मथुरा की कहानी भाग पांच


पूर्व कथा

पिछले भागों में हम चंद्रवंश की शुरुआत, यदुवंश की शुरूआत, श्रीकृष्ण की कथा, महाजनपदों का विवरण आदि का वर्णन करते हुए मौर्य साम्राज्य तक की कहानी बता चुके हैं। अब आगे…

शुंग वंश का आधिपत्य (ईसवी पूर्व 185 से ईसवी पूर्व 100)


बृहद्रथ मौर्य वंश का अंतिम शासक हुआ। उसके ब्राह्मण सेनापति पुष्यमित्र शुंग ने ईसवी पूर्व 185 में उसे मारकर मौर्यवंश को समाप्त कर दिया। पुष्यमित्र शुंग से शुंग वंश प्रारंभ हुआ। इस वंश में पुष्यमित्र के बाद अग्निमित्र, वसुमित्र, भागवत, काशीपुत्र-भागभद्र आदि नौ राजा हुए। शूरसेन प्रदेश पर लगभग ईसवी पूर्व 100 तक शुंग वंश का शासन बना रहा। शुंगवंशी शासक वैदिक धर्म को मानने वाले थे। उनके समय में भागवत धर्म की विशेष उन्नति हुई। शुंगराजा काशीपुत्र-भागभद्र के यहां तक्षशिला के यूनानी अधिपति ऐंटिअलकाइडस के द्वारा भेजा हुआ राजदूत हेलिओडोरस आया। यह राजदूत भागवत धर्म का अनुयायी था। इसने विदिशा नगरी (भिलसा, मध्य भारत) के आधुनिक बेसनगर नामक स्थान पर वासुदेव कृष्ण के सम्मान में एक गरुड़ध्वज प्रतिष्ठापित किया था। यहां एक शिलालेख भी मिला है जिससे पता चलता है कि ईसवी पूर्व दूसरी शती के मध्य तक श्रीकृष्ण की पूजा का प्रचलन मथुरा के बाहर भी हो चुका था और उन्हें देवों में श्रेष्ठ माना जाता था।

पतंजलि के महाभाष्य में मथुरा का उल्लेख



पुष्यमित्र के समय पर वैयाकरण पतंजलि हुए थे उन्होंने पाणिनि की अष्टाध्यायी पर प्रसिद्ध महाभाष्य की रचना की थी। इस महाभाष्य में पतंजलि ने मथुरा का उल्लेख करते हुए लिखा है कि यहां के लोग संकाश्य और पाटिलपुत्र के निवासियों की अपेक्षा अधिक सम्पन्न थे। शुंगकाल में उत्तर भारत के प्रमुख नगरों में मथुरा की भी गणना थी। कई बड़े-बड़े व्यापारिक मार्ग मथुरा होकर गुजरते थे। भागवत, बौद्ध और जैन धर्म का प्रमुख केंद्र होने के कारण इसकी प्रसिद्धि बढ़ गई थी।

यवनों का आक्रमण



बैक्ट्रिया के यवन शासक डिमेट्रियस का तक्षशिला पर अधिकार था। पुष्यमित्र के समय पर उसने मथुरा, साकेत, पांचाल आदि को जीतकर पाटिलपुत्र तक आक्रमण किया जीत लिया। लेकिन आपसी कलह के कारण यवन सत्ता यहां जम नहीं सकी और डिमेट्रियस कि मृत्यु के बाद शुंगों ने फिर से अपना राज्य हासिल कर लिया। 

परवर्ती शुंग शासक



पुष्यमित्र की मृत्यु ईसवी पूर्व 151 में हुई। उसके बाद अग्निमित्र साम्राज्य का अधिकारी हुआ। अग्निमित्र के बाद पुराणों में क्रमशः वसुज्येष्ठ, वसुमित्र, आर्द्रक, पुलिंदक, घोषवसु, वज्रमित्र, भागवत तथा देवभूति नामक राजाओ के नाम मिलते हैं। यद्यपि शुंगवंश के राजा वैदिक धर्म के अनुयायी थे तो भी इनके काल में बौद्ध धर्म की अच्छी उन्नति हुई। अहिच्छत्रा के राजा इन्द्रमित्र तथा मथुरा के राजा ब्रह्ममित्र और उसकी रानी नागदेवी के नाम बोधगया की वेदिका में उत्कीर्ण मिलते हैं। इससे पता चलता है कि पंचाल और शूरसेन जनपद में भी इसकाल में बौद्धधर्म के प्रति आस्था विद्यमान थी। शुंगवंश की प्रधान शाखा का अंतिम शासक देवभूमि था जिसे उसके मंत्री वसुदेव ने मार डाला। वसुदेव ने पाटिलपुत्र पर कण्व वंश का शासन शुरू किया। कण्व वंश का शासन ईसवी पूर्व 73 से ईसवी पूर्व 28 तक रहा।

