यह मथुरा की कहानी है! यह मथुरा के इतिहास, कला, संस्कृति और राजनीति की समग्र जानकारी है! इस कहानी में आप पौराणिक संदर्भों से शुरू करके मथुरा के वर्तमान स्वरूप तक पहुंचेंगे। कहानी मथुरा की है और मथुरा एक अतिप्रतिष्ठित प्राचीन नगर रहा है। प्राचीन सप्तपुरियों में से एक रहा है।
महाजनपद काल में यह सोलह महाजनपदों में से प्रमुख महाजनपद शूरसेन की राजधानी रहा है। यह नगर श्रीकृष्ण का जन्मस्थान रहा है इस वजह से यह हिन्दू संस्कृति का प्रधान केंद्र रहा है। बौद्ध और जैन धर्म भी यहां विकसित हुए हैं। बाद में यह क्षेत्र वैष्णव संप्रदायों का केंद्र बना और यहां से निकले प्रकाश ने भारतवर्ष को आलोकित किया। मथुरा की प्रसिद्ध मूर्तिकला यहां से विकसित होकर समूचे भारतीय उपमहाद्वीप में फैली।
मथुरा की कहानी के सन्दर्भ/स्रोत
खैर इस महान नगरी के बारे में जितना कहें उतना ही कम है अतः भूमिका को विस्तार न देकर सीधे कहानी पर आते हैं।
सबसे पहले बात करते हैं उन स्रोतों की जिनसे छनकर यह कहानी निकलती है।
ये सन्दर्भ स्रोत तीन प्रकार के हैं :
- साहित्यिक सामग्री
- पुरातत्वीय अवशेष
- विदेशी यात्रियों के वृत्तांत
साहित्यिक सामग्री
मौर्य साम्राज्य के पहले के बारे में जानने के मुख्य स्रोत यह साहित्यिक विवरण ही हैं। प्राचीन वैदिक साहित्य में मथुरा या शूरसेन जनपद के उल्लेख नहीं मिलता है। परवर्ती वैदिक साहित्य से मथुरा या शूरसेन जनपद के विवरण मिलने प्रारंभ होते हैं।
शतपथ ब्राह्मण, वंश ब्राह्मण, छान्दोग्य उपनिषद, वृहदारण्यक उपनिषद आदि ग्रंथों से यहां के प्राचीन राजवंशों के बारे में जानकारी मिलनी शुरू होती है। यहां से मथुरा की कहानी की एक झलक दिखाई देनी शुरू हो जाती है।
वाल्मीकि रामायण और महाभारत
इन ग्रंथों से सूर्य वंश और चन्द्र वंश के राजाओं के बारे में विस्तृत जानकारी मिलनी शुरू होती है। वाल्मीकि रामायण में अयोध्या के सूर्यवंशी राजाओं (राम के छोटे भाई शत्रुघ्न) द्वारा इस क्षेत्र पर अधिकार करने की जानकारी मिलती है। बाद में इस क्षेत्र पर पुनः यदुवंशी शासकों के आधिपत्य का विवरण भी मिलता है।
महाभारत में श्रीकृष्ण के सम्पूर्ण जीवन चरित्र का वर्णन मिलता है और महाभारत के युद्ध का विवरण भी मिलता है। इसके साथ-साथ उस दौर के शूरसेन जनपद की राजनीतिक और सामाजिक दशा भी ज्ञात होती है।
अब आते हैं पुराण
शूरसेन जनपद का सर्वाधिक वर्णन पुराणों में मिलता है। पुराण बहुत से हैं जो अलग-अलग समयों पर लिखे गए थे। इनमें प्राचीनतम अनुश्रुतियों से लेकर मध्यकाल तक कि घटनाओं का भरपूर विवरण मिलता है।
हरिवंश पुराण, विष्णु पुराण, मत्स्य पुराण, भागवत पुराण, वाराह पुराण, पद्म पुराण, और ब्रह्मबैवर्त पुराण आदि में ब्रज का भौगोलिक व प्राकृतिक वर्णन विस्तार से मिलता है। पुराणों में प्राचीन वंशावली, युद्ध, धर्म, दर्शन, कला और सामाजिक ताने-बाने की सरंचना समझ आती है।
परवर्ती संस्कृत साहित्य
मनुस्मृति और अन्य बहुत से स्मृति ग्रंथों के साथ साथ काव्य, नाटक, चम्पू और आख्यायिका आदि परवर्ती संस्कृत साहित्य के अंतर्गत आते हैं। संस्कृत के बहुत से साहित्यकारों ने श्रीकृष्ण के चरित्र पर बहुत कुछ लिखा है। कालिदास ने अपने ग्रंथों में मथुरा, वृन्दावन और गोवर्धन आदि का उल्लेख किया है।
जैन और बौद्ध साहित्य
मथुरा में बौद्ध और जैन दोनों ही धर्मों का खूब विकास हुआ था। प्राचीनकाल में यहां इन दोनों धर्मों की दशा उन्नत थी और यहां उनके बहुत से धर्मस्थल मौजूद थे। इस वजह से इन धर्मों के ग्रंथों में भी मथुरा के बारे में बहुत सी जानकारी मिलती है। गौतम बुद्ध स्वयं मथुरा आये थे। जैन और बौद्ध धर्मों के साहित्य से यहां की सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और धार्मिक स्थिति पर खासा प्रकाश पड़ता है।
