उत्तर में भरतपुर और कुम्हेर द्वार, पूर्व में बयाना द्वार, दक्षिण में सीता द्वार और पश्चिम में भुसावर द्वार अभी तक मौजूद हैं। इन द्वारों पर भारी और विशाल फाटक लगे थे जिन पर लोहे की चादरें और मोटी कीलें लगी हुईं थीं। इन द्वारों की सुरक्षा के लिए बाहरी भागों में मरहला (तोप) रखी गईं थीं।

प्रमुख आकर्षण फूलवाड़ी

वैर का मुख्य आकर्षण यहां की फुलवाड़ी है। यह दुर्ग के उत्तरी पार्श्व में स्थित है। इसमें लाल महल और सफेद महल देखने योग्य हैं। सफेद महल के सामने एक तालाब बनाया गया है। चारों ओर पंक्तियों में आकर्षक फब्बारे बनाये गए हैं। इन फब्बारों को चलाने के लिए पानी भरने को छत पर एक विशाल टैंक बनाया गया है। ये फब्बारे जाट और मुगल शैली का उत्कृष्ट उदाहरण हैं। फब्बारों की यह व्यवस्था डीग से भी प्राचीन है। ऐसा प्रतीत होता है डीग के जलमहलों के निर्माण की कल्पना वैर की फ़ूलवाड़ी से ही की गई होगी। आपने डीग के महलों में गोपाल भवन के सामने स्थित सफेद संगमरमर का एक हिंडोला (झूला) देखा होगा। यह हिंडोला मुगल शहंशाह जहांगीर ने आगरा के किले में बनवाया था। महाराजा सूरजमल ने जब आगरा के किले पर अधिकार किया तब वैर के जागीरदार बहादुरसिंह भी उनके साथ थे। बहादुर सिंह इस संगमरमर के हिंडोले को आगरा से उखड़वाकर वैर ले आये। यह हिंडोला यहां फूलवाड़ी में स्थापित कर दिया गया था। 1861 ईस्वी में एक ब्रिटिश अधिकारी मेजर बावरी ने इसे वैर से हटा कर डीग के महलों में गोपाल भवन के सामने लगवा दिया। 

वैरगढ़ की सुरक्षा व्यवस्था

वैर की सुरक्षा के लिए कुशल तोपची, पैदल व बंदूकची सवार तैनात रहते थे। राजधानी (डीग) की सेवा के लिए तीन हजार घुड़सवारों की एक सेना हमेशा तैयार रहती थी। आवश्यकता होने पर सेना में वृद्धि भी की जाती थी। यह सेना अक्सर सूरजमल के नेतृत्व में होने वाले अभियानों में व्यस्त रहती थी। वैर की सेना का सेनापति एक ब्राह्मण था जिसका नाम हरबल था। केशोदास नाम के एक सन्यासी की कमान में घुड़सवार दस्ता था। प्रताप सिंह ने केशोदास को 12 गांव की खिदमत जागीर प्रदान की थी साथ ही वैर नगर की सुरक्षा का जिम्मा केशोदास को दिया गया था। वैर में अस्त्र, शस्त्र, तोप, गोला-बारूद आदि बनाने के कारखाने बनाये गए थे। इन कारखानों में बनाकर जजैल, जबूरे, रहकला, बंदूक आदि डीग भेजे जाते थे। वैर नगर तथा दुर्ग की रक्षा के लिए प्रताप सिंह ने सैकड़ों छोटी-बड़ी तोप, जबूरे, जजैल आदि का संग्रह किया था। आवश्यकता पड़ने पर यह तोपखाना शस्त्रागार से निकाल कर दुर्ग प्राचीरों व बाहरी परकोटे पर लगाया जाता था।

(अगले भाग में जारी)

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