वृन्दावनस्थ वानरों से संवाद – अमनदीप वशिष्ठ

कुछ महीने पहले जब वृन्दावन जाना हुआ था तो यमुना किनारे एक बंदर ने चश्मा छीन लिया। फ्रूटी देने की औपचारिक रस्म निभाने के बाद मेरा बात करने का मन हुआ। शाम तनहा थी और बात करने वाला कोई न था। सो मैंने प्रशंसापूर्ण शब्द का चयन करते हुए बंदर से सम्मानपूर्वक कहा – हे वानर श्रेष्ठ ! क्या हम थोड़ी देर के लिए गुफ्तगू कर सकते हैं। बंदर कुछ देर सोचने के उपरान्त राज़ी तो हो गया लेकिन उसने एक शर्त रखी – कि मैं फ़िज़ूल की बकवास नहीं सुनूँगा। केवल अकादमिक बातचीत ही होगी। बात के समय उचित संदर्भों का प्रयोग होगा तथा किसी उद्धरण को लेकर मतभेद होने पर इंटरनेट-स्रोत मान्य नहीं होगा। केवल शोध-ग्रंथ ही मान्य होंगे। मैं बंदर की बात सुनकर हैरान रह गया। मैंने कहा कि आप उच्च शिक्षा प्राप्त वानर मालूम होते हैं। आप यहां क्या कर रहे हैं ! आपको तो किसी यूनिवर्सिटी में होना चाहिए। बंदर ने दीर्घ सॉंस लेकर कहा कि पिछले जन्म में उसने एक ऐसा घोर कर्म किया था जिसके चलते उसे वानर होना पड़ा। मेरी रुचि बढ़ गयी। इतने में पांच-सात बंदर और आ जमे। माहौल जम गया। उस वानरश्रेष्ठ ने कहना आरम्भ किया –

दरअसल पिछले जन्म में मैं रिसर्चर था। मैं समाज पर शोध करता था। लेकिन कुछ शोध मौलिक करता और बाकी शोध कॉपी-पेस्ट से करता था। समाज की कठिनाईयों पर व्याख्यान देने जाता तो मेरी एक शर्त होती कि सेमीनार हॉल एयरकंडीशन्ड हो। बेमतलब उछल-कूद मचाना मेरा काम रहा। अतः मुझे वानर का जन्म मिला। लेकिन प्रसन्नता की बात है कि मुझे ब्रज का बंदर बनने का अवसर प्राप्त हुआ है। उसका कारण ये है कि एक बार मैंने किसी ज़रूरतमंद विद्यार्थी की मदद की थी। वही पुण्य काम आ गया। अब मैं कुछ अच्छा बनने का प्रयास करूँगा। ऐसा कहकर वह गंभीर हो गया तथा फ्रूटी पीने लगा। आसपास बैठे वानरों ने अपना-अपना पूर्व जन्म का परिचय दिया। पूर्व जन्म में कोई डॉक्टर था तो कोई बड़ा अधिकारी।

थोड़ा डरते डरते मैंने पूछा कि आप वानरों की मौजूदगी का वृन्दावन की दैनन्दिन एस्थेटिक्स पर क्या प्रभाव पड़ा है। वानर गंभीर हो गए। उन्होंने कहा कि तुमने सीधे सीधे ‘रोज़मर्रा की ज़िन्दगी की सुंदरता’ न कहकर जिस तरह भारी-भरकम ‘एस्थेटिक्स’ शब्द का प्रयोग किया है उससे मालूम होता है कि तुम हमसे भी बड़े नाटकबाज़ हो। लेकिन हमें ये सुनकर मज़ा आया।

थोड़ा सांस लेकर मैंने कहा कि एक जगह न टिककर इधर उधर कूदते रहना ही मेरा मूल स्वभाव है। न तो मैं वैचारिक दृष्टि से कभी एक जगह टिका न आध्यात्मिक दृष्टि से। मैंने सब सम्प्रदायों को पढ़ा लेकिन किसी में फिट नहीं हुआ। इतना सुनते ही वहाँ मौजूद एक वानर ने मुझे गले लगा लिया और कहा – तुम मनुष्य के भेस में सच्चे वानर हो। हम तो शरीर से ही वानर हैं – तुम मानसिक वानर हो।