मथुरा के मित्रवंशी राजा



पुष्यमित्र शुंग और उसके उत्तराधिकारियों के समय से ही शुंगवंश की अन्य शाखाएं पाटिलपुत्र के प्रधान शुंग वंश की अधीनता में अहिच्छत्रा, विदिशा, मथुरा, अयोध्या और कौशाम्बी आदि स्थानों पर राज कर रही थीं। पाटिलपुत्र से शुंगवंश का पतन हो जाने के बाद भी इन स्थानों पर शुंगवंश की ये शाखाएं लम्बे समय बाद तक राज करती रहीं। 

मथुरा से अनेक मित्रवंश के राजाओं के सिक्के मिले हैं जिनमें गोमित्र प्रथम, गोमित्र द्वितीय, ब्रह्ममित्र, दृढ़मित्र, सूर्यमित्र और विष्णुमित्र प्रमुख हैं। इनमें से गोमित्र प्रथम का समय ईसवी पूर्व 200 के लगभग का माना गया है। अन्य राजाओं ने ईसवी पूर्व 200 से लेकर ईसवी पूर्व 100 या उसके कुछ समय कुछ समय बाद तक शासन किया। इनके अतिरिक्त बलभूति के सिक्के तथा दत्त नाम वाले राजाओं के सिक्के भी मथुरा से प्राप्त हुए हैं। मथुरा से प्राप्त दत्त नाम वाले सिक्के मित्र शासकों के बाद के प्रतीत होते हैं यद्यपि दोनों का ढंग एक जैसा मिलता है।

शक-कुषाण काल ( लगभग ईसवी पूर्व 100 से 200 ईसवी तक)


शूरसेन जनपद पर शुंगवंश की प्रभुता लगभग ईसवी पूर्व 100 तक बनी रही। इसके बाद उत्तर भारत की राजनीतिक स्थिति में परिवर्तन आया। दक्षिण की ओर आंध्र लोगों का जोर बहुत बढ़ गया। उन्होंने विदिशा तक पहुंचकर वहां की शुंग सत्ता को समाप्त कर दिया। इधर मथुरा की ओर विदेशी शकों का प्रबल झंझावत आया, जिसने यहां के मित्रवंशी राजाओं की शक्ति को हिला दिया। उत्तर-पश्चिम भारत की तत्कालीन राजनीतिक परिस्थितियों का लाभ उठाकर शक लोग आगे बढ़ने लगे। उन्होंने उत्तर-पश्चिमी हिंदुस्तान से यूनानी शक्ति को कमजोर कर दिया। जब उन्होंने देखा कि पूर्व में शुंग शासन कमजोर पड़ रहा है तब वे आगे बढ़े और शुंग साम्राज्य के पश्चिमी भाग को अपने अधिकार में कर लिया। इस जीते हुए प्रदेश का केंद्र उन्होंने मथुरा को बनाया, जो उस समय उत्तर भारत में धर्म, कला और व्यापारिक यातायात का प्रमुख नगर था। शकों के उत्तर-पश्चिमी राज्य की राजधानी तक्षशिला हुई। धीरे-धीरे तक्षशिला और मथुरा पर शकों की दो प्रथक शाखाओं का अधिकार कायम हो गया। यही वह समय था जब रामायण काल में इस क्षेत्र को मिला शूरसेन नाम लुप्त होने लगा और यह क्षेत्र प्रधान नगर मथुरा के नाम से ही प्रसिद्ध हो गया।

मथुरा के शक शासक (लगभग ईसवी पूर्व 100 से ईसवी पूर्व 57)



मथुरा पर जिन शक शासकों ने राज्य किया है उनके नाम सिक्कों तथा अभिलेखों द्वारा जाने गए हैं। प्रारंभिक क्षत्रप शासकों के नाम हगान तथा हगामष मिलते हैं। इन सिक्कों से प्रतीत होता है कि इन दोनों ने कुछ समय तक सम्मिलित रूप से शासन किया था। सम्भवतः ये दोनों भाई थे।

राजुबुल



 हगान-हगामष के बाद राजुबुल मथुरा का शासक हुआ। इसके सिक्कों पर खरोष्ठी लेख मिलते हैं। राजुबुल कि सिक्के बड़ी संख्या में मिलते हैं और कई प्रकार के हैं। कुछ सिक्कों पर ‘छत्रपस’ के स्थान पर ‘महाक्षत्रपस’ मिलता है। उसकी ‘अप्रतिहत चक्र’ की उपाधि उस राजा के स्वतंत्र अस्तित्व और शक्ति को दर्शाती है। इसके सिक्के सिंधु घाटी से लेकर पूर्व में गंगा-यमुना का दोआब तक मिले हैं। जिससे राजुबुल कि विस्तृत सत्ता सिद्ध होती है। इसके समय में मथुरा की सीमाएं भी बढ़ गईं होंगीं। कनिंघम का अनुमान है मथुरा के क्षत्रपों के समय पर मथुरा राज्य का विस्तार उत्तर में दिल्ली, दक्षिण में ग्वालियर तथा पश्चिम में अजमेर तक था।

मथुरा जिले में ही मोरा नामक गाँव से ब्राह्मी लिपि में लिखा हुआ एक महत्त्वपूर्ण शिलालेख प्राप्त हुआ है जिसमे राजुबुल के लिए ‘महाक्षत्रपस’ शब्द का प्रयोग हुआ है। 

