मथुरा की कहानी भाग अठारह

पूर्व कथा

पिछले भागों में हम यदुवंश, श्रीकृष्ण की कथा, महाजनपदकाल, मौर्य साम्राज्य, शुंगवंश, मथुरा के मित्रवंश, मथुरा के शक, दत्त, कुषाण, नाग, गुप्त वंश, कन्नौज के मौखरि, हर्षवर्धन, कन्नौज के गुर्जर-प्रतीहार, महमूद गजनवी का आक्रमण, कन्नौज के गाहड़वाल, दिल्ली सल्तनत के गुलाम, खिलजी, तुगलक, सैय्यद एवं लोदी आदि वंशों के बाद मुगल वंश के बाबर, हुमायूं, सूरी वंश के शेरशाह आदि की कहानी बता चुके हैं। इसके बाद अकबर की उदार नीति से ब्रज में वैभव का संचार हुआ। उसके बाद की कहानी औरंगजेब की है जो ब्रज के लिए एक काले अध्याय से कम नहीं है। औरंगजेब के बाद ब्रज के जाटों ने मजबूत सत्ता स्थापित की। जाट नेता चूड़ामन और बदनसिंह ने जाट शक्ति को चरम पर पहुंचाया। इसके बाद एक नक्षत्र की भांति सूरजमल का उदय हुआ। सूरजमल के बाद उसके पुत्र जवाहर सिंह ने जाट शक्ति को विस्तार दिया। अब आगे…

जाट शक्ति का पतन

जाटों की शक्ति दिन पर दिन घट रही थी। उनके अनेक योग्य सेनापति मारे जा चुके थे। अब भारत में युद्ध की नई यूरोपीय पद्धति प्रचलित हो चुकी थी पर जाटों में उसका चलन बहुत कम था। जाटों के प्रसिद्ध यूरोपीय सेनानायक मेडक उनकी सेवा को त्यागकर मुगलों की सेना में जा मिला था।

नवल सिंह का रुहेलों के विरुद्ध अभियान

दानशाह के नेतृत्व में नवल सिंह ने सितम्बर 1773 ईस्वी में मुगल बादशाह के विरुद्ध अभियान छेड़ दिया। शहादरा के पास भिड़ंत हुई। मुगल सेना ने जाटों को परास्त कर दिया। दनकौर के पास फिर युद्ध हुआ जिसमें अलीगढ़ के चंदू गुजर और जाटों ने मुगल सेना का सामना किया। परन्तु यहां भी विजय मुगलों की हुई। इस युद्ध में करीब तीन हजार जाट सिपाही मारे गए। 

नजफ़ खान का जाटों के विरुद्ध अभियान

मुगल सेनापति नजफ़ खान ने मौका पाकर जाटों के राज्य पर धावा बोल दिया। बल्लभगढ़ में पहुंचने पर नवल सिंह से नाराज दो जाट सरदार अजीत सिंह तेवतिया और हीरासिंह तेवतिया उससे मिल गए। इससे नजफ़ खान को मजबूती मिल गई। अब जाट सेना पीछे हटना शुरू हो गई। नवलसिंह के पास अब ऐसी सैनिक शक्ति नहीं बची थी कि वह मुगल सेना का मुकाबला कर सकता। नजफ़ खान की फौज रास्ते में पड़ने वाले गांवों को लुटती हुई आगे बढ़ने लगी। उसकी फौज ने ब्रज प्रदेश में बड़ी बर्बादी की। जो भी गांव रास्ते में पड़े वे लुटे और जलाए गए। रुहेलों ने गांव वालों के कितने ही मवेशियों को मारकर खा डाला। नवलसिंह ने होडल के पास कोटवन के दुर्ग में शरण ली। उधर नजफ़ खान कोटवन पहुंचने के बजाय यमुना के साथ-साथ चलते हुए सीधे डीग पहुंचने के लिए आगे बढ़ा। नजफ़ खान जब बरसाना के समीप सहार तक आ पहुंचा तो नवल सिंह भी तीव्र गति से बरसाना पहुंचा।