बहरहाल चर्चा मूल प्रश्न पर लौट आयी। एक वृद्ध वानर ने गंभीर स्वर में कहा –

हमारे कारण यहाँ अब कोई धूप में छत पर बैठकर मूंगफली नहीं खा सकता। ठंडी शीतल-मंद-सुगंध वायु चलने पर कोई भुनी मक्की लेकर बाहर नहीं आ सकता। कोई बच्चा आइसक्रीम हाथ में लिए उछलता हुआ घर नहीं जा सकता। खुले आँगन में बैठकर खाने की अवधारणा को ही हमनें समाप्त कर दिया है। दरअसल ‘खुला आँगन’ उन्ही के भाग्य में है जिनके पास लोहे का जाल लगवाने तक की आर्थिक स्थिति नहीं है। अन्यथा हमनें पूरा इंतज़ाम कर दिया है कि इक्कीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध का वृन्दावन लोहे के जाल तथा सरियों के नाम हो।

उस वृद्ध वानर ने जिस तरह तत्सम ‘पूर्वार्द्ध’ शब्द का प्रयोग किया उसे देखकर कुछ युवा बंदर मुग्ध हो उठे और उस ज्ञानवृद्ध बंदर का साधु-साधु कहकर अभिनन्दन करने लगे। ‘साधु-साधु’ सुनते ही एक साधुओं की टोली इधर आ निकली। मुझे समझाना पड़ा कि इस ‘साधु-साधु’ का अर्थ किसी की प्रशंसा करने से होता है। तब जाकर कहीं वे गए। जाते जाते कुछ चने दे गए जिसको खाकर हमारी सभा में सहज ही जलपान हो गया।

मैंने बात को आगे बढ़ाया। मैंने कहा – फ़िर उन फ़िल्मी गीतों का क्या होगा जिनमें जाड़ों की गर्म धूप आदि की चर्चाएं हैं। अथवा उन रस्मों का क्या होगा जिनमें धूप सेकती सास को उसकी बहू छत पर ही चाय-पकौड़े दे आती है। अथवा सब रिश्तेदार -संबंधी ऊपर छत पर बैठकर जलपान करते हैं तथा घर की स्त्रियाँ तथा विशेषकर बच्चे भोजन सामग्री छत पर पहुंचा आते हैं।

एक क्रांतिकारी युवा बंदर ने तुरंत उत्तर दिया – इसी तरह की श्रम आधारित असमानता से इस समाज को बचाने के लिए हमें उपद्रव करना पड़ता है। कौन ऊपर-नीचे चक्कर काटे ! सब नीचे बनाओ और चुपचाप नीचे खाओ। इस प्रकार हमने भोजन प्रक्रिया को साम्यवादी कर दिया है। अब सब समान होंगे।

उसके यह तेवर देखकर सब परिवर्तनकामी उत्साह से भर उठे।

मेरा मन भी दौड़ने लगा। मैंने उसी क्रांतिकारी बंदर से पूछा। भाई – आप मूलतः वनों में रहते थे। दक्षिण के जंगलों में तो आपकी विशेष बस्तियां थीं। वहाँ मिट्टी में आयरन ऑक्साइड होता है। इसीलिए मिट्टी लालिमा लिए रहती है। तो आपके भीतर लोहे के अंश तो होंगे ही। क्या इसीलिए आपने पूरे वृन्दावन के भवनों को लोहे के जाल आदि से भरवा दिया है। कुछ लोग आपको सुबह-सुबह फल आदि खिलाते हैं लेकिन उनके घर आश्रमों पर भी जाल लगे हैं। पूरे वृन्दावन में करोड़ों का लोहा लग गया होगा। लोहे और आपका ये कैसा संबंध है !

इतना सुनकर एक वानर ने गीत गुनगुनाया – ये बंधन तो जन्मों का बंधन है !

दूसरे वानर ने गंभीर स्वर में मुझको कहा – देखो हे मनुष्यरूपधारी वानर ! ये विषय अत्यंत गुह्य होते हैं। परन्तु तुम्हारी उच्चकोटि की मूर्खता से ज्ञात होता है कि तुम मरते ही बंदर बनोगे। अब क्योंकि तुम्हे अंततः हमारे ही परिवार में आना है तो तुम्हे बताने में कोई हर्ज़ नहीं। देखो – हम वानर भले ही हैं। पर हम डेवेलपमेन्ट चाहते हैं। हम लघु उद्योग को बढ़ावा दे रहे हैं। कोई जाल बनाएगा तो कोई उसे लादकर आएगा। उस जाल पर झूला डल सकता है। फ़िर उस पर कपड़े सुखाने में सहूलियत रहती है। जब हम उस जाल पर ज़ोर ज़ोर से कूदकर उसे कम्पायमान करते हैं तो उस शोर से मनुष्य की तन्हाई भी दूर होती है।

