मथुरा की कहानी भाग बारह

पूर्व कथा


पिछले भागों में हम यदुवंश, श्रीकृष्ण की कथा, महाजनपदकाल, मौर्य साम्राज्य, शुंगवंश, मथुरा के मित्रवंश, मथुरा के शक, दत्त, कुषाण, नाग, गुप्त वंश, कन्नौज के मौखरि, हर्षवर्धन, कन्नौज के गुर्जर-प्रतीहार, महमूद गजनवी का आक्रमण, कन्नौज के गाहड़वाल, और दिल्ली सल्तनत के गुलाम, खिलजी, तुगलक, सैय्यद एवं लोदी आदि वंशों के शासकों की कहानी बता चुके हैं। इसके बाद बाबर ने भारत में मुगल सत्ता की नींव डाली। अब आगे…

ब्रज में मुगलकाल


ब्रज प्रदेश में मुगलों की सत्ता 1526 ईस्वी से 1718 ईस्वी तक कायम रही। हालांकि बीच में करीब 16 वर्ष (1540 – 1556 ईस्वी) यहां सूर वंश के अफगानों का राज्य रहा। अंत में 1556 ईस्वी में करीब दो माह तक यह प्रदेश हिन्दू सरदार हेमू के अधीन भी रहा। लेकिन जल्द ही यह राज्य फिर से मुगल सत्ता के अधीन हो गया।

मुगल साम्राज्य की स्थापना


पानीपत का पहला युद्ध 21 अप्रैल 1526 ईस्वी को लड़ा गया। इस युद्ध में बाबर ने दिल्ली के सुल्तान इब्राहीम लोदी की परास्त कर भारत में मुगल सत्ता स्थापित की। बाबर ने उसी दिन अपने बड़े पुत्र हुमायूं को सेना के साथ आगरा पर कब्जा करने भेज दिया। चार मई को बाबर स्वयं आगरा पहुंचा। और छह दिन के बाद आगरा मुगलों के अधिकार में आ गया। ब्रज प्रदेश के अन्य भागों पर अब भी अफगान सरदारों का ही आधिपत्य था। मेवात, बयाना, धौलपुर, ग्वालियर, रापरी और इटावा में वे स्वाधीन शासक बन गए थे। बाद में जब इन लोगों को पता चला कि बाबर गजनवी या तैमूर की तरह वापिस जाने के बजाय भारत में रहकर ही नए साम्राज्य की स्थापना करेगा। यह जानकर बहुत से अफगान सरदारों और हिन्दू जनता की भावना उसके प्रति बदलने लगी। कुछ अफगान अमीरों ने उसकी अधीनता स्वीकार भी कर ली। बाकी रहे प्रदेशों और किलों को जीतने के लिए सेनाएं भेजी गईं। रापरी, बयाना, धौलपुर और ग्वालियर के किले अधिकार में आ गए। गंगा-यमुना के दोआब में भी बाबर की सेनाएं जौनपुर और कालपी तक जा पहुंचीं। इस प्रकार सन 1526 ईस्वी के अंत तक मेवात के अतिरिक्त समूचे ब्रज प्रदेश पर बाबर की सत्ता स्थापित हो गई।

खानवा का युद्ध


सन 1527 ईस्वी के प्रारंभ में मेवाड़ के राणा सांगा राजस्थान के अधिकांश राजाओं की सम्मिलित सेनाओं को साथ लेकर बाबर से लड़ने निकल पड़े। खानवा के पास भीषण युद्ध हुआ। शुरूआत में राजपूत भारी पड़े और बाबर की हार तय लगने लगी। पर अंत में विजय बाबर के ही हाथ लगी। राणा सांगा की फौज पराजित हुई। मेवात का शासक हसन खां मेवाती इस युद्ध में मारा गया। इस तरह मेवात पर मुगलों का अधिकार होते ही सारा ब्रज प्रदेश मुगलों के अधीन हो गया। यह स्थिति 1540 ईस्वी तक बनी रही। मुगल शासन के प्रारंभिक वर्षों में आगरा की राजधानी रहा।

हुमायूं


बाबर की मृत्यु 1530 ईस्वी में हुई। उसका बड़ा पुत्र हुमायूं उसका उत्तराधिकारी हुआ। उसके शासन के पहले दस वर्ष विरोधियों से जूझने में ही बीते। सन 1534 ईस्वी में तातार खां लोदी गुजरात के सुल्तान बहादुरशाह से सहायता पाकर सेना लेकर मुगल राज्य पर आक्रमण करने आया। आगरा आते हुए उसने रास्ते में बयाना के किले पर अधिकार कर लिया। हुमायूं ने अपने छोटे भाई हिन्दाल के नेतृत्व में सेना भेजी। मुगल सेना को आता देख तातार खां बयाना के किले को छोड़कर पीछे हट गया।

