भरतपुर की कहानी भाग तीन (राजाराम ने अकबर की कब्र खोद कर अस्थियां जला दीं)

पिछले अंकों में हमने जाना कि किस तरह शाहजहाँ के शासनकाल में उसकी हिन्दू विरोधी नीतियों के कारण ब्रजमंडल के किसानों ने क्रांति की मशाल थामी और मुगल सत्ता को सशत्र चुनौती दी। मदू और गोकुला के संघर्षों ने मुगल सत्ता को अपनी ताकत का लोहा मनवाया। गोकुला की मृत्यु के बाद उस क्रांति थोड़े समय के लिए शांत जरूर हुई पर जल्द ही यह एक बार फिर पूरे जोर से भड़क उठी। अब आगे …

इस बार क्रांति का नायक बना राजाराम

औरंगजेब के अत्याचारों से आजिज किसान गोकुला की हत्या का बदला लेने के लिए फिर से हथियार उठाने की तैयारी करने लगे। यमुना के इस ओर काथेड़ जनपद में बसे सिनसिनवार, सोगरिया, कुंतल और चाहर डूंगों के जाट किसान राजाराम के नेतृत्व में संगठित होने लगे। अब बात करते हैं राजाराम के बारे में। आपको मदू के बड़े पुत्र सिंधुराज के बारे में तो याद ही होगा जो राजा जयसिंह के साथ लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुआ था। इस सिंधुराज के पुत्र का नाम था पृथीराज। पृथीराज के पौत्र का नाम था खानचंद। इन खानचंद के बारे में सुजान विलास में लिखा है कि वह एक वीर और साहसी सरदार था। उसने अपनी तलवार के बल पर सिनसिनी और उसके आसपास आबाद अनेक गांवों की जमींदारी व सरदारी हासिल कर ली थी। खानचंद के चार पुत्र थे बड़े पुत्र का नाम ज्ञात नहीं, दूसरा जूझा, तीसरा ब्रजराज और चौथा भज्जा (भगवंत)। बड़ा पुत्र तथा उसकी सन्तान नगला जाटौली, गांगरोली में जाकर बसीं और यह वंश गढ़वालिया कहलाने लगा। जूझा की संतानों ने सिकरौंदा, हींगोली, सौंख गूजर (परगना कठूमर) गांवों की जमींदारियां प्राप्त कीं। ब्रजराज और भज्जा ने सिनसिनी गांव की जमींदारी प्राप्त की। राजाराम इसी भज्जा का पुत्र था।

(उक्त वंशावली का विवरण उपेन्द्रनाथ शर्मा की पुस्तक जाटों का नवीन इतिहास भाग एक के अनुसार दिया है)

राजाराम का पहला संघर्ष लालबेग की हत्या

सिनसिनी और उसके आसपास का क्षेत्र अऊ परगने के अंतर्गत आता था। अऊ में औरंगजेब के समय पर एक थाना भी बनाया गया था ताकि क्षेत्र के विद्रोही किसानों पर नियंत्रण रखा जा सके। अऊ के इस थाने पर एक थानेदार नियुक्त था जिसका नाम लालबेग था। यह लालबेग एक लम्पट व्यक्ति था जो सुंदर स्त्रियों को अपना शिकार बनाने की कोशिश करता रहता था। एक बार एक अहीर अपनी पत्नी के साथ अऊ से होकर गुजर रहा था। उसकी पत्नी बड़ी सुंदर थी जिस पर लालबेग की नजर पड़ गई। लालबेग ने उस सुंदरी को अपने कब्जे में ले लिया। यह समाचार चारों ओर फैला और जब राजाराम को इसकी भनक लगी तो उसने उस स्त्री के सतीत्व की रक्षा करने की कसम खाई। राजाराम अपने साथियों के साथ युक्ति और साहस के साथ लालबेग की हत्या करके उस स्त्री की रक्षा करने में सफल हो गया। इससे राजाराम की धाक जम गई और दूसरे जमींदार और सरदार उसका नेतृत्व स्वीकार करने लगे। 

