गुजरात में गीत गोविन्द संबंधित परम्परा तथा राधातत्त्व – हितांगी ब्रह्मभट्ट के हालिया शोध पर कुछ नोट्स

अमनदीप वशिष्ठ

गुजरात में कला के विकासक्रम का इतिहास काफ़ी पुराना है और उसमें जैन तथा वैष्णव दोनों ही धाराओं का योगदान रहा है। वहां जैन मंदिरों तथा वैष्णव मंदिरों का स्थापत्य-वैभव देखते ही बनता है। इसी सिलसिले में विशेषतः चित्रकला की भी अपनी तरह की प्रविधि गुजरात में विकसित हुई। इस चित्रकला तथा सुदूर पूर्व में रचे गए ‘गीतगोविन्द’ को लेकर हितांगी ब्रह्मभट्ट ने हाल ही में एक शोधपत्र लिखा। ‘विज़ुअल रिप्रेजेंटेशन ऑफ़ राधा इन द गीत गोविन्द पेंटिंग्स फ्रॉम गुजरात’ जो कलाकल्प नामक जर्नल में छपा है।  इस शोध पत्र को पढ़ते हुए बहुत से बिंदु मन में उभरते हैं। उनमें कुछेक जो ब्रज संबंधित अध्ययन हेतु काम के हैं वे विचार के लिए क्रमवार प्रस्तुत हैं।

१ . पूर्व तथा पश्चिम की ज्ञानमीमाँसीय कोटियों का अंतर

अंग्रेजी में चिंतन उस तरह नहीं होता जैसे हिंदी में होता है। हिंदी में जो ब्रज संबंधी चिंतन होता रहा है वह बहुत ढीला ढाला तथा भावुकतापूर्ण होता है। उसमें बहुत गहरी ‘क्रिटिकल इंक्वायरी’ यानी ‘आलोचनात्मक जिज्ञासा’ की गुंजाइश नहीं बन पाती। इसीलिए ब्रज संबंधी शोध की अधिकाँश गुणवत्तापूर्ण पुस्तकें अंग्रेजी में हैं तथा यूनिवर्सिटियों के विद्यार्थी उसी भाषा में चिंतन पसंद करते हैं। उस भाषा में चिंतन की कैटगरीज़ [कोटियाँ] ही भिन्न होती हैं। जिन ज्ञानमीमांसीय कोटियों का प्रयोग ब्रह्मभट्ट जी ने किया है वे अभी हिंदी जगत में प्रचलन में ही नहीं हैं या फ़िर न के बराबर हैं । मस्लन ‘टेक्सट इमेज रिलेशनशिप’ अर्थात पाठ एवं चित्रांकन के संबंधों का अध्ययन। इस शोधपत्र की अपनी परम्परा भी कपिला वात्स्यायन जी के अनुसंधान पर आधारित है जो पुनः कहें कि अंग्रेजी की कोटियों पर निर्भर है। हालाँकि उसे अंग्रेजी कोटियाँ कहना भी एक तरह से कामचलाऊ बात है। चूंकि कला के चिंतन का विकास अंग्रेजी जगत के बाहर फ्रेंच-इतालवी-जर्मन परम्पराओं में बहुत हुआ है। वो अलग बात है कि वह सब हम तक उन भाषाओं के अपरिचय के कारण हिंदी में आता है। ब्रह्मभट्ट जी का शोध हमें स्मरण कराता है कि यदि हमनें हिंदी में अपने चिंतन का नवोन्मेष नहीं किया तो लम्बी दूरी तय नहीं की जा सकेगी। उदाहरण के लिए जो संदर्भ ग्रंथ इस शोध पत्र के अंत में लिखे गए हैं वे सभी अंग्रेजी के हैं। मस्लन एन सी मेहता ,कपिला वात्स्यायन, मिलर, जैरो अथवा सुधीर कक्कड़ सरीखे विद्वानों के ग्रंथ। इसमें पंडित बलदेव उपाध्याय – हनुमानप्रसाद पोद्दार जी अथवा कोई पुराना संस्कृत ग्रंथ भी नहीं है। इसकी एक गहरी वजह है जो लेखिका ने आरम्भ में ही स्पष्ट कर दी। वह ये कि राधातत्त्व की जो थियोलॉजिकल [धर्मशास्त्रीय] अथवा सेक्टेरियन [साम्प्रदायिक] समझ है वह एक सीमा के आगे अर्थ को खोल नहीं पाती। यूँ कह लें कि उसमें अर्थ-मीमाँसा की जगह पूर्व-प्रतिष्ठित भावलोक का दोहराव होता है। उसमें होता ये है कि अपने ही समय के साथ हमारा कोई जुड़ाव नहीं बन पाता। नए युगबोध के साथ रिश्ता टूट जाता है। ये बात ब्रजभाषा के विद्वानों की भोगी हुई दिक्कत है। जिस तरह वे बीसवीं शताब्दी के अंत में खड़ी बोली द्वारा अपदस्थ किये गए वो नए युगबोध के साथ रिश्ता न बना पाने के कारण हुआ। अब यही बात चिंतन में भी होती रही। अतः यहाँ निर्मल वर्मा जी का वह सूत्र याद आता है जिसके अनुसार भारत को अब औपनिवेशिक ज्ञान मीमांसा से गुज़रे बिना अपने आत्म की उपलब्धि नहीं होगी। शायद यही वजह है कि पिछले सौ बरस में जो कला-संबंधी चिंतन भारत में हुए उसका अधिकाँश अंग्रेजी भाषा में है। फ़िर ये भी है कि हिंदी में संसार उतना खुला नहीं है कि वहाँ वर्जनाओं के बाहर कोई बात आसानी से कही जा सके। वह या तो ब्रजभाषा में कहनी पड़ती है या अंग्रेजी में। बीच का रास्ता सरल नहीं है।