बरसाना का युद्ध

30 अक्टूबर 1773 ईस्वी के दिन बरसाना के पास जाट सेना और मुगल सेना के मध्य घमासान युद्ध हुआ। जाट सेना का नेतृत्व समरू के हाथ में था। इसके अतिरिक्त बालानन्द गुसाईं के साथ पांच हजार नागा जाट सेना की ओर से लड़ रहे थे। मध्य में नवलसिंह अपने चुने हुए सिपाहियों के साथ था। मुगलों की फौज में पांच हजार लड़ाकू रुहेले और बड़ी संख्या में घुड़सवार थे। दोपहर के बाद युद्ध शुरू हुआ और शाम तक भयानक मारकाट होती रही। पर नवल सिंह मुगलों की बढ़त होती देख घबरा गया और युद्ध क्षेत्र से भाग निकला। नवल सिंह के भाग निकलने से जाट सेना का उत्साह भंग हो गया। समरू बराबर लड़ता रहा और उसने मुगल सेना को तितर बितर कर दिया। जाट दीवान जोधराज पल्लीवाल भी बड़ी वीरता के साथ लड़ा पर उसकी जांघ में तलवार का भयंकर वार लगने से वह घायल हो गया। अब मैदान नजफ़ खान के हाथ लगा। लगभग दो हजार जाट सिपाही इस लड़ाई में मारे गए जबकि शत्रु सेना के दो हजार तीन सौ सिपाही मरे और घायल हुए। मुगल सेना ने नवल सिंह के खेमे में पहुंच कर उसे लूटना शुरू कर दिया। इस लूट से उसे अपार संपत्ति मिली। साथ ही जाटों का तोपखाना, हाथी, घोड़े और ऊंट भी उसके हाथ लगे। बरसाना का नया बना शहर भी लूटा गया और उसे बर्बाद कर दिया गया। इसके बाद मुगल सेना ने कोटवन पर भी कब्जा कर लिया। 11 दिसम्बर 1773 ईस्वी को नजफ़ खान ने आगरा पर भी कब्जा कर लिया। आगरा का किला सूरजमल के समय से ही जाटों के अधिकार में था। इस समय लगभग सारा ही मथुरा जनपद मुगलों के कब्जे में आ गया था। जाट सत्ता बहुत सीमित क्षेत्र में रह गई थी। 

नजफ़ खान का कामां पर अधिकार

बरसाना की हार तथा बल्लभगढ़, कोटवन, आगरा आदि किलों के हाथ से निकल जाने पर जाटों की शक्ति भय कमजोर हो गई। उसके दो योग्य यूरोपीय सेनानायक मेडक और समरू भी उनका साथ छोड़कर शत्रुओं से जा मिले थे। 1775 ईस्वी में नजफ़ खान ने जाट प्रदेश पर फिर से आक्रमण किया और कामां (कामवन) पर अधिकार कर लिया। कामां इस समय जयपुर के शासक के अधीन था। नजफ़ खान के सेनापति अफ़रासियाब खान ने इसी समय सादाबाद और जेवर पर भी अधिकार कर लिया और तीन महीने बाद रामगढ़ के मजबूत किले पर भी कब्जा कर लिया। कामां को जीतने के लिए जयपुर के राजा और जाटों ने मिलकर प्रयत्न किया। मराठों ने भी उन्हें इसमें सहायता दी। काफी समय के युद्ध के बाद मुगलों से कामां छीन लिया गया।

जाट राजा रणजीत सिंह

 

नवल सिंह की मृत्यु  (10 अगस्त 1775 ईस्वी) के बाद रुहेला सरदार रहीमदाद खां ने रतन सिंह के बालक पुत्र केसरी सिंह को डीग के सिंघासन पर बिठा दिया और स्वयं उसका प्रतिनिधि बन बैठा। रहीमदाद ने नवलसिंह के साथियों को भी डीग से भगा दिया। सूरजमल का सबसे छोटा पुत्र रणजीत सिंह उस समय कुम्हेर में था जब उसे यह सब ज्ञात हुआ तो वह डीग की तरफ बढ़ा। रणजीत सिंह ने रुहेलों से डीग को छीन लिया। इस युद्ध में चार हजार रुहेले मारे गए और बाकी भाग गए। इस तरह जाट राज्य का स्वामी अब रणजीत सिंह हुआ।