राजाराम और राम चेहरा की मित्रता

वर्तमान भरतपुर शहर के उत्तर-पश्चिम में चार मील दूर घने जंगलों में बाणगंगा और गंभीरी नदी के संगम पर खादर में सोगर नामक एक कच्ची गढ़ी थी। यह सोगरिया जाटों का प्रमुख स्थान था। सोगरिया जाटों ने भी कई गांवों की जमींदारियां प्राप्त कर लीं थीं। ओल तथा हेलक परगनों में इनका अच्छा प्रभाव था। इनका नेतृत्व रामकी चाहर (राम चेहरा) नामक नवयुवक कर रहा था। राजाराम ने रामकी चाहर से मित्रता की। इनकी मित्रता कामयाब रही और जीवन भर चली। रामकी चाहर ने हमेशा राजाराम का साथ दिया। इस मित्रता ने काथेड़ जनपद में एकता का सूत्रपात कर दिया। राजाराम सिनसिनी को छोड़कर कठूमर परगना में जाटौली थून नामक गाँव की जमींदारी प्राप्त कर ली। वहां रहते हुए उसने शीघ्र ही आसपास के चालीस गांवों की जमींदारी प्राप्त कर ली। अब वह एक शक्तिशाली सरदार था।  मुगल दरबार के प्रति वफादारी जाहिर करने के लिए बादशाह ने उसे दिल्ली बुलाया। 

राजाराम ने मुगल जागीरदारी स्वीकार की

अपनी शक्ति के विस्तार के लिए राजाराम के लिए मुगल जागीरदारी स्वीकार करना जरूरी था। अगर वह मुगल जागीरदारी स्वीकार नहीं करता तो उस दशा में वह एक छोटा-मोटा जमींदार बन कर ही रह जाता। अपने साथी किसानों की सेनाओं के बल पर और जो थोड़ी बहुत लूटमार वह करते थे, उसके बल पर मुगल सत्ता को बड़ी चुनौती नहीं दी जा सकती थी। सिर्फ छिटपुट विद्रोह ही किया जा सकता था। राजाराम ने इस मुगल दरबार में जाने के प्रस्ताव पर बहुत सोचा और सिनसिनवार डूंग और विभिन्न पालों के सरदारों के साथ मन्त्रणा की। अंत में सबने एक कूटनीतिक निर्णय लिया और राजाराम मुगल दरबार में गया। मुगल दरबार में उसका सत्कार किया गया। उससे लूटमार बन्द करने का वायदा लिया गया और बदले में उसे 575 गांवों की जागीर दी गई। यह जागीर जाटों के लिए वरदान साबित हुई। राजाराम ने बंदुकची सवार की नियमित शर्त पर इनाम के रूप में इन गांवों की भूमि अपने भाई-बन्धु और अन्य किसानों को बांट दी। भरतपुर राज्य की पट्टा प्रणाली अथवा सैनिक जागीर के विकास का पहला चरण यही था। इस घटनाक्रम से राजाराम और उसके बाद के सिनसिनवार सरदारों को न केवल सम्मान मिला साथ ही उनकी सैनिक शक्ति भी बहुत बढ़ गई। इसी सैनिक शक्ति के बल पर क्रांति, वीकास और स्वाधीनता की परंपरा का रास्ता खुल गया।

राजाराम के सैनिक संगठन का विकास

अब राजाराम के पास स्थाई बंदूकची, घुड़सवार और पैदल सैनिक थे। आगरा, फतहपुर सीकरी और धौलपुर तक के तमाम जाट पालों के नवयुवक सिनसिनवारों के साथ मिलकर एक संगठन में आबद्ध हो गए। राजाराम और रामकी चाहर ने एक नियमित सेना बनाई और उसे आग्नेय अस्त्र देकर सुसज्जित किया। इनके पास कुछ ही समय में बीस हजार की फौज तैयार हो गई। मुगल दरबार में लूट बन्द करने का वायदा भले ही किया गया था पर लूटमार के बिना धन एकत्र नहीं होता और धन के बिना संघर्ष नहीं होता। इसलिए मुगल परगनों की लूट के माल-असबाब को सुरक्षित रखने के लिए मार्गहीन बीहड़ जंगलों के बीच अनेक छोटी-छोटी गढ़ियाँ बनाई जाने लगीं। इन गढ़ियों में मुगल तोपखाने से बचने तक के इंतजाम किए गए। शीघ्र ही सिनसिनी, पैंघोर, सोगर, सौंख, अवार, पींगौरा, इन्दौली, इकरन, अघापुर, अडींग, अछनेरा, गूजर-सौंख आदि अनेक गांवों में गढ़ियाँ बन कर तैयार हो गईं। 

