मथुरा की कहानी भाग दो


(सूर्यवंश, चंद्रवंश, यदुवंश, श्रीकृष्ण जन्म, महाभारत युद्ध और प्रभास का युद्ध)

पिछले भाग में हमने जाना था कि किस तरह इस मथुरा जनपद का नाम शूरसेन पड़ा था अब चलते हैं उससे आगे।

शुरुआत करते हैं। एक सवाल आया था कि कब तक यह क्षेत्र शूरसेन के नाम से जाना जाता रहा। तो हम जानते ही हैं कि शत्रुघ्न के समय से इस क्षेत्र को शूरसेन नाम मिला। यह नाम बहुत लंबे समय तक चलन में रहा। ईसवी सम्वत की शुरुआत के समय यह नाम बदलता दिखता है। शक और कुशाण शासकों के समय पर इस प्रदेश को यहां की राजधानी या यूं कहें कि मुख्य शहर मथुरा के नाम पर मथुरा जनपद ही कहा जाने लगा। इसके बाद शूरसेन शब्द मिलना बंद हो जाता है। 

खैर, कहानी को आगे बढ़ाते हैं…

शुरू करते हैं महाराजा मनु से


मनु के बड़े पुत्र का नाम था इक्ष्वाकु। इक्ष्वाकु से सूर्यवंश शुरू हुआ। अयोध्या के राजा हुए…इस वंश के कई प्रतापी राजा हुए। स्वयं भगवान श्रीराम का जन्म भी इन्ही के वंश में हुआ।

मनु की एक पुत्री थीं, इला। 

इला का विवाह चन्द्रमा के पुत्र बुध के साथ हुआ। इनका पुत्र हुआ पुरुरवा। यह एक प्रतापी राजा हुए। इन पुरुरवा से ही चन्द्रवंश शुरू होता है। 

इन पुरुरवा की चौथी पीढ़ी में ययाति का जन्म हुआ। ययाति का वर्णन एक प्रतापी राजा के तौर पर मिलता है। ययाति की दो पत्नियां थीं… देवयानी और शर्मिष्ठा।

यदुवंश की शुरूआत


 देवयानी के पुत्र का नाम था यदु और शर्मिष्ठा के पुत्र का नाम था पुरु। हालांकि यदु बड़े थे और पुरु छोटे थे पर यदु से किसी बात पर रुष्ट होकर ययाति ने यदु के बजाय पुरु को प्रतिष्ठानपुर का राज्य दिया। यदु ने चर्मण्वती (चम्बक), बेत्रवती (बेतवा) और शुक्रमती (केन) नदियों के मध्य के भूभाग पर अपना राज्य स्थापित किया। यदु के वंशज यादव कहलाए। यहां से यदुवंश शुरू हुआ। इसी यदुवंश की 61 पीढ़ियों ने मथुरा प्रदेश पर राज्य किया। यदुवंश की 61वीं पीढ़ी में एक प्रतापी राजा हुआ जिसका नाम था मधु। मधु के पुत्र का नाम था लवण। 

बाद में मथुरा में एक और शासक का नाम आता मधु। पर यह मधु दैत्य है इसके पुत्र का नाम भी लवण है। पर यह लवण लवणासुर है। यह मधु दैत्य और लवणासुर उस समय के हैं जब अयोध्या में प्रभु श्रीराम का राज्य था। यह तो साफ है कि ये मधु दैत्य और लवणासुर पूर्ववर्ती यदुवंशी राजा मधु और उसके पुत्र लवण से अलग हैं। पर यह साफ नहीं हैं कि ये मधु दैत्य या लवणासुर किस वंश के थे और मथुरा पर इनका आधिपत्य कब हुआ।

शत्रुघ्न का शूरसेन पर आधिपत्य


बहरहाल, अब कहानी पहुंची लवणासुर पर। यह लवणासुर बहुत ही शक्तिशाली शासक बताया गया है। जब श्रीराम ने रावण का वध किया तब यह उनसे बहुत नाराज हुआ। इसने श्रीराम को एक पत्र भी लिखा कि रावण का वध करके उन्होंने अच्छा नहीं किया। और उसने ललकारा भी कि अगर आप इतने ही वीर हैं तो आप मुझसे युध्द करिये। मैं तो आपका सीमावर्ती राजा भी हूँ। 