1869 ईसवी में मथुरा से पत्थर का एक सिंहशीर्ष मिला था जो इस समय लन्दन के ब्रिटिश म्यूज़ियम में है। इस पर खरोष्ठी लिपि तथा प्राकृत भाषा में कई लेख उत्कीर्ण हैं। इनमें क्षत्रप शासकों तथा उनके परिवार वालों के नाम मिलते हैं।

मथुरा की राजमहिषी कम्बोजिका


 एक लेख में महाक्षत्रप राजुबुल की पटरानी कुमुइअ (कम्बोजिका) के द्वारा बुद्ध के अवशेषों पर एक स्तूप और गुहाविहार नमक मठ बनवाने का जिक्र है। संभवतः यह विहार मथुरा में यमुना तट पर वर्तमान सप्तर्षि टीला पर था। यहीं से उक्त सिंहशीर्ष मिला था। इसी सप्तर्षि टीले से सिलेटी पत्थर की एक अत्यंत कलापूर्ण मूर्ति मिली है, जिसकी बनावट और वेशभूषा से प्रकट है वह किसी विदेशी महिला की मूर्ति है। यह अनुमान युक्ति संगत प्रतीत होता है कि वह प्रतिमा स्वयं कम्बोजिका की होगी जिसने मथुरा में बौद्ध मठ का निर्माण कराया।

शोडास (लगभग ईसवी पूर्व 80 से 57)


राजुबुल के बाद उसका पुत्र शोडास राज्य का उत्तराधिकारी हुआ। उक्त सिंहशीर्ष के लेख पर शोडास की उपाधि ‘क्षत्रप’ मिलती है। पर मथुरा से ही प्राप्त अन्य लेखों में इसे महाक्षत्रप कहा गया है। कंकाली टीला मथुरा से प्राप्त एक शिलापट्ट पर अंकित ब्रह्मीलेख के अनुसार ‘स्वामी महाक्षत्रप’ शोडास के राज्यकाल में जैन भिक्षु की शिष्या अमोहिनी ने एक जैन आयाग पट्ट की प्रतिष्ठापना की।

शोडास के सिक्के काफी संख्या में मिलते हैं। शोडास और राजुबुल के सिक्के हिन्द-यूनानी शासक स्ट्रेटो तथा मथुरा के मित्र शासकों से बहुत मिलते हैं। शोडास के समय के अभिलेखों में सबसे अधिक महत्वपूर्ण वह लेख है जो एक सिरदल पर उत्कीर्ण है। यह सिरदल मथुरा छावनी के एक कुए से मिली थी जो वहां कटरा केशवदेव से लाई गई थी।

मथुरा में श्रीकृष्ण के मंदिर का प्रथम उल्लेख

इस पर 12 पंक्तियों के एक संस्कृत लेख खुदा हुआ है, दुर्भाग्य से इसके प्रारम्भ की 5 पंक्तियां नष्ट हो चुकी हैं। शेष शिलालेख का अर्थ इस तरह से हैं

‘स्वामी महाक्षत्रप शोडास के शासनकाल में वसु नामक व्यक्ति के द्वारा महस्थान (जन्मस्थान?) पर भगवान वासुदेव के एक चतु:शाला मंदिर के तोरण (सिरदल से सुसज्जित द्वार) तथा वेदिका की स्थापना की गई।’

महाक्षत्रप शोडास के शासनकाल की बात करें तो यह ईसवी पूर्व 80 से ईसवी पूर्व 57 के बीच था। अतः इस वसु द्वारा तोरण आदि का निर्माण इसी काल में कराया गया होगा। यह पहला अभिलेख है जिसमें मथुरा में कृष्ण मंदिर के निर्माण का पहला उल्लेख मिलता है।

शकों की पराजय


ईसवी पूर्व 57 के लगभग उज्जयिनी के उत्तर में मालवों ने अपनी शक्ति संगठित कर ली और दक्षिण महाराष्ट्र के सातवाहन शासकों की सहायता से उज्जयिनी के शकों को परास्त कर दिया। यह पराभव शकों की शक्ति पर वज्र प्रहार सिद्ध हुआ और कुछ ही समय में वे भारत की राजनीति से गायब हो गए। इसी वराह विक्रम संवत की स्थापना हुई, जो प्रारम्भ में कृत और मालव नामों से तथा बाद में विक्रम नाम से देश में प्रसिद्ध और प्रचलित हुआ।

मथुरा का दत्त वंश


उज्जैन में शकों की हार का प्रभाव मथुरा पर भी पड़ा और यहां का क्षत्रप वंश समाप्त हो गया। मथुरा और आसपास उपलब्ध सिक्कों से पता चलता है कि इसके बाद यहां पर दत्त वंश का अधिकार हो गया। इस वंश के राजाओं के नाम पुरुषदत्त, उत्तमदत्त, रामदत्त प्रथम और द्वितीय, कामदत्त, शेषदत्त, भवदत्त तथा बलभूति मिलते हैं।

(आगे किश्तों में जारी)

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