मथुरा की कहानी भाग सत्रह

पूर्व कथा

पिछले भागों में हम यदुवंश, श्रीकृष्ण की कथा, महाजनपदकाल, मौर्य साम्राज्य, शुंगवंश, मथुरा के मित्रवंश, मथुरा के शक, दत्त, कुषाण, नाग, गुप्त वंश, कन्नौज के मौखरि, हर्षवर्धन, कन्नौज के गुर्जर-प्रतीहार, महमूद गजनवी का आक्रमण, कन्नौज के गाहड़वाल, दिल्ली सल्तनत के गुलाम, खिलजी, तुगलक, सैय्यद एवं लोदी आदि वंशों के बाद मुगल वंश के बाबर, हुमायूं, सूरी वंश के शेरशाह आदि की कहानी बता चुके हैं। इसके बाद अकबर की उदार नीति से ब्रज में वैभव का संचार हुआ। उसके बाद की कहानी औरंगजेब की है जो ब्रज के लिए एक काले अध्याय से कम नहीं है। औरंगजेब के बाद ब्रज के जाटों ने मजबूत सत्ता स्थापित की। जाट नेता चूड़ामन और बदनसिंह ने जाट शक्ति को चरम पर पहुंचाया। इसके बाद एक नक्षत्र की भांति सूरजमल का उदय हुआ। अब आगे…

अब्दाली का पुनः आक्रमण

मई 1757 ईस्वी में मराठों ने आगरा पहुंचकर सूरजमल से समझौता कर लिया। अब जाटों की सहायता से उन्होंने रुहेलों से फिर से दोआब छीन लिया। इसके बाद उन्होंने दिल्ली को जा घेरा। रुहेला सरदार नजीब ने युद्ध करना उचित न समझा और उनसे सन्धि कर ली। नजीब चाहता था कि अब्दाली से मिलकर मराठों के साथ एक स्थायी संधि करा दे, परन्तु मराठे इस पर राजी न हुए। दिल्ली पर अधिकार करने के बाद मराठे पंजाब की और बढ़े। अब्दाली का पुत्र तैमूर और जहान खां भागकर सिंध के पार चले गए। अब प्रायः सारे पंजाब पर मराठों का अधिकार हो गया था, उन्होंने अदीना बेग को अपना प्रतिनिधि नियुक्त किया। इस प्रकार मराठों ने अब्दाली को अपना कट्टर शत्रु बना लिया। अक्टूबर 1759 ईस्वी में अब्दाली ने भारत पर फिर चढ़ाई की। मराठे रुहेलों तथा अवध के नवाब के साथ लड़ाइयों में उलझे रहे और अपनी शक्ति और समय को नष्ट करते रहे। इसी समय इमाद ने आलमगीर की हत्या कर उसके स्थान पर कामबक्श के पोते को दिल्ली का बादशाह बना दिया। परन्तु मराठों ने आलमगीर के लड़के शाहआलम को बादशाह स्वीकार किया। 9 जनवरी 1760 ईस्वी को अब्दाली की फौज से मराठों की मुठभेड़ दिल्ली के सामने हुई। मराठों का नेता दत्ताजी इस लड़ाई में मारा गया। अब्दाली ने दिल्ली पर पूरा कब्जा कर लिया। इमाद डरकर भरतपुर भाग गया। अब्दाली ने फिर डीग पर आक्रमण किया। उस समय सूरजमल वहीं था। मराठों की सेना का नेतृत्व अब मल्हारराव ने ग्रहण किया और वह दिल्ली की ओर चल पड़ा। अब्दाली दोआब की ओर लौट गया और उसने अनूपशहर में अपनी छावनी डाल दी। अब दोनों ओर से युद्ध की तैयारी होने लगी। दक्षिण से सदाशिव राव भाऊ मराठों की एक बड़ी सेना लेकर आ पहुंचा। उसने अफगानों के खिलाफ राजपूतों से सहायता मांगी, पर वह प्राप्त नहीं हुई। भाऊ ने बिना किसी अधिक प्रयास के दिल्ली पर अधिकार कर लिया। इसी समय भाऊ और सूरजमल के बीच कुछ मनमुटाव हो गया। भाऊ ने सूरजमल को कैद करने की योजना बनाई पर होलकर और सिंधिया ने सूरजमल को समय रहते सचेत कर दिया। सूरजमल भाऊ का साथ छोड़कर अपने राज्य को लौट आया।