कुछ घटनाओं का अलग से जिक्र भी मिलता है जैसे लवणासुर के राज्य में ऋषि मुनियों पर अत्याचार हो रहा था। उनकी हत्या की जा रही थी। उन्हें यज्ञ तपस्या आदि करने पर प्रताड़ित किया जा रहा था। इससे ये ऋषि मुनि दुःखी होकर श्रीराम की शरण मे चले गए। इन ऋषियों ने श्रीराम से अपनी रक्षा की गुहार लगाई।

श्रीराम ने अपने सबसे छोटे भाई शत्रुघ्न को मथुरा पर चढ़ाई करने भेजा। शत्रुघ्न अपनी सेना लेकर अयोध्या से प्रयाग पहुंचे। प्रयाग से यमुना के किनारे चलते हुए मथुरा पहुंच गए। लवणासुर के समय पर मथुरा का वर्णन एक मजबूत सुरक्षित शहर के रूप में मिलता है। एक बड़ा सुरक्षित दुर्ग और नगर वासियों के पक्के मकान। कुल मिलाकर एक सुंदर और संपन्न नगर। शत्रुघ्न ने लवणासुर को युद्ध मे पराजित करके मार डाला। इस तरह मथुरा पर इक्ष्वाकु वंश का आधिपत्य हो गया। शत्रुघ्न ने बारह वर्ष तक मथुरा पर राज्य किया। उसी समय उन्होंने इस प्रदेश का नाम शूरसेन रखा। शत्रुघ्न के बाद उनके पुत्र सुबाहु ने यहां शासन किया। 

अंधक और वृष्णि संघ


कुछ समय बाद यदुवंशियों ने इक्ष्वाकुओं से यह प्रदेश वापस छीन लिया। इस प्रदेश में फिर से यदुवंश की स्थापना करने वाला था भीम सात्वत। यह भीम सात्वत यदुवंशी सत्वान का पुत्र था। 

भीम सात्वत के दो पुत्र हुए अंधक और वृष्णि। अंधक का वंश उसके नाम पर अन्धकवंश कहलाया। अंधक के वंशजों ने मथुरा पर राज किया। वृष्णि का वंश वृष्णिवंश कहलाया। इन्होंने द्वारका पर राज स्थापित किया। अंधक के वंश में आगे चलकर उग्रसेन का जन्म हुआ वहीं वृष्णि के वंश में वसुदेव का जन्म हुआ। यह उग्रसेन कंस के पिता थे वहीं वसुदेव श्रीकृष्ण के पिता थे।

कंस का स्वेच्छाचारी शासन


अब थोड़ी सी चर्चा करते हैं उस समय की भारतीय उपमहाद्वीप की राजनीतिक परिस्थितियों पर। उन दिनों यहां गणराज्य प्रणाली थी। राजा का पद वंशानुगत तो था पर वह स्वेच्छाचारी नहीं हो सकता था। प्रभावशाली सामन्तों और मंत्रिपरिषद की सलाह उसे माननी ही पड़ती थी। लेकिन कंस के समय कुछ गणराज्यों में यह प्रणाली खत्म होने लगी थी। मगध का राजा जरासन्ध निरंकुश शासक बन चुका था। चेदिराज शिशुपाल भी निरंकुश और स्वेच्छाचारी बन गया था। इन लोगों की देखादेखी कंस भी निरंकुश राजा बनने के सपने देखने लगा। कंस जरासंध का रिश्तेदार भी था। जरासंध की दो पुत्रियां अस्ति और प्राप्ति कंस की पत्नियां थीं। अपनी ससुराल वालों के भड़काने पर कंस ने भी आखिर मथुरा की शूरसेन प्रदेश की गणराज्य प्रणाली को नष्ट कर ही दिया। उसने अपने पिता उग्रसेन को गद्दी से हटाकर कैद कर लिया और स्वयं राजा बन गया। 

वसुदेव-देवकी का विवाह


उस समय शूरसेन गणराज्य की वास्तविक शक्ति और संचालन अंधक-वृष्णि संघ के हाथ मे थी। वसुदेव वृष्णियों में सबसे ताकतवर और प्रभावशाली व्यक्ति थे। वसुदेव की बुआ बहन कुंती का विवाह हस्तिनापुर के राजा पांडु के साथ हुआ था। कंस ने वसुदेव के साथ मधुर सम्बन्ध बनाए। उसने अपनी चचेरी बहन देवकी का विवाह वसुदेव के साथ कर दिया। 