२ . शोधपत्र की प्रस्थापनाएँ

इस शोधपत्र की दो प्रस्थापनाएँ  हैं जिनका विवेचन लेखिका ने किया है। पहला है मान तथा समर्पण के द्वैत-युग्म की मीमांसा। प्रेम में ‘मान’ भी होता है और ‘समर्पण’ भी। रीति-काव्य में ‘मानिनी’ नायिका का प्रचुर वर्णन है। लेकिन ‘मान’ और ‘समर्पण’ दो विरोधी तत्त्व हैं। उनका समाहार केवल प्रेम की भूमि पर ही सम्भव है। [याद करें राधावल्लभ जी के खिचड़ी उत्सव में गाया जाने वाला एक पद – ‘ओंगी मौंगी रहत गरब की माती’। यहाँ ‘गरब’ [गर्व] प्रेम के एक भाव के अर्थ में भी है तथा इक़बाल के ‘असरार-ए -ख़ुदी’ में कहे ‘आत्म’ के अर्थ में भी जिसे राधातत्व के स्वायत्त [ऑटोनॉमस] अस्तित्व के अर्थ में भी। ब्रह्मभट्ट जी का कहना है कि राधातत्व की समझ कृष्ण के परिप्रेक्ष्य में ही सम्भव है। यह कुछ पेचीदा मामला हो सकता है। चूँकि वृन्दावनी धारा के एक हिस्से में राधातत्त्व बहुत आगे चला गया है। ये हो सकता है कि जयदेव के समय वह स्थिति न रही हो।