पुरातत्वीय अवशेष
इनके अंतर्गत मूर्तियां, चित्र, अभिलेख, सिक्के आदि आते हैं। यह सामग्री अलग-अलग समय पर यहां उत्खनन कर प्राप्त की गई है। इससे प्राचीन राजाओं के वंश, उनकी धार्मिक मान्यता, उनका शासनकाल आदि बहुत से सवालों के जवाब मिलते हैं। ईस्वी पूर्व चौथी शती से लेकर ईस्वी बारहवीं शती तक की जानकारी इन पुरातत्वीय अवशेषों से होती है।
मौर्य, शुंग, कुषाण, नाग, गुप्त, गुर्जर-प्रतिहार, गाहड़वाल आदि वंशों की जानकारी इनसे मिलती है। मथुरा की प्रसिद्ध मूर्तिकला की जानकारी भी होती है साथ ही पुरातत्वीय अवशेषों से बौद्ध, जैन और भागवत धर्मों की तात्कालिक स्थिति भी ज्ञात होती है।
विदेशी यात्रियों के यात्रा वृत्तांत
इस श्रेणी के अंतर्गत उन यात्रियों के यात्रा वृत्तांत आते हैं जो यात्री अलग-अलग समयों पर भारत में आये और अपनी यात्रा के दौरान उन्होंने मथुरा की यात्रा भी की। बाद में यहां का आंखों देखा विवरण उन्होंने अपनी पुस्तकों में लिखा। यह विवरण बहुत महत्वपूर्ण है। अलग-अलग समय पर अलग-अलग स्थानों के यात्री यहां आए थे।
यूनानी यात्रियों के विवरण
ईस्वी पूर्व चौथी शती में यूनान से मेगस्थनीज भारत आया था। वह अपनी यात्रा के दौरान मथुरा भी आया था। उसके लिखे विवरण को बहुत से यूनानी लेखकों ने अपनी पुस्तकों में वर्णित किया है। ईस्वी पूर्व दूसरी शती में यूनानी लेखक एरियन ने अपनी पुस्तक में मेगस्थनीज का आंखों देखा विवरण दर्ज किया है। ईस्वी पहली शती में यूनानी लेखक प्लिनी एयर टॉलमी ने भी इस तरह के विवरण लिखे हैं।
चीनी यात्रियों के विवरण
चीनी यात्रियों में फाहियान और ह्वेनसांग प्रमुख हैं। फाहियान ईस्वी 400 में भारत आया था और मथुरा भी पहुंचा था। ह्वेनसांग ईस्वी सातवीं शती में आया था। इन दोनों के विवरणों में मथुरा का विस्तार से उल्लेख मिलता है। खासतौर पर बौद्ध धर्म से सम्बंधित बहुत सी बातें इनके विवरणों से ज्ञात होती हैं। इन्होंने शूरसेन जनपद के भौगोलिक वर्णन भी विस्तार से किया है।
मुसलमान एवं यूरोपीय लोगों के विवरण
मुसलमान यात्रियों में अल बरूनी, अल उल्वी, अल बदायूंनी, अबुल फजल, मोहम्मद कासिम फरिश्ता के विवरण महत्त्वपूर्ण हैं। वहीं यूरोपीय लोगो में टैवेनियर, बर्नियर और मनूची आदि के विवरण महत्त्वपूर्ण हैं।
क्यों नाम पड़ा शूरसेन
इस क्षेत्र को जिसे वर्तमान में ब्रज क्षेत्र के नाम से जाना जाता है, पूर्व में शूरसेन कहा जाता था। मथुरा नगर इस शूरसेन प्रदेश की राजधानी था। यह जानना आवश्यक है कि इस क्षेत्र का नाम शूरसेन क्यों पड़ा था। पौराणिक संदर्भों पर दृष्टिपात करें तो शूर या शूरसेन से मिलते जुलते चार नाम सामने आते हैं।
पहला हैहयवंशी कार्त्तवीर्य अर्जुन का पुत्र शूरसेन।
दूसरा भीम सात्वत के का परनाती शुर राजाधिदेव।
तीसरा श्रीराम के छोटे भाई शत्रुघ्न का छोटा पुत्र शूरसेन।
चौथे श्रीकृष्ण के पितामह शूर।
इनमें से पहले हैहयवंशी कार्त्तवीर्य अर्जुन के पुत्र शूरसेन का ब्रज से कोई संबंध नहीं है। दूसरे भीम सात्वत के पुत्र का नाम शूर राजाधिदेव है और चौथे श्रीकृष्ण के पितामह का नाम भी सिर्फ शूर है अतः ये शब्द शूरसेन शब्द से अलग हैं। शत्रुघ्न के पुत्र शूरसेन के नाम पर ही इस प्रदेश का नामकरण शूरसेन पड़ा।
प्राचीन साहित्यिक अभिलेखों के अनुसार शूरसेन जनपद के रूप शत्रुघ्न के समय पर ही या उनकी मृत्यु के बाद ही स्थिर हो चुका था। शत्रुघ्न करीब 12 वर्ष तक इस प्रदेश के शासक रहे थे। तमाम विद्वानों का मत है कि उन्होंने अपने छोटे पुत्र शूरसेन के नाम पर इस जनपद के नामकरण कर दिया था।
(आगे किश्तों में जारी)