प्रमुख मार्गों पर निर्भय होकर घूमते थे राजाराम के सैनिक

1683 का वर्ष आते आते राजाराम की गुरिल्ला टुकड़ियों से सिपाही आगरा-दिल्ली, आगरा-बयाना तथा ग्वालियर और मालवा जाने वाले शाही मार्गों पर बेखौफ होकर घूमने लगे। मेवात की पहाड़ियों से लेकर चंबल तक और आमेर राज्य की सीमाओं से मथुरा-आगरा पर्यंत सारा भूभाग विद्रोह की आग से झुलसने लगा। फतूहात-ए-आलमगीरी के अनुसार ‘जाटवीरों की भयंकर लूट, भय तथा आतंक से आगरा सूबे के समस्त शाही मार्ग पूर्णतः अवरुद्ध हो गए। चारों ओर खजाना लूटने वाले दीवानों का काफिला दिखलाई देता था। जिसे पार करके एक साधारण व्यापारी क्या! एक चिड़िया भी नहीं निकल सकती थी।’ इससे हाट व्यवस्था और व्यापार संतुलन में भारी कठिनाई होने लगी। क्रांतिवीरों ने व्यापारियों से अवैध राहदारी कर वसूलना शुरू कर दिया। इस सब से क्रांतिकारियों की गढ़ियाँ भरने लगीं। सितंबर 1684 में औरंगजेब ने औरंगाबाद के सूबेदार हाजी मुहम्मद शफी खान को आगरा सूबे के सूबेदार बनाकर भेजा। शफी खान ने सिनसिनी की गढ़ी को लक्ष्य बनाकर मिर्जा खानजहां के नेतृत्व में सेना भेजी पर उसे सफलता नहीं मिली। दरअसल बादशाह लंबे समय से दक्षिण में था और इस क्षेत्र की आर्थिक स्थिति डांवाडोल हो गई थी। मुगल सैनिक और अधिकारियों को समय से वेतन भी नहीं मिल पाता था। जिसके चलते कुछ भ्रष्ट मुगल अधिकारियों ने राजाराम से सांठगांठ कर ली थी। वे जाट सरदारों से पूरी तरह मिलकर लूट में साझीदार थे। 

राजाराम का आगरा पर पहला हमला (1685 ईसवी)

राजाराम ने आगरा परगने में स्थित शाही खालसा के कुछ गांवों को लूटा और आगरा के किले पर चढ़ाई कर दी। सूबेदार शफी खान की हिम्मत नहीं हुई कि वह सामना कर सके। वह किले के भीतर छिप कर बैठा रहा। राजाराम परगने को लूटकर वापस लौट पड़ा। उसका इरादा सिकंदरा स्थित अकबर के मकबरे को लूटने का था। सिकंदरा का फौजदार मीर अबुल फजल सजग था उसने राजाराम के दस्तों को पीछे हटने पर विवश के दिया। इसके बाद जाट सैनिक शिकारपुर और रतनपुर आदि गांवों को लूटते हुए अपनी गढ़ियों में लौट आये। अकबर के मकबरे की सुरक्षा करने वाले फौजदार अबुल फजल को औरंगजेब ने सम्मानित किया और उसे इल्तफत खान का खिताब दिया। इस अभियान से राजाराम को अपार धन मिला। बादशाह ने राजाराम के विरुद्ध फिर से मुहिम शुरू की। उसने मई 1686 में प्रसिद्ध मुगल सेनापति कोकलतास जफरजंग को खानजहां बहादुर का खिताब देकर युद्ध का तमाम साजो-सामान और दो करोड़ दाम (लगभग 6 लाख 26 हजार रुपये) देकर आगरा भेजा। अक्टूबर 1686 में उसने कोकलतास के पुत्र सिपहदार खान को आगरा सूबे के सूबेदार बनाकर भेजा। इस अभियान के लिए बादशाह खुद इतना गंभीर था कि उसने अपने पुत्र शहजादा मुहम्मद आजम खान को दिसम्बर 1686 में आगरा अभियान की कमान संभालने के लिए रवाना कर दिया। अभी शहजादा बुराहनपुर तक ही पहुंचा था कि गोलकुंडा के महत्त्वपूर्ण अभियान के लिए उसे बादशाह ने वापिस बुला लिया। इस दौरान हर मुगल अधिकारी राजाराम पर काबू पाने में नाकाम रहा। अंत में दिसम्बर 1687 में औरंगजेब ने अपने पौत्र शहजादा बेदारबख्त को राजाराम के विरुद्ध रवाना किया। मार्च 1688 में बादशाह ने अपने चाचा अमीर-उल-उमरा शाइस्त खान को आगरा के सूबेदार नियुक्त कर दिया। 