पानीपत का युद्ध

एक नवम्बर 1760 ईस्वी को पानीपत के प्रसिद्ध मैदान में मराठा और अफगान फौजें आ डटीं थीं। मराठों की सेना 45 हजार थी, जबकि अब्दाली की सेना 62 हजार थी। अब्दाली को रुहेलों का भी समर्थन हासिल था। दो महीने तक दोनों ओर की सेनाएं बिना युद्ध किये पड़ीं रहीं। 1761 ईस्वी के प्रारंभ में घमासान युद्ध हुआ, जिसमें दोनों दलों का भारी संहार हुआ। अंत में मराठों का भारी संहार हुआ और उनके कई बड़े सैनिक मारे गए। बहुत से मराठा सैनिकों ने भागकर ब्रज में शरण ली। इस समय सूरजमल मथुरा में ही विद्यमान था। 20 मार्च को अब्दाली दिल्ली से वापस चल दिया। दिल्ली का अधिकारी उसने नजीब की बनाया और लाहौर में भी अपना प्रतिनिधि नियुक्त कर दिया।

मथुरा का शांति सम्मेलन

पानीपत के युद्ध के बाद भविष्य में शांति बनाए रखने के उद्देश्य से मथुरा में एक सभा हुई। इसमें अफगानों तथा रुहेलों के अतिरिक्त जाट, मराठा तथा मुगल प्रतिनिधियों ने भाग लिया। परन्तु इस सम्मेलन का कोई स्थाई फल नहीं निकला। सूरजमल शांति के पक्ष में नहीं था। वह तत्कालीन परिस्थिति का लाभ उठा कर अपना अधिकार बढ़ाना चाहता था। जुलाई 1761 ईस्वी में उसने आगरा के किले पर कब्जा कर लिया और अगले दो वर्षों में उसने जाट शक्ति को बहुत मजबूत कर लिया।

सूरजमल की मृत्यु

आगरा जीतने के बाद सूरजमल ने मेवात पर भी अधिकार कर लिया। वहां से वह गुड़गांव की ओर बढ़ने लगा। वह चाहता था कि हरियाणा प्रदेश को भी जीतकर ब्रज में मिला लिया जाए। परन्तु सूरजमल की यह इच्छा पूरी न हो सकी। रुहेले उसके कट्टर शत्रु थे। इस समय रुहेलों की शक्ति भी बढ़ी हुई थी। उनका सरदार नजीब दोआब तथा दिल्ली प्रदेश का स्वामी बन गया था शहादरा के पास रुहेलों के साथ युद्ध के दौरान 25 दिसम्बर 1763 ईस्वी को संध्या के समय सूरजमल की मृत्यु हो गई।

जवाहरसिंह (1763 – 68 ईस्वी)

सूरजमल की मृत्यु के बाद उसका बड़ा पुत्र जवाहरसिंह ब्रज का स्वामी हुआ। वह बड़ा बहादुर था पर उसके बर्ताव से कुछ प्रमुख जाट सरदार उससे नाराज हो गए थे। नवम्बर 1764 ईस्वी में जवाहरसिंह ने अपने पिता की हत्या का बदला लेने के लिए दिल्ली पर हमला कर दिया। जवाहरसिंह ने मराठों और सिखों से भी सहायता ली थी। तीन महीने तक दिल्ली का घेरा पड़ा रहा। इस बीच मराठों के नेता मल्हार ने चुपके से रुहेलों के सरदार नजीब से सुलह कर ली। इसके परिणामस्वरूप जवाहरसिंह को दिल्ली से घेरा हटाना पड़ा। अब वह अपने विरोधियों से बहुत रुष्ट हो गया और जीवन पर्यंत उनसे बदला लेने के ही प्रयत्न करता रहा। 1765 ईस्वी में जयपुर के शासक से जवाहर ने युद्ध छेड़ दिया। इस लड़ाई में दोनों ओर के बहुत से वीर सैनिक मारे गए। जून 1768 ईस्वी में जवाहरसिंह के एक सैनिक ने आगरा में धोखे से उसकी हत्या कर दी। उसकी मृत्यु से जाट शक्ति को गहरा धक्का पहुंचा। उसके उत्तराधिकारियों में ऐसा कोई न हुआ जो विस्तृत ब्रज प्रदेश में जाट सत्ता जमाये रखता। जाटों की शक्ति घटती गई और धीरे-धीरे उनका अधिकार क्षेत्र भी सीमित हो गया।