दूसरी प्रस्थापना है – स्मृति – कामना तथा रति-आतुरता के बीच संबंधों की तलाश। ये सारा विवेचन गुजरात के इलाके में विकसित हुए चित्रों के माध्यम से किया गया है। ये वे चित्र हैं जो ‘गीत-गोविन्द’ आधारित हैं। उन चित्रों में गीतगोविन्द का पाठ भी है तथा चित्रकार द्वारा उसके अर्थग्रहण से उपजा अंकन भी। ये दोनों घुल-मिल गए हैं। चित्रों को समझने की प्रविधि ‘सेमियॉटिक्स’ से ली गयी है। और उसका आधार रखा गया है मनोवैज्ञानिक भावों का विवेचन। अब हमारे सामने फ़िर एक समस्या खड़ी हो जाती है। वह ये कि क्या भारत की अपनी कोई ‘सेमियॉटिक्स’ भी रही है! क्या हमारे पुराने लोग किसी कलाकृति का आस्वाद करते हुए उसके अर्थग्रहण की कोई अपनी विधि नहीं बता रहे थे! वो विधि पोस्ट-मॉडर्न विवेचन से किस तरह अलग या समान है। इसमें एक बात और जोड़ दी जाए। बंगाल चित्रकला में जब एक गतिरोध आ गया था तो उसकी एक बड़ी वजह थी उनका अपने में सिमट जाना। इसलिए बाद में भारत की चित्रकला के केंद्र बम्बई दिल्ली जैसे शहर बने। सूज़ा अथवा रज़ा बंगाल में नहीं बल्कि बम्बई अमेरिका पैरिस में काम करते हुए नवोन्मेष ला सके। आज हमें विष्णुधर्मोत्तर -या फ़िर मम्मट राजशेखर मल्लिनाथ के काम को आधुनिक फ्रेम में रखकर देखना होगा वर्ना वह ‘पुनरुक्तियों’ का एक ज़खीरा बन जाएगा। सायकोएनेलेटिक धारा के रास्ते ब्रह्मभट्ट जी ने जयदेव के ‘काम’ को मानवीय भूमि पर समझने का प्रयास किया है जो एक तरह से आचार्य रामचंद्र शुक्ल की प्रविधि की याद दिलाता है। आचार्य शुक्ल साहित्य को ‘चित्तवृत्ति’-प्रतिबिम्ब’ देखते थे। पुरानी रस-मीमांसा तथा बीसवीं शती के आरम्भ में यूरोपीय साहित्य की ‘स्ट्रीम ऑफ कॉन्शियसनेस’ संबंधी विचार पद्धति से उनका परिचय रहा। इन दोनों के युगपत अनुसंधान से ही उनकी अपनी रस-दृष्टि विकसित हुई। अब हमारे लिए प्रश्न ये है कि गुजराती चित्रांकन तथा जयदेव के बीच संबंधो को समझते हुए राधातत्त्व संबंधी चिंतन के लिए हमारा मार्ग क्या होगा! ये प्रश्न तो खुला ही छोड़ा जाना चाहिए।

३ . निवेदन तथा सुझाव

इस शोधपत्र की शब्दसीमा लेखिका के सामने एक समस्या अवश्य रही होगी चूंकि जर्नल्स में अति-विस्तार नहीं किया जा सकता। लेकिन फ़िर भी कुछ बिंदुओं को उनके द्वारा आगे कभी विस्तार दिया जाना चाहिए। जैन परम्परा में ‘फागु’ – स्थूलभद्र कोशा का प्रसंग – वसंत विलास – चौरपञ्चाशिका का विस्तृत विवरण एक भाग में दिया जा सकता है जिससे गुजराती चित्रकला के विभिन्न ‘मोटिफ’ स्पष्ट हो सकें। कालिदास के कुमारसम्भव की संरचना को युगल-रतितत्त्व के लिए इसमें लाया जा सकता था। हालाँकि उसका उल्लेख तो हुआ ही है। तंत्र की परम्परा का ज़िक्र नहीं हो पाया है जो भविष्य में किया जाना चाहिए। जिस युगलतत्त्व की चर्चा अब होती है उसके बीज तंत्र में हैं। चित्रकला के विद्वान तो यों भी तंत्र संबंधी चित्रों से नज़दीक का परिचय रखते हैं। इसके अतिरिक्त यह भी कि सेमियॉटिक्स महज़ पिक्टोरियल नहीं होती वह ‘सिन्टैक्टिक’ भी होती है। अतः चित्रों की विवेचना के साथ जयदेव के मूल संस्कृत गीतगोविन्द पाठ का भी विवेचन आवश्यक है। तभी ये तय हो पायेगा कि चित्रकार वस्तुतः पाठ के कितने नज़दीक था और किस जगह उसने रचनात्मक छूट लेकर पाठ में कुछ जोड़ा है। ये सब भविष्य के लिए महज़ सुझावरूप हैं। ये शोधपत्र स्वयं में इतना सधा हुआ है कि इसकी सघनता [डेन्सिटी] से हम सबको सीखना चाहिए। अंग्रेजी गद्य भी बहुत सरस एवं अकादमिक है। अपनी बात को कहते हुए वाक्य विन्यास तथा शब्दों का प्रयोग सटीक हुआ है। मस्लन चित्रों के संग्रह को ‘विज़ुअल लैक्सिकॉन’ कहा जाना एकदम उपयुक्त है। एक जगह प्रेम के ठहर गए क्षण के लिए जो वाक्य प्रयोग हुआ है वह बेहद सुंदर है – प्रेम के भीतर सात्विक नाराज़गी को रूपायित करता हुआ –
‘दिस फ्रोज़न मोमेण्ट बिटवीन द लवर्स एंगेजिंग इन बिसीचिंग एण्ड एडमॉनिशमेन्ट’.