राजाराम ने अकबर की कब्र खोद कर अस्थियां जला दीं

मार्च 1688 के अंतिम सप्ताह में एक रात्रि को राजाराम ने एक विशाल सेना लेकर सिकंदरा स्थित अकबर के मकबरे को घेर लिया। गोकुला की दर्दनाक हत्या का बदला लेने को व्याकुल राजाराम ने प्रसिद्ध मुगल शासक अकबर के मकबरे में जमकर लूटपाट की। उसने अकबर की कब्र को खोद दिया और उसकी अस्थियों को आग के हवाले कर दिया। मकबरे के सदर द्वारों पर लगे कांसे के फाटकों को तोड़ डाला। दीवार, छत और फर्शों में जड़े अमूल्य तथा चमकीले रत्न, और सोने-चांदी के पत्तरों को उखाड़ा। सोने-चांदी के बर्तन, चिराग, मूल्यवान कालीन, गलीचा आदि को लूट ले गया। जिन वस्तुओं को वहां से हटाने में असमर्थ रहा उनको पूर्णतः तोड़फोड़ कर छितरा दिया। मकबरे के गुम्बजों को पूरी तरह तोड़कर ही राजाराम ने चैन की सांस ली। मुगल सेनापति खानजहां बहादुर तथा नायब मुजफ्फर खान मुहम्मद वाका का समय आगरा के दुर्ग में मौजूद थे पर राजाराम का प्रतिरोध करने की उनकी हिम्मत नहीं हुई। राजाराम ने आगरा परगने के आठ गावों में और लूटपाट की। इस घटना से बादशाह की प्रतिष्ठा को बड़ी ठेस लगी और वह बड़ा क्रोधित हुआ। उसने अपने अधिकारियों पर क्रोध उतारा और उनके मनसब और सवारों के भत्ते में कटौती कर दी।

राजाराम पर काबू पाने के लिए शहजादा बेदारबख्त के प्रयास

 

आगरा में अकबर के मकबरे की इस दुस्साहसिक घटना के बाद औरंगजेब का पौत्र बेदारबख्त शाही तख्त का प्रतिनिधित्व करने तथा मुगल सेना की सर्वोच्च कमान संभालने के लिए आगरा पहुंचा। यह सत्रह वर्ष का एक अनुभवहीन नवयुवक था। जिसकी कमान में कई अनुभवी और वरिष्ठ मुगल सेनापति थे। शहजादे ने आगरा छोड़कर मथुरा में रहकर सैन्य अभियान चलाने का निर्णय किया। उसने मथुरा में सैनिक छावनी बनाई और बड़ी संख्या में सैनिकों की भर्ती शुरू की। सिपहदार खान को मथुरा का फौजदार बनाया गया तथा ग़ालिब बेग को मथुरा के आसपास के इलाकों में मुगल थाने और चौकियां स्थापित करने के काम में लगाया गया। शहजादा राजाराम से इस कदर भयभीत था कि उसने शहर के बीचोंबीच सबसे सुरक्षित स्थान पर बनी शाही मस्जिद को शस्त्रागार बनाया। उसने ढाहरी, घुंसा, रहकला जैसी बड़ी-बड़ी तोपों का निर्माण कराया। सारे आगरा सूबे में मुगलों के विरोध की ज्वाला धधक रही थी। क्षेत्रीय जनता मुख्यतः ब्राह्मण, राजपूत, गूजर, अहीर, मीणा तथा मेव जाट क्रांतिकारियों का पूरी तरह साथ दे रहे थे। छावनियों में मुगल दस्ते और सेनापति आतंकित रहते थे। स्वयं शहजादा बेदारबख्त, खानजहां बहादुर तथा अन्य सेनानायक भी मथुरा छावनी से बाहर निकलने का साहस नहीं कर पाते थे। हमीदउद्दीन लिखता है कि इस शहजादे ने राजाराम की भतीजी के साथ विवाह का प्रस्ताव भी भेजा था जिसे स्वाभिमानी राजाराम ने ठुकरा दिया। शहजादे ने बादशाह से और अधिक सेना की मांग की जिस पर बादशाह ने काबुल में नियुक्त आमेर के राजा रामसिंह को मथुरा का फौजदार नियुक्त कर उन्हें मथुरा पहुंचने का आदेश दिया। इससे पहले कि राजा रामसिंह मथुरा पहुंचते उनकी मृत्यु हो गई। 

चौहान-शेखावत युद्ध में राजाराम की मृत्यु (जुलाई 1688 ईसवी)