वसुदेव-देवकी के विवाह के अवसर पर एक भविष्यवाणी हुई कि देवकी की आठवीं संतान के हाथों कंस का वध होगा।

इस आकाशवाणी के बाद कंस डर गया। उसे लगा कि वसुदेव को कैद करके रखना ठीक रहेगा जिससे उसकी संतानों को मार कर वह खुद को बचा सके। कंस ने देवकी और वसुदेव को कारागर में डाल दिया। देवकी ने एक -एक कर छह पुत्रों को जन्म दिया। कंस हर बच्चे को उसके पैदा होते ही मारता रहा। 

जब देवकी के गर्भ में सातवीं संतान आयी तो वह वसुदेव की दूसरी पत्नी रोहिणी के गर्भ में स्थानांतरित कर दी गई। उस समय पर कोई चिकित्सा पद्धति या कुछ और तरीका रहा होगा जिससे ऐसा संभव हुआ। देवकी की सातवीं संतान ने बलराम के रूप में रोहिणी के गर्भ से जन्म लिया।

श्रीकृष्ण का जन्म


देवकी की आठवीं संतान के रूप में श्रीकृष्ण का जन्म हुआ। भाद्रपद मास में कृष्ण पक्ष की अष्टमी की आधी रात को मथुरा में कंस के कारागर में श्रीकृष्ण का जन्म हुआ। इतिहासकारों ने श्रीकृष्ण के जन्म का समय 1500 ईसवी पूर्व का आंका है। 

श्रीकृष्ण के जन्म के समय कारागर के दरवाजे खुल गए, पहरेदार सो गए और वसुदेव शिशु श्रीकृष्ण को लेकर यमुना के पार गोकुल में चले गए। सम्भव है इस सब में पहरेदारों ने वसुदेव की मदद की हो। वसुदेव ने कृष्ण को गोकुल में अपने मित्र नन्द को सौंप दिया। नन्द ने अपनी पुत्री को वसुदेव को दे दिया। वह पुत्री उसी दिन पैदा हुई थी। वसुदेव नन्द की पुत्री को लेकर कारागार में लौट आये।

कंस को सूचना मिली कि देवकी की आठवीं संतान का जन्म हो चुका है। वह दौड़कर कारागार में पहुंचा और उसने उस नन्ही लड़की की पत्थर पर पटक कर मार डाला।

श्रीकृष्ण की बाल लीलाएं


उधर श्रीकृष्ण का पालन पोषण गोकुल में नन्द के घर पर होने लगा। नन्द की पत्नी यशोदा ने श्रीकृष्ण को पाला पोसा इसीलिए कृष्ण की माता के तौर पर देवकी से ज्यादा यशोदा का नाम लिया जाता है। कंस को बहुत जल्द ही पता चल गया कि देवकी की आठवीं संतान जीवित है और उसका पालन नन्द के घर पर गोकुल में हो रहा है। कंस ने श्रीकृष्ण की हत्या करने के लिए बहुत से षड्यंत्र किये। उसने पूतना, शटकासुर, धेनुकासुर, प्रलंबासुर आदि को समय समय पर कृष्ण की हत्या करने के लिए भेजा। पर ये सभी असफल रहे और कृष्ण के हाथों मारे गए। श्रीकृष्ण ने बाल्यावस्था से ही बहुत से चमत्कारी कार्य किये। जो उनकी लीलाओ के रूप में जाने जाते हैं जैसे ऊखल बन्धन लीला जिसे यमलार्जुन मोक्ष लीला भी कहते हैं। कालिय दमन लीला, गोवर्धन धारण लीला आदि इनमें से प्रमुख हैं। उनकी लीलाओं में गोपियों के साथ कि गयी रासलीलाओं का भी विवरण मिलता है। 

हरिवंश पुराण के अनुसार कृष्ण जब सात वर्ष के थे तब नन्द अपने समस्त गोपमण्डल समेत गोकुल छोड़कर वृन्दावन में जा बसे थे। उस समय का वृन्दावन आज का काम्यवन, नन्दगाँव और बरसाना के आसपास का क्षेत्र आंका जाता है। 