जैसे ही उसने ‘तन्हाई’ शब्द का प्रयोग किया तो मैं समझ गया कि इसे शायरी का भी शौक़ है।

रात होने लगी थी। सब बंदर मौन बैठे थे। इस गहरी चुप्पी को तोड़ते हुए एक शांत बंदर, जो काफ़ी देर से चुपचाप बैठा था, बोल उठा। उसने कहा –

मैं आज ही मथुरा से आया हूँ। पहले हम शांत रहते थे। परन्तु कोरोना काल में हमने वृन्दावनी बंदरों के साथ सेमीनार किये। उच्च स्तरीय वार्ताएँ हुईं। इसके बाद हमें वहाँ भी ‘चश्मे छीनो – मोबाईल लपको’ नामक पायलट प्रोजेक्ट आरम्भ किया। इस प्रोजेक्ट ने आरम्भिक दौर से ही सफलता प्राप्त की।

ये सुनकर वृन्दावनी बंदरों ने उसे ऐसे देखा जैसे कोई अध्यापक टॉपर विद्यार्थी को देखता है।

उसने आगे कहा – हमारी इस कार्यवाही से समाज में मर्यादा स्थापित हुई है। व्यापार को तेज़ी मिली है।

इतना सुनते ही बाकी बंदर आश्चर्य से उसे देखने लगे।

बंदर ने पुनः कहना आरम्भ किया – पहले कॉलेज की प्रेमिकाएँ घर से ही प्रेमियों के लिए स्वादिष्ट व्यंजन बनाकर लातीं। बदले में जब उन प्रेमिकाओं का सोमवार व्रत होता तो प्रेमी फ्रूट काटकर लंचबॉक्स में लेकर आते। यह सब पार्क अथवा कॉलेज के लॉन में होता। इस सबसे मर्यादा का हनन हो रहा था। अब वे सब चुपचाप किसी रेस्टोरेन्ट में पिज़्ज़ा खाते हैं। इससे व्यापार को भी बढ़ावा मिलता है।

यह सब सुनकर बंदरों में एक बौद्धिक भाव की लहर दौड़ गयी।

रात बहुत हो चली थी। मैंने कुछ ऐसा भाव दिखाया कि चलने का समय हो गया है। एक बुज़ुर्ग वानर ने मेरा भाव पढ़ लिया। उसने कहा – “जाने से पहले असल बात सुनते जाओ। इस भूमि पर हम वानर तबसे हैं जब तुम नहीं थे। तुम्हारी प्रचंड मूर्खताओं के कारण ही हमें इस तरह का व्यवहार अपनाना पड़ा। कम्प्यूटर पर फिल्में देखने की बजाय कभी उन शोधपत्रों को पढ़ो जिनमें हमारे व्यवहार की मीमांसा हो। तुम मनुष्य जहाँ भी पहुंचे तुमने अन्य प्राणियों को वहाँ से खदेड़ दिया। तुम लोगों का इतिहास आक्रामकता और लोभ का इतिहास है। वनों को नष्ट करना तो तुम लोगों का प्रिय शगल है। जाओ और हमें कोसने के बजाय अपने व्यवहार पर आत्मालोचन करो। ठाकुरजी की इस भूमि पर जितना अधिकार तुम्हारा है सो उतना हमारा भी। अधिक क्या कहें। थोड़े कहे में ज़्यादा समझो।”

मुझे ऐसे कड़े उत्तर की आशा नहीं थी। सो मैं चुप रहा। मेरी स्थिति देखकर उस बुज़ुर्ग वानर को दया आ गयी। उसने बचे हुए चने मुझे दिए और कहा – मार्ग में इन्हें खा लेना और फ़िज़ूल विचार करने की बजाय कुछ देर हरिनाम जपना। सद्बुद्धि आएगी।

मैं उन सबको प्रणाम कर वापिस घाट की सीढ़ियां चढ़ने लगा।

अमनदीप वशिष्ठ

(हिस्ट्रीपंडित डॉटकॉम के लिए यह आलेख अमनदीप वशिष्ठ ने लिखा है। अमन हरियाणा के रोहतक में रहते हैं। अमन व्यवसाय से शिक्षक हैं तथा ब्रज के इतिहास और संस्कृति संबंधी विषयों के मर्मज्ञ हैं।)

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