जवाहरसिंह ने अपनी सेना को यूरोपीय ढंग से प्रशिक्षित करने का कार्य किया था। उसने समरू तथा मेडिक नामक दो यूरोपीय सेनानायकों को अपनी सेना में उच्च पदों पर नियुक्त किया था। उसने अपने पिता की स्मृति में गोवर्धन में कुसुम सरोवर के तट पर उनका स्मारक भी बनवाया था। 

ब्रज की तत्कालीन शासन व्यवस्था

बदनसिंह, सूरजमल और जवाहरसिंह तक विस्तृत ब्रज प्रदेश पर जाटों का आधिपत्य रहा। ये तीनों वीर और प्रतिभाशाली थे। यद्यपि तत्कालीन राजनीतिक परिस्थितियों के कारण इन्हें अनेक लड़ाइयों में भाग लेना पड़ा तो भी ब्रज प्रदेश की रक्षा और शासन व्यवस्था की ओर इन्होंने पूरा ध्यान दिया। ब्रज के शासन प्रबन्ध में जाट शासकों के द्वारा अनेक उपयोगी कार्य किये गए। अकबर के राज्यकाल में जो भूमि व्यवस्था हुई थी उसमें अब अनेक परिवर्तन किए गए। सहार अकबर के समय पर एक बड़ा परगना था। अब उसके चार भाग किये गए – सहार, शेरगढ़, कोसी तथा शाहपुर। मंगोतला परगना भी दो भागों में बांट दिया गया, जिनके नाम सौंख तथा सौंसा हुए। फरह का एक नया परगना बना। मुरसान, सहपऊ और मांट के परगने भी संभवतः इसी समय बने। जाटों की शासन व्यवस्था भी अन्य भारतीय राजाओं जैसी ही थी। प्रभावशाली सरदारों को जागीरें दी गईं। ये सरदार केंद्रीय कोष में मालगुजारी पहुंचाते थे और राज्य की रक्षा में सहायता देते थे। उक्त तीनों शासकों के राज्यकाल में भरतपुर, डीग, कुम्हेर आदि स्थानों में मजबूत किलों का निर्माण हुआ। जाट राजाओं ने ब्रज के सांस्कृतिक स्थलों की रक्षा में जो महत्त्वपूर्ण योग दिया वह इतिहास में चिर स्मरणीय रहेगा। मथुरा, वृन्दावन, गोवर्धन, कामवन आदि अनेक स्थानों में इन शासकों के द्वारा अनेक धार्मिक कार्य निष्पन्न किये गए। गिरिराज गोवर्धन की महत्ता इनके समय में बहुत बढ़ी। वहां अन्य इमारतों के साथ साथ कई कलापूर्ण छतरियां भी बनाई गईं। 

परवर्ती जाट शासक

जवाहरसिंह की मृत्यु के बाद उसका छोटा भाई रतन सिंह शासक हुआ। वह अपने पूर्वजों के विपरीत आरामपसंद राजा था। 1769 ईस्वी में उसने वृन्दावन की यात्रा की और यमुना के किनारे एक बड़े उत्सव का आयोजन किया। इसमें चार हजार नर्तकियां बुलाई गईं। उसने गोसाईं रूपानंद नामक एक ब्राह्मण को अपने कोष का बहुत सा धन सौंप दिया था। यह ब्राह्मण अपने आप को बड़ा करामाती बताता था। उसने रतन सिंह को लालच दिया कि वह उसे पारस पत्थर की प्राप्ति करा देगा। एक दिन वह राजा को मामूली धातुओं से सोना बनाने का हुनर दिखा रहा था। इस बीच मौका पाकर गोसाईं ने राजा को मार डाला (8 अप्रैल 1769 ईस्वी)। 