४ . ब्रजविषयक चिन्तन हेतु निष्कर्ष

ब्रजचिंतन के लिए कुछ सीखने योग्य बिंदुओं को पुनः एक साथ रखें तो वे कुछ यूँ होंगे

[क] गीतगोविन्द को पुनः देखा जाना होगा। कपिला जी ने जो कार्य का आधार तैयार किया था उसमें अब भी संभावनाएं हैं। गीतगोविन्द मूल है। मूल को बार-२ देखा जाना होता है। जैसे बर्गसाँ आदि को पढ़ने के बाद इक़बाल ने क़ुरआन को फिर से समझा, नीत्शे हेगेल डार्विन तथा ग्रीक चिंतन को लेकर अरविन्द फ़िर से वेदों में उतरे, आनंद कुमारस्वामी ने मध्यकालीन क्रिश्चियन संतों से दृष्टि पाकर भारतीय कला का नए सिरे से अनुसंधान किया ठीक उसी तरह अब एक बार फ़िर से गीत-गोविन्द को देखा जाना होगा।
[ख] बंगाल उड़ीसा के तीर्थयात्रियों के साथ कोई गहरा संवाद कायम करना होगा। वृन्दावन ‘यहाँ’ है। लेकिन उसके चिंतन का एक स्रोत ‘वहाँ’ है। उस ‘वहाँ’ के बिना पुनरुक्ति पकड़ जायेगी – जो एक तरह से पकड़ ही गयी है। बंगाल-उड़ीसा के सामने शिष्यवत जाना होगा। और यदि ऐसा नहीं हुआ तो हम एक समृद्ध विरासत से वंचित रह जायेंगे। उनके अवचेतन को मार्ग देना होगा।
[ग] केवल निरे धर्मशास्त्रीय विवेचन से हम ‘स्वकीया-परकीया’ आदि के चुके हुए द्वैत में उलझ गए। ब्रह्मभट्ट जी ने सही ध्यान दिलाया है कि केवल हिस्टॉरिकल – थियोलॉजिकल रास्ता एक जगह जाकर बंद हो जाता है। उसके अतिरिक्त एक भाव का रास्ता भी है। लेकिन वो भाव हर बार ‘ट्रान्सेंडैंटल’ न होकर इसी मानवीय जगत से उपजा है। हमें उसकी पुनः प्रतिष्ठा करनी होगी।
ब्रह्मभट्ट जी को इस परिश्रम के लिए बधाई और हमारे काम करने के लिए आवश्यक सबक देने हेतु आभार।

अमनदीप वशिष्ठ

(अमनदीप वशिष्ठ विज्ञान के विद्यार्थी हैं तथा कुछ समय से ब्रज संस्कृति शोध संस्थान में रहकर ब्रज संबंधित अध्ययन में रत। मूलतः हरियाणा के निवासी।)

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