डीग के किले का पतन

ब्रज में डीग का किला सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण और मजबूत किला था। डीग के इस महत्त्वपूर्ण किले को जीतने के लिए मुगलों और रुहेलों ने कई प्रयत्न किए। परंतु जाटों ने प्राणपण से किले की रक्षा कर उसे शत्रु के हाथ में जाने से बचा लिया। दुर्भाग्य से यह स्थिति अधिक समय तक बनी नहीं रह सकी। आपसी मतभेद और उत्तराधिकार के झगड़े ने जाट शक्ति को कमजोर कर दिया। 1776 ईस्वी में नजफ़ खान के नेतृत्व में डीग का घेरा डाला गया। अवध की फौज से निकाले गए हिम्मतबहादुर और उमरावगिरी नामक दो गोसाईं अपने छह हजार साथियों तथा लड़ाई के साज सामान सहित नजफ़ खान से आ मिले। डीग से कुम्हेर तथा कामां जाने वाली सड़कों की नाकेबंदी कर दी गई। इस तरह बाहर से किसी भी प्रकार की सहायता पहुंचना बन्द हो गया। डीग के किले में सुरक्षित खाद्य सामग्री कुछ ही दिनों में समाप्त हो गई। इसी समय भयंकर अकाल पड़ा, जिससे हालत और बिगड़ गई। किले में कुल साठ हजार जाट थे। परंतु भूख से पीड़ित होने के कारण बहुत से लोग रातोंरात बाहर निकल गए। यहां तक कि अंत में किले के अंदर केवल दस हजार जाट ही रह गए। कुछ दिन बाद रणजीत सिंह भी डीग के किले को छोड़कर कुम्हेर की तरफ भाग गया। अब मुगलों ने किले पर धावा बोला। शहर के कई भाग जला दिए गए और बेहद लूटमार और हत्या हुईं। बचे हुए जाटों ने मुगल सेना पर आक्रमण किया और लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। डीग के पतन से जाटों की शक्ति को गहरा धक्का लगा। इस प्रकार विस्तृत ब्रज प्रदेश से जाटों की प्रभुता का अंत हुआ। रणजीत सिंह के अधिकार में अब केवल भरतपुर का किला और उसके आसपास की भूमि ही रह गई थी।

मुरसान और सासनी पर नजफ़ खान का कब्जा

डीग पर अधिकार करने के बाद नजफ़ खान ने मथुरा और अलीगढ़ जिलों की ओर ध्यान दिया। 1776 ईस्वी में अफरासियाब खान ने मथुरा पहुंच कर यमुना को पर किया। इस समय यमुना के उस पार जाट और गूजर लोग शक्तिशाली थे। इनका प्रधान राजा फूपसिंह था। वह मुरसान और सासनी का शासक था। नजफ़ और अफरासियाब खान की सम्मिलित फौज ने बढ़कर मुरसान पर कब्जा कर लिया। राजा फूपसिंह सासनी चला गया जहां उसने मुगलों से संधि कर ली। सासनी और कुछ इलाके राजा के अधिकार में रहे और मुरसान पर मुगलों का कब्जा हो गया। 

नजफ़ खान की मृत्यु और उसके बाद

1781 ईस्वी में नजफ़ खान की मृत्यु हो गई। इसके बाद दिल्ली के शासन में एक बार फिर से अव्यवस्था प्रारंभ हो गई। नजफ़ कुशल राजनीतिज्ञ होने के साथ साथ बहादुर भी था। जाटों की शक्ति को पंगु बनाने में उसका प्रमुख हाथ था। मराठों को भी नजफ़ ने कुछ समय तक आगे बढ़ने का मौका नहीं दिया था। नजफ़ खान के बाद अफरासियाब को मीर बक्शी बनाया गया। परन्तु सरदारों के आपसी झगड़ों के कारण वह ज्यादा दिन तक टिक नहीं पाया और साल भर बाद ही पद से हटा दिया गया। 

बयाना और अन्य जाट किलों का पतन

मिर्जा शफी को दिल्ली से आगरा की तरफ भेजा गया। आगरा और फतहपुर सीकरी होते हुए शफी ने भरतपुर राज्य पर हमला कर दिया। उसने बयाना के किले पर डेरा डाल कर उसे फतह कर लिया (9 मई 1783 ईस्वी)। फिर अखैगढ़ और जाटों की कई अन्य गढियाँ भी मुगलों के हाथ लग गईं। इस बीच आगरा के सूबेदार हमदानी बेग और मिर्जा शफी के बीच झगड़ा शुरू हो गया। हमदानी ने भरतपुर के राजा रणजीत सिंह को अपनी तरफ मिला लिया और उसे सुरक्षा का वचन दिया। हमदानी आगरा और मेवात के क्षेत्र पर अपना स्वतंत्र आधिपत्य स्थापित करना चाहता था। इसके लिए उसने अपनी फौज भी बढ़ाई। शफी ने हमदानी को दबाने के लिए मराठा सेनापति महादजी सिंधिया से सहायता ली। सितम्बर 1783 ईस्वी में हमदानी ने मिर्जा शफी के सूबे आगरा में लूट शुरू कर दी। शफी ने इसको रोकने का बहुत प्रयत्न किया, परन्तु वह सफल नहीं हुआ। अफरासियाब ने अंत में धोखा देकर शफी को मरवा डाला (23 सितम्बर 1783 ईस्वी)।

(आगे किश्तों में जारी)

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