ब्रजमंडल और राजपूताने के बीच में मेवात की पहाड़ियां हैं। इन मेवात इलाके में अलवर के 24 मील उत्तर-पूर्व तथा फिरोजपुर के 14 मील पश्चिम में बगथला स्थान है। यह क्षेत्र बगथरिया कहलाता है। इसमें वर्तमान तिजारा, किशनगढ़ और कोटकासिम आदि तहसीलों का क्षेत्र आता है। इस क्षेत्र पर आधिपत्य को लेकर शेखावाटी के राजपूत और चौहानों में पिछले कई वर्षों से तनाव चल रहा था। इस तनाव के कारण 1688 में शेखावतों और चौहानों के बीच भयंकर युद्ध के हालात बन गए। चौहान राजपूतों ने राजाराम को अपनी सहायता के लिए बुलाया। राजाराम अपनी जाट टुकड़ियों के साथ चौहान राजपूतों की सहायता के लिए पहुंचा। वहीं शेखावतों ने मेवात के फौजदार मुरतिजा खान की सहायता ली। फौजदार मुरतिजा खान ने शहजादे बेदारबख्त से मदद मांगी। उचित अवसर जानकर स्वयं शहजादा बेदारबख्त, सेनापति कोकलतास जफरजंग, सिपहदार खान आदि राजाराम के विरुद्ध शेखावतों की ओर से युद्ध में शामिल हुए। बूंदी के रावराजा अनिरुद्ध सिंह व कोटा के महाराव किशोर सिंह हाड़ा भी युद्ध में शामिल हुए। 14 जुलाई 1688 (बृहस्पतिवार) को दोनों पक्षों के मध्य वर्तमान अलवर जिले की मंडावर तहसील के बीजल गांव में यह युद्ध लड़ा गया। यह स्थान रेवाड़ी से 18 मील दक्षिण और तिजारा से 20 मील पश्चिम में स्थित है। दोनों पक्षों के मध्य भयंकर युद्ध हुआ। युद्ध जब अपने चरम पर था तब राजाराम ने अपने दल के साथ युद्ध क्षेत्र के मध्य में प्रवेश किया और वह मुगल दस्तों पर बुरी तरह टूट पड़ा। जाटों के इस भयंकर संग्राम को देखकर शहजादा बेदारबख्त भी घबड़ा गया। इसी समय सिपहदार खान के एक अचूक बंदूकची ने एक पेड़ की आड़ में छिपकर गोली का निशाना लगाया। यह गोली राजाराम की छाती में लगी। वह घोड़े से गिर गया और वीरगति को प्राप्त हुआ। राजाराम के मरते ही चौहानों को रणक्षेत्र छोड़कर भागना पड़ा।

रामकी चाहर बेदारबख्त के हाथों गिरफ्तार हुआ

राजाराम के मरते ही चौहान राजपूत और जाट सेना का मनोबल टूट गया। राजाराम का अनन्य मित्र और विश्वासपात्र साथी रामकी चाहर (राम चहेरा) बेदारबख्त के हाथ पड़ गया। उसे बंदी बनाकर आगरा भेजा गया। जहां उसका सिर काट कर एक ऊंचे फाटक पर लटकाया गया। 

इस तरह ब्रज के किसानों का आंदोलन, जो जाट जमींदारों की साझा शक्ति के बल पर सिनसिनी गांव के मदू और उसके वंशजों के साहसिक नेतृत्व में चल रहा था, का तीसरा सोपान पूरा हुआ। एक बार फिर मुगल सत्ता भारी पड़ी और ब्रज को स्वाधीन कराने का सपना देखकर उसके पीछे अपना रक्त बहाने वाले जाट वीरों को भारी कीमत चुकानी पड़ी। पर कहानी अभी खत्म नहीं होती है। गोकुला के बलिदान ने राजाराम को खड़ा किया तो राजाराम और रामकी चाहर का रक्त भी जाया नहीं जाने वाला था। पर वह समय आने में अभी थोड़ा समय शेष था। 

(अगले भाग में जारी …)

(विशेष : यह कहानी ठाकुर देशराज, कालिका रंजन कानूनगो, उपेन्द्रनाथ शर्मा आदि इतिहासकारों की पुस्तकों में दिए गए तथ्यों पर आधारित है।)

डिस्क्लेमर : ”इस लेख में बताई गई किसी भी जानकारी/सामग्री में निहित सटीकता या विश्वसनीयता की गारंटी नहीं है। हमारा उद्देश्य महज सूचना पहुंचाना है, इसके उपयोगकर्ता इसे महज सूचना के तहत ही लें।”

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