कंस का वध


जब कंस के सारे षड्यंत्र विफल हो गए तब उसने कृष्ण को मथुरा बुलाकर मार डालने की योजना बनाई। उसने धनुर्याग का आयोजन किया। यह धनुर्याग धनुष यज्ञ था। इस अवसर पर उसने अक्रूर को कृष्ण-बलराम को लिवा लाने के लिए भेजा। अक्रूर ने कृष्ण को पहले से ही कंस की सारी योजना के बारे में बता दिया। 

श्रीकृष्ण और बलराम अक्रूर के साथ मथुरा पहुंचे। वहां कंस ने कृष्ण को कुवलय हाथी के द्वारा मार डालने की कोशिश कराई पर कृष्ण बच गए। फिर चाणूर और मुष्टिक पहलवानों ने उन्हें मारने की कोशिश की पर कृष्ण-बलराम ने उल्टे उन्हें ही मार गिराया। इसके बाद कृष्ण ने कंस को भी मसर डाला। 

कंस को मारने के बाद कृष्ण ने अपने पिता वसुदेव, माता देवकी और कंस के पिता उग्रसेन को कैद से मुक्त कराया। उग्रसेन को फिर से राजा बनाया गया। 

जरासन्ध का पहला आक्रमण


कंस की हत्या भले ही आसानी से हो गयी थी पर इसके परिणाम मथुरा की राजनीतिक परिस्थितियों में बड़े भूचाल लाने वाले थे। कंस मगध के शक्तिशाली शासक जरासन्ध का दामाद था। जरासन्ध ने कंस की हत्या का बदला लेने के लिए मथुरा पर कई बार आक्रमण किये। 

जरासन्ध ने जब मथुरा पर पहली बार आक्रमण किया तब वह अपने साथ एक विशाल सेना लेकर आया था। इस आक्रमण के दौरान कारुष का राजा दन्तवक्र, चेदि का राजा शिशुपाल, कलिंगपति पौंड्र, भीष्मक का पुत्र रुक्मि, काथ, अंशुमान, पवनदेश का राजा भगदत्त, गंधार का राजा सुबल नग्नजित, काश्मीर का राजा गोनर्द, कौरव राजकुमार दुर्योधन, शाल्वराज, सौवीरराज, अंग, बंग, कौशल, दशार्ण, मद्र और त्रिगर्त आदि राज्यों के राजा उसके साथ थे। इस विशाल सेना ने मथुरा नगरी को घेर लिया। यह घेरा 27 दिन तक चला। कहते हैं कि जरासन्ध की सेना की खाद्य सामग्री बीत गयी जिसके कारण उसे लौट जाना पड़ा। इस तरह जरासन्ध का पहला हमला विफल हो गया। इस तरह एक-एक करके जरासन्ध ने कुल 18 बार मथुरा पर हमले किये। 

जरासन्ध का अंतिम आक्रमण और महाभिनिष्क्रमण


जरासन्ध ने अठारहवां हमला बहुत बड़ी सेना साथ लेकर किया। इस आक्रमण में उसने अपनी सहायता के लिए विदेशी शक्तिशाली राजा कालिय यवन को भी साथ ले लिया था। इतना विशाल सैन्य समूह देख कर कृष्ण ने अंधक-वृष्णि संघ के सभी बड़े नायकों के साथ मिलकर मन्त्रणा की। मथुरा पर जरासन्ध के लगातार हमले इन्हें परेशान किये हुए थे अतः इन लोगों ने मथुरा छोड़कर अन्यंत्र जाने का निर्णय किया। ये लोग मथुरा छोड़कर द्वारका चले गए। द्वारका बहुत पहले से यदुवंश के लोगों का स्थान रहा था। 

कृष्ण का अधिकांश यदुवंश के लोगों के साथ मथुरा त्याग कर द्वारका जाने की घटना को महाभिनिष्क्रमण की घटना कहा गया है। इससे पहले भी दो अवसर ऐसे आये थे जब मथुरा से यदुवंश के लोगों ने पलायन किया था। पहली बार जब शत्रुघ्न ने मथुरा पर आक्रमण किया था और दूसरी बार जब कंस के अत्याचार के कारण बहुत से यदुवंशी मथुरा छोड़कर चले गए थे। पर इस अवसर पर मथुरा नगरी जितनी खाली हुई थी उतनी पहले कभी नहीं हुई थी। इस महाभिनिष्क्रमण के बाद मथुरा में बहुत कम आबादी बची थी। 