शेरशाह सूरी 

इसका नाम शेर खां था। इसने शक्ति संगठित कर बिहार और बंगाल में विद्रोह कर दिया। इसका दमन करने के लिए 1537 ईस्वी में हुमायूं अपने भाई हिन्दाल के साथ पूर्व की तरफ गया। हिन्दाल जल्द ही हुमायूं की अनुमति लिए बगैर आगरा लौट आया और उसने विद्रोह कर खुद को मुगल सम्राट घोषित कर दिया। उसी समय उसके बड़े भाई कामरान के ससैन्य आगरा पहुंचने से उसका विद्रोह असफल हो गया। पर अब ये दोनों भाई मिलकर हुमायूं के विरुद्ध विद्रोह करने लगे। इस घटनाक्रम से ब्रज प्रदेश में अराजकता फैल गई। 

शेर खां की शक्ति निरन्तर बढ़ती जा रही थी। हुमायूं को उसके विरुद्ध सफलता नहीं मिल पा रही थी। इधर हिन्दाल के विद्रोह की खबरों ने भी उसकी चिंता बढ़ा रखी थी। इसलिए हुमायूं आगरा की ओर लौट पड़ा। मार्ग में चौसा के युद्ध (1539 ईस्वी) में शेर खां ने हुमायूं को बुरी तरह हराया। इसके बाद शेर खां शेरशाह के नाम के साथ गौड़ प्रदेश का शासक बना। सन 1540 ईस्वी में हुमायूं ने पुनः शेरशाह के विरुद्ध चढ़ाई की। इस बार बिलग्राम में युद्ध (मई 1540 ईस्वी) हुआ। इस बार भी हुमायूं की करारी हार हुई। किसी तरह बचकर हुमायूं आगरा पहुंचा। आगरा की स्थिति भी बहुत खराब थी। वहां अराजकता व्याप्त हो चुकी थी और मुगल सत्ता नगण्य हो गई थी। ऐसे में आगरा में ठहरकर शेरशाह का सामना करना हुमायूं के लिए सम्भव नहीं था। इसलिए मजबूर होकर उसने आगरा छोड़कर जाने का निर्णय किया। वह अपने परिवार औए बहुमूल्य सामग्री के साथ दिल्ली होता हुआ पंजाब चला गया। अब ब्रज प्रदेश सत्ता शून्य हो शेरशाह की प्रतीक्षा कर रहा था।

सूर सुल्तानों का आधिपत्य


बिलग्राम के युद्ध में पूर्ण विजय प्राप्त करने के बाद शेरशाह ने मुगल सत्ता का प्रमुख केंद्र आगरा और दिल्ली पर कब्जे की कार्रवाई की। वह मुगलों को भारत से खदेड़कर बाहर करने के लिए पश्चिम की ओर बढ़ा। कन्नौज पहुंचकर उसने अपने विश्वासपात्र सेनानायक बरमाजिद गौर को बड़ी सेना के साथ आगरा भेजा। ग्वालियर पर कब्जे के लिए उसने शुआजत खां को भेजा। बरमाजिद गौर ने आगरा पर आसानी के कब्जा कर लिया। शुआजत खां को ग्वालियर पर कब्जे के लिए दो वर्ष तक घेरा डाले रखना पड़ा। ग्वालियर के किलेदार अबुलकासिम बेग को जब हुमायूं के जल्द वापस आने की कोई उम्मीद नहीं रही तब उसने 1542 ईस्वी में आत्मसमर्पण कर दिया। इस तरह सारा ब्रज प्रदेश शेरशाह के अधिकार में आ गया।

शेरशाह का काल और ब्रज प्रदेश


शेरशाह ने सिर्फ पांच वर्ष शासन किया पर उसने यहां पूर्ण शांति स्थापित कर दी। उसने यहां की समृद्धि के लिए बहुत कार्य किये। उसने यमुना और चम्बल के विद्रोही जमींदारों के विद्रोहों को दबाने के लिए फौज तैनात की। क्षेत्र में शांति स्थापित करने के लिए ग्वालियर और बयाना के किलों में विशेष सेना और बंदूकची नियुक्त किये। राह में पड़ने वाले जंगलों को काटकर उसने आगरा से दिल्ली तक सड़क बनवाई। यात्रियों की सुविधा के लिए स्थान-स्थान पर सरायें बनवाईं। सड़कों के दोनों ओर छायादार वृक्ष लगवाए। यात्रियों की सुरक्षा का भी पूरा प्रबन्ध किया गया। उसने आगरा से  मांडू, जोधपुर और चित्तौड़ तथा बंगाल जाने वाली सड़कें भी बनवाईं। उसने लगान की वसूली के लिये सारे प्रदेश की धरती नपवाई और मालगुजारी निश्चित की।