भरतपुर राज्य का गृहयुद्ध

रतन सिंह का पुत्र केसरी सिंह अभी बहुत छोटा था अतः रतन सिंह का भाई नवलसिंह उसका प्रतिनिधि बनकर राज व्यवस्था सम्भालने लगा। इस पर उसके दूसरे भाई रणजीत सिंह ने कुछ लोगों को भड़काकर अपने पक्ष में कर लिया। इस तरह से जाट राज्य सत्ता अब घरेलू झगड़े में फंसकर रह गई। रणजीत सिंह ने मराठों से भी सहायता प्राप्त की। 1769 ईस्वी में नए पेशवा माधवराव ने एक बड़ी फौज उत्तर भारत में भेजी। रुहेलों ने भी मराठों से सन्धि कर ली। 5 मार्च 1770 ईस्वी के दिन रणजीत सिंह ने मराठा सरदारों से भेंट की। उसकी सहायता के लिए मराठों की तीस हजार सेना ने कुम्हेर को घेर लिया। मराठों ने सहायता के एवज में रणजीत सिंह से जिस धन की मांग की थी रणजीत सिंह उसे पूरा नहीं कर पा रहा था। इस पर मराठा सेना जाट क्षेत्र में लंबे समय तक व्यर्थ में पड़े पड़े परेशान हो गई थी। वहीं नवल सिंह भी डीग के किले में बैठा हुआ यह निर्णय नहीं कर पा रहा था कि वह मराठों से युद्ध करे या उन्हें खरीद ले। 

सौंख-अडींग का विनाशकारी युद्ध

लगातार पड़े हुए मराठों ने समय खराब करने के स्थान पर अपने अभियान पर आगे दोआब जाने का निर्णय किया। तुकोजी होल्कर ने नेतृत्व में मराठा सेना कुम्हेर से मथुरा की तरफ बढ़ने लगी। शत्रुओं को अपने राज्य से इस तरह सुरक्षित जाते देख नवल सिंह का धैर्य जवाब दे गया और उसने इस सेना का पीछा कर आक्रमण करने का निश्चय किया। नवल सिंह आनन फानन में अपनी सेना लेकर गोवर्धन के रास्ते से आगे बढ़ा। जाट सेना को आता देख मराठे भी सौंख के पास रुक गए। 6 अप्रैल 1770 ईस्वी को दोपहर के बाद यह युद्ध लड़ा गया। यह युद्ध जाट सेना के लिए विनाशकारी साबित हुआ। करीब दो हजार जाट सैनिक इस युद्ध में मारे गए और बड़ी संख्या में घायल हुए। उनके दो हजार घोड़े और तेरह हाथी मराठों के हाथ लग गए। नवलसिंह को युद्ध के मैदान से भागकर अडींग के किले में शरण लेनी पड़ी। मराठों द्वारा पीछा किये जाने पर वह अडींग को छोड़कर डीग भाग आया। मराठों ने गोवर्धन तक उसका पीछा किया। 

मराठों का दिल्ली पर कब्जा

सौंख-अडींग के युद्ध में विजय के बाद मराठों ने दोआब के एक बड़े भाग पर अधिकार कर लिया। नजीब की मृत्यु के बाद रुहेलों ने भी उनसे संधि कर ली। अब मराठों का अधिकार इटावा तक हो गया। मराठों की बढ़ती हुई शक्ति से अवध का नवाब भी घबराने लगा था। 1771 ईस्वी में मराठों ने दिल्ली पर भी कब्जा कर लिया। मुगल बादशाह शाहआलम ने अब अपने आप को मराठों के हाथों में सौंप दिया था। इस तरह अब मराठों की शक्ति उत्तर भारत में सबसे अधिक बढ़ी हुई थी। नवम्बर 1772 ईस्वी में माधवराव पेशवा की मृत्यु से मराठा शक्ति को धक्का पहुंचा। उसके बाद उसका छोटा भाई नारायण राव पेशवा हुआ। पर अंग्रेजों के षड्यंत्र से वह मारा गया (30 अगस्त 1773 ईस्वी)। अब उत्तराधिकार के लिए मराठा राज्य में गृह कलह ने जोर पकड़ा। नाना फड़नीस आदि सरदारों ने नारायण राव के शिशु पुत्र सवाई माधवराव का पक्ष लिया, परन्तु कुछ अन्य मराठा सरदारों ने अंग्रेजों के साथ मिलकर राघोबा का पक्ष लिया। इस आपसी झगड़े से अंग्रेजों को अपनी शक्ति बढ़ाने का अच्छा अवसर मिल गया। 

(आगे किश्तों में जारी)

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