मगध के अधिकार में शूरसेन


कालिय यवन और जरासन्ध की सम्मिलित सेनाओं ने मथुरा को कितना नुकसान पहुंचाया इसका पता नहीं चलता है। यह भी पता नहीं चलता कि मथुरा पर अधिकार कर लेने के बाद शूरसेन जनपद पर शासन करने के लिए जरासन्ध ने किसे नियुक्त किया। 

महाभारत और अन्य पुराणों से पता चलता है कि कुछ समय बाद ही कृष्ण ने पांडवों की सहायता से जरासन्ध का वध करा दिया। जरासन्ध की मृत्यु के बाद शूरसेन प्रदेश से मगध का आधिपत्य खत्म हो गया और यह प्रदेश पुनः यदुवंश के लोगों के अधिकार में आ गया। 

महाभारत का युद्ध और शूरसेन के यादव


हमारी कहानी मथुरा नगरी और शूरसेन प्रदेश की है इसलिए यहां इसी से जुड़ी बातों पर ही प्रकाश डाला जा रहा है। इसलिये हम श्रीकृष्ण के जीवन की तमाम महत्त्वपूर्ण घटनाओं पर बात किये बिना आगे बढ़ते हैं और पहुंचते हैं महाभारत के युद्ध में। इस युद्ध में भारतीय उपमहाद्वीप के तमाम छोटे-बड़े राजाओं ने सहभागिता की थी इसलिए यह जान लेते हैं कि कौनसा शासक किस पक्ष में था। मत्स्य, पंचाल, चेदि, कारुष, पश्चिमी मगध, काशी और कोशल के राजा पांडवों के पक्ष में थे। सौराष्ट्र के वृष्णि यादव भी पांडवों के पक्ष में लड़े थे। बलराम, श्रीकृष्ण के बड़े भाई, कौरवों के पक्षधर थे पर उन्होंने इस युद्ध से खुद को अलग रखा।

कौरवों की ओर से शूरसेन प्रदेश के यादव थे। माहिष्मती, अवंति, विदर्भ और निषद देश के शासक भी कौरवों के पक्ष में थे। इसके अतिरिक्त पूर्व में बंगाल, आसाम, उड़ीसा तथा उत्तर-पश्चिम एवं पश्चिम भारत के सारे राजा और वत्स देश के शासक कौरवों की ओर से लदे थे। 

प्रभास का युद्ध


अब हम जिक्र करते हैं उस घटना का जो शूरसेन या मथुरा की कहानी की ओर लौटती है। यह घटना थी प्रभास का युद्ध। इस युद्ध में द्वारका के तमाम यदुवंशी आपस में लड़ मरे। सिर्फ चार लोग थे जिन्होंने इस युद्ध में भाग नहीं लिया था। कृष्ण, बलराम, सारथी दारुक और बभ्रु। इनके अलावा यदुवंश के सभी लोग मारे जा चुके थे। बलराम इस घटना से बड़े दुःखी हुए और समुद्र की ओर चले गए फिर उनका कुछ पता नहीं चला। कृष्ण ने सारथी दारुक को अर्जुन के पास भेजा ताकि वह द्वारका से स्त्रियों और बच्चों को अपने साथ ले जाये। कुछ स्त्रियों ने तो दुःख में आग में जलकर अपने प्राण त्याग दिये। शेष स्त्रियों और बच्चों को अपने साथ लेकर अर्जुन चल दिये। रास्ते में जंगली आभीरों ने अर्जुन पर हमला कर दिया और कुछ स्त्रियों को लूट लिया। शेष स्त्रियों और बच्चों को अर्जुन ने शाल्व देश और कुरुदेश में लाकर बसा दिया। 

उधर एक बहेलिये का तीर लगने से श्रीकृष्ण की भी मृत्यु हो गई। श्रीकृष्ण 120 वर्ष तक जीवित रहे। यह घटना करीब 1400 ईसवी पूर्व की है। श्रीकृष्ण के देहांत के साथ ही द्वापर युग का अंत और कलियुग की शुरूआत होती है। श्रीकृष्ण के अंत के साथ भी यादव गणतंत्र का भी अंत हो जाता है।

(आगे किश्तों में जारी)

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