शेरशाह के उत्तराधिकारी

शेरशाह की मृत्यु (22 मई 1545 ईस्वी) कालिंजर के किले का घेरा लगाने के दौरान हो गई। उसका दूसरा पुत्र जलाल इस्लामशाह के नाम से गद्दी पर बैठा। इसका अपने बड़े भाई अदिल खां के साथ संघर्ष चलता रहा। अदिल खां बयाना की जागीर का स्वामी था। इस्लामशाह ने अदिल खां को गिरफ्तार करना चाहा, तब दोनों भाइयों के मध्य हुए टकराव से सारे ब्रज प्रदेश में अशांति हो गई। अंत में आगरा के पास हुए युद्ध में अदिल खां अपने समर्थकों के साथ पराजित होकर पूर्व की तरफ भाग गया। परन्तु दूसरे विरोधी सरदारों का अंत नहीं हुआ और इस्लामशाह को बहुत युद्ध लड़ने पड़े। सन 1547 ईस्वी के बाद मजबूरन इस्लामशाह को अपनी राजधानी आगरा से बदलकर ग्वालियर स्थानांतरित करनी पड़ी। 1553 ईस्वी में इस्लामशाह की मृत्यु के बाद उसका चचेरा भाई आदिलशाह गद्दी पर बैठा। वह अयोग्य शासक था। शीघ्र ही उसका राज्य अनेक टुकड़ों में बंट गया। अंत में आदिलशाह को बिहार भागना पड़ा। ब्रज प्रदेश पर पहले इब्राहीम शाह का अधिकार हुआ। किंतु फरह के युद्ध में उसे हराकर सिकंदर शाह ने ब्रज पर अपना आधिपत्य स्थापित किया।

इस काल में ब्रज की स्थिति


इस कालखण्ड में ब्रज प्रदेश में घोर अराजकता व्याप्त रही। आपसी युद्धों के कारण सेनाएं निरन्तर इधर से उधर घूमती रहती थीं। जिससे फसलें बर्बाद हो जाती थीं और प्रजा को कष्ट उठाने पड़ते थे। इस अराजकता का लाभ उठाकर अनेक साहसी सैनिक दल भी संगठित होकर लूटमार करते फिरते थे। इस हाल में खेती करना भी सम्भव नहीं रहा था। इसी वर्ष बरसात भी बहुत कम हुई जिसके कारण भयंकर अकाल पड़ गया। दो वर्ष तक भुखमरी की स्थिति बनी रही और बहुत से नर-नारी मर गए। महंगाई का आलम यह था कि जुवार का भाव रुपये सेर हो गया था फिर भी यह मुश्किल से ही मिलती थी। गांव के गांव उजड़ गए थे और देहातों में लूटमार बढ़ गई थी। गरीब हिंदुओं के दल मुसलमान बस्ती वाले शहरों पर आक्रमण कर लूटपाट करने लगे। 

मुगलों का पुनः अधिकार


अफगान सरदारों के इन आपसी झगड़ों का लाभ उठाकर हुमायूं ने पुनः पंजाब पर चढ़ाई कर दी। उसने सरहिंद के युद्ध में सिकन्दर शाह को पराजित कर दिया। सिकन्दर शाह जब हुमायूं से लड़ने पंजाब की ओर गया था तब ब्रज प्रदेश पर आधिपत्य के लिए इब्राहीम और अदिलशाह के सेनापति हेमू के बीच लड़ाई हो गई। हेमू ने दो बार इब्राहीम को हराया और तीन माह तक उसे बयाना के किले में कैद करके रखा। इसी दौरान हेमू की बंगाल वापस लौटना पड़ा। इब्राहीम को भी कहीं से सहायता मिलने की आशा नहीं रही थी इसलिए वह भी ब्रज प्रदेश को छोड़कर चला गया। अब ब्रज प्रदेश में किसी शक्तिशाली व्यक्ति की उपस्थिति नहीं थी। इसलिए जुलाई 1555 ईस्वी में दिल्ली पर अधिकार करने के बाद हुमायूं ने आसानी से आगरा और बयाना पर अधिकार कर लिया। इसके कुछ माह बाद (24 जनवरी 1556 ईस्वी) हुमायूं की दिल्ली में मृत्यु हो गई। 

अकबर का आधिपत्य


हुमायूं की मृत्यु के समय उसका उत्तराधिकारी उसका तेरह वर्षीय पुत्र अकबर था। अकबर बैरम खां के संरक्षण में पंजाब के हाकिम था। हुमायूं की मृत्यु से लाभ उठाकर अफगानों ने फिर से ब्रज प्रदेश में सिर उठाया। 1556 ईस्वी में बरसात समाप्त होते ही हेमू एक बड़ी सेना लेकर ग्वालियर होता हुआ दