ब्रज की वर्त्तमान आतंरिक गतिकी – एक बाहरी अध्येता के नोट्स

अमनदीप वशिष्ठ

ब्रज में पिछले कुछ समय से एक संश्लिष्ट वैचारिक मंथन चल रहा है। इस वैचारिक मंथन का स्वरूप बहुत से कारकों से मिलकर बना है। मस्लन बढ़ती भीड़, इंटरनेट की दुनिया का प्रभाव, सम्प्रदायों की आंतरिक प्रतिद्वंद्विता, पूरे भारत का बदलता सामाजिक माहौल, दिल्ली गुड़गांव का औद्योगीकरण और भी अन्यान्य मसले। पूरे मामले को देखने के कई तरीके हैं। एक तो परम्परागत तरीक़ा है ही कि – हाय कलिकाल के प्रभाव से भक्ति का लोप हो गया और न जाने कैसा आधुनिक प्रभाव आने लगा है ! ये एक तरह का विलाप होता है जिसमें कोई निष्कर्ष हाथ नहीं लगते। बस मन हल्का हो जाता है।  दूसरा ये कि जो हो रहा है सो ईश्वर की इच्छा [ ब्रज की विशिष्ट शब्दावली में – ठाकुरजी की इच्छा ]. तीसरी पद्धति है जो वृन्दावन के मेधावी संतों यथा विहारिनदेव जी, भगवतरसिक जी और हरिराम व्यास जी, राधाचरण गोस्वामी सरीखे अन्तर्दृष्टिसम्पन्न मनीषियों से प्राप्त होती है। इस पद्धति के अनुसार हमें चीज़ों को चुपचाप ध्यानपूर्वक देखना होता है। उसमें छिपे तत्त्व अपने आप उभरने लगते हैं।

इंटरनेट-यूट्यूब का संसार और उसके प्रतिफलन

संतों की वाणी का प्रसार उस युग के माध्यम से होता है। एक समय वह वाचिक था। फ़िर एक वक़्त वह प्रिंट में छपकर आया। अब वह टेलीविज़न के माध्यम से भी आगे जाकर लाइव स्ट्रीमिंग के द्वारा हो रहा है। यूट्यूब ने आज प्रख्यात कथावाचक और संत उत्पन्न किये हैं। इस इंटरनेट के कारण समीकरण उलट पलट गए हैं। जो मेधावीजन वर्षों से प्रतिष्ठित थे वे आज इंटरनेट के सामने स्वयं को उतना प्रतिष्ठित नहीं पाते। दूसरी ओर ऐसे विद्वान जो कुछ वर्ष पहले तक ‘जाने-माने’ नहीं थे वे सब आज पूरे भारत में देखे सुने जा रहे हैं। इसके कारण एक सूक्ष्म खींचतान पैदा होनी ही थी। स्थिति यहाँ आ पहुंची है कि जो विद्वज्जन अच्छी-खासी जगह पर थे वे भी इंटरनेटोत्पादित प्रक्रिया से प्रमाण पत्र लेने पहुँच रहे हैं। कथावाचन का संसार तो मानों इंटरनेट से पूरा उलट-पलट गया है। दरअसल जिस गंभीर कथावाचन के स्रोत यहाँ थे वे बहुत पहले ही हाशिये पर भेज दिए गए। इसमें किसी एक का दोष नहीं था। कथावाचन की पूरी प्रक्रिया लोकरंजन पर आधारित  है। लोक का स्वरूप स्वयं बदलता है। दिल्ली गुड़गांव तथा आसपास के राज्यों में में मध्यम वर्ग के उभार के बाद कथावाचकों की एक समूची श्रृंखला ब्रज से गयी। उसके लिए प्रमुख दायित्व वहां की ऑडिएंस के प्रति था। इंटरनेट के आने से ‘स्थानीयता’ का मामला भी जाता रहा। मैं जहाँ बैठकर कथा करता हूँ – देखने सुनने वाला वहां से हज़ारों किलोमीटर दूर है। अतः एकदम आये इस ‘भूगोलविहीनता’ के तत्व ने चौंक पैदा कर दी। भौतिक-भीड़ की जगह ‘आभासी-व्यू’ की संख्या आ गयी। किसी अमुक वीडियो के ‘व्यू’ उसमें मौजूद वक्ता की शक्ति के प्रतीक हो गए हैं।  जिसने भी इस ‘आभासी-व्यू’ की शक्ति को कम आंकने की भूल की, वही क्रीड़ा-क्षेत्र से बाहर हो गया। ब्रज का आंतरिक विमर्श अब इस ‘आभासी-व्यू’ से गहरे गुंथ गया। एक समय आया जब इस ‘आभासी-व्यू’ का प्रतिफलन वास्तविक भीड़ में हुआ। ये भीड़ आभासी नहीं थी।इसका धक्का हम अपने शरीर पर महसूस कर सकते हैं। अतः इंटरनेट के आभासी संसार के धमक गलियों तक आ गयी।

आर्थिकी तथा युवा का माइग्रेशन

ब्रज के समाज में परम्परागत पंचायत व्यवस्था के क्षीण होने के कुछ कारण रहे। वह ये कि यहाँ का समाज एक उथल-पुथल से गुज़र रहा था। मथुरा-वृन्दावन-बरसाना-नंदगाँव आदि प्राचीन स्थानों के परिवार ब्रज के बाहर शिफ्ट होने लगे। पत्रिकाओं में उन विदेशियों की तस्वीरें तैरती रहीं जो अमेरिका से यहाँ भक्ति हेतु आये। लेकिन उनपर से दृष्टि हट गयी जो रोज़गार के लिए दिल्ली-बम्बई-दुबई-अमेरिका-ब्रिटेन जा रहे थे। एक तरह से यूँ कहें कि ‘सर्वश्रेष्ठ मस्तिष्क’ बाहर का रुख करने लगे। ये एक तरह से विचित्र स्थिति बनी। थोड़ा हल्के फुल्के अंदाज़ में सरसरे तौर पर कहें तो अमेरिका का व्यक्ति यहाँ और यहाँ का व्यक्ति अमेरिका ! मुझ सरीखे बाहरी व्यक्ति के लिए ठीक-ठीक कारणों का पता लगा पाना टेढ़ी खीर होगी। लेकिन सामाजिक यथार्थ से बच पाना कठिन होता है। जिस पीढ़ी के पास सर्वाधिक आधुनिक समझ थी और जिसको यहाँ की परवरिश का सौभाग्य प्राप्त था उसने यहाँ से ‘प्रतीकात्मक’ रिश्ता तो बनाकर रखा क्योंकि ब्रज  की आइडेंटिटी का बाहर सम्मान है। लेकिन उसके लिए आर्थिक मजबूरियों तथा एक बेहतर जीवन की तलाश में बाहर जाना अपरिहार्य हो गया। दिल्ली तथा आगरा जैसे प्रतिष्ठित व्यापारिक केंद्रों के मध्य स्थित इस क्षेत्र के बच्चों को लगातार बाहर क्यों जाना पड़ा है इस प्रश्न से बचकर कोई लम्बी दूरी का समाधान नहीं मिल सकता। इस बाहर की ओर होते ‘आउटफ़्लो’ को सीधे रोकना मुमकिन न भी हो क्योंकि दुनिया इतनी छोटी होती चली गयी है कि हर बच्चा स्वतंत्र उड़ान चाहता है। लेकिन ब्रज क्षेत्र के लिए ये सवाल महज़ आर्थिक नहीं है उसका एक सांस्कृतिक डायमेंशन भी है। किसी भी क्षेत्र की एक आंतरिक ‘स्वायत्तता’ होती है। जिसे अंग्रेजी में ‘ऑटोनॉमी’ से अभिहित किया जाता है। वह स्वायत्तता लगातार दरकती युवा पीढ़ी के साथ संगत न रह पाएगी। उससे परम्परागत पंचायत व्यवस्था तथा सामूहिक निर्णय की प्रणाली प्रभावित होती है। पिछले कुछ समय में जिस तरह ‘ऊपर से’ आने वाले निर्णयों के चलते वृन्दावन तथा आसपास के क्षेत्र की भू-सांस्कृतिक संरचना बदली है तथा और बदलने जा रही है – वह सामूहिक निर्णय केअभाव का द्योतक है।

ब्रज में परम्परा : वैधीकृत होने की पगडंडियाँ

पश्चिमी साइकोएनेलिसिस अर्थात मनोविश्लेषण ने हमें एक महत्त्वपूर्ण बात सिखाई। सो वह ये कि व्यक्ति केवल स्वतंत्रता नहीं चाहता। बल्कि उलटे उससे तो वह बचता भी है। एरिक फ्रॉम ने इसे ‘एस्केप फ्रॉम फ्रीडम’ या ‘फियर ऑफ फ्रीडम’ कहा। स्वतंत्रता से संकोच !  ये अपने आप में एक अजीब बात थी क्योंकि ये बात सामान्य समझ के उलट पड़ती है। भला कौन ऐसा व्यक्ति है जो आज़ाद रहना नहीं चाहता होगा। लेकिन इसके आगे की बात ये है कि मनुष्य मनोवैज्ञानिक सुरक्षा भी चाहता है। उसके लिए उसे किसी ‘ऑथॉरिटी’ या यूँ कहें किसी बड़े आधार की तलाश रहती है। जिसके सहारे वह स्वयं को आलंबन दे सके। अपनी आत्मा को टिका सके ! वह बंधना भी चाहता है। जिससे वह स्वयं के अस्तित्व को वैध ठहरा सके। इस बात को भारत के मनीषी भली भाँति समझते थे इसलिए उन्होंने परम्परा के साथ संबंधों को बड़ी बारीकी से समझा। मान लीजिये मैं  किसी वृन्दावनी परम्परा में प्रवेश करके अपने मन को आधार प्रदान करता हूँ। ये दो तरह से हो सकता है। या तो मैं सच ही किसी परम्परा से साथ भावात्मक तादात्म्य अनुभव करूँ। या फ़िर उस पूरे आध्यात्मिक संसार में प्रवेश के लिए उसे महज़ एक ‘पड़ाव’ के रूप में लूँ। चूंकि भारत में बार-बार ये प्रश्न किया जाता है कि आप वस्तुत: कौनसी परम्परा से हैं ! सामान्य साधक से तो कोई भले पूछे न पूछे लेकिन बड़ी उम्र के साधू से तो पूछा ही जाएगा। अतः कई बार किसी साधु को किसी एक परम्परा में प्रवेश कर लेना होता है चूँकि उसके आध्यात्मिक चित्त को आलंबन चाहिए होता है और शायद उससे भी बढ़कर आध्यात्मिक संसार में उसकी मौजूदगी को सत्यापित करने के लिए। अब कई दफे ऐसा हो जाता है कि शिष्य सांसारिक प्रसिद्धि के मामले में मूल परम्परा से आगे निकल जाता है। इस संसार में पता नहीं कब क्या घटित हो जाए। यहाँ आकर प्रक्रिया उलट जाती है। उत्तर भारतीय आध्यात्मिक जगत में कई बार ऐसा हुआ है। अतः ऐसी किसी परिघटना को एकदम नया न समझें। ये एक मौका है कि परम्परा भी खुद को समझे। कृष्णभक्ति की एक धारा जब भारत के बाहर जाकर प्रसिद्ध हुई तो तब भी एक मौका था कि हम इस मामले को नयी तरह से समझते। इंटरनेट के संसार ने अब फ़िर ऐसे ही मौके खड़े कर दिए हैं। अतः ब्रज-अध्येताओं को अब बहुत ध्यान से इन नए परिवर्तनों को देखना होगा।

पर्यटन तथा तीर्थाटन : धुंधली होती विभाजक रेखा

नब्बे के दशक के आरम्भ में नयी उदारवादी नीतियों से दिल्ली के आसपास आर्थिक परिवर्तन हुए। [इनके कुछ पक्षों पर हॉली साहिब ने अपनी वृन्दावन संबंधी किताब में विस्तारपूर्वक लिखा है। अधिक विवरण के लिए उसे देखना चाहिए।] मध्यम वर्ग का उदय हुआ और उन्होंने जीवन की एकरसता से बचने के लिए नए स्थानों की तलाश शुरू की। भौगोलिक तौर पर ब्रज सबसे नज़दीक था तो उस ओर मूवमेन्ट बढ़ गए। उससे कुछ इतने स्पष्ट परिवर्त्तन हुए कि जगहों के स्वरूप बदल गए। अब वृन्दावन और छटीकरा में कोई वास्तविक अंतर् नहीं बचा है। नए बने हाइवे तथा ऑटोमोबाइल इंडस्ट्री में आये उछाल से हर माध्यम वर्ग परिवार के घर गाड़ी आ पहुंची। तो आना जाना बहुत सुगम हो गया। लेकिन भीतरी वृन्दावन तो उतना ही रहा। स्थानों का आकर तो स्थिर होता है। लोगों के बढ़ने से संकरी गलियों की सांस फूलने लगी। भीड़ तथा धक्कामुक्की से जो कुछेक दुखद घटनाएँ हुईं उन्हें दोहराने की आवश्यकता नहीं। एक आक्रोशपूर्ण प्रतिक्रिया ये हुई कि विद्वानों ने कहना आरम्भ किया कि अधिकाँश भक्त नहीं पर्यटक मात्र हैं ! बात एक हद तक ठीक होते हुए भी व्यावहारिक रूप से परीक्षणीय नहीं थी। स्टेथोस्कोप अथवा थर्मामीटर की तरह ऐसा कोई इंस्ट्रूमेंट नहीं बना जिसे हम किसी के माथे से छुवा दें  लग जाये कि वह भक्त है अथवा पर्यटक! उस भीड़ के साथ एक पूरा आर्थिक तंत्र भी आ रहा था। इस भीड़ के साथ वो विशाल आर्थिक तंत्र भी है जिससे हज़ारों लोगों को रोज़गार मिल रहा है। अब उन हज़ारों में कितने स्थानीय हैं और कितने प्रवासी इसका अनुपात ज्ञात नहीं। लेकिन उस आर्थिक तंत्र का कोई ठोस अध्ययन किये बगैर किसी भी तरह की आक्रोशपूर्ण प्रतिक्रिया भावोद्रेक भर हो सकती है। कभी कभी ऐसा भी होता है कि किसी एक समय पर यदि आने वाले लोग किसी एक ओर झुकने लगें अथवा उनका प्रवाह किसी विशेष सम्प्रदाय की ओर हो तो आंतरिक प्रतिद्वंद्विता का गुस्सा भीड़ पर निकलने लगता है। क्रोध इतना भर नहीं होता कि भीड़ आ रही है। वह इस बात से होता है कि सिर्फ़ ‘उसी ओर’ क्यों आ रही है ! लेकिन बात को भीड़ की तरफ़ घुमाकर कहा जाता है। उस पक्ष को भी देखे जाने की आवश्यकता है।

ब्रज जिस रस प्रवाह की भूमि है उससे पूरे भारत का मानस जुड़ा है। अतः ब्रज में होने वाला कोई भी परिवर्तन पूरे भारत को प्रभावित करता है।मुझ जैसे विद्यार्थी ब्रज में रहते भले नहीं लेकिन रूचि उस ओर रहती है। हालाँकि ब्रज संबंधी कुछ कहने अथवा निर्णय का अंतिम अधिकार ब्रजवासियों का ही है। 

(हिस्ट्रीपंडित डॉटकॉम के लिए यह आलेख अमनदीप वशिष्ठ ने लिखा है। अमन हरियाणा के रोहतक में रहते हैं। अमन व्यवसाय से शिक्षक हैं तथा ब्रज के इतिहास और संस्कृति संबंधी विषयों के मर्मज्ञ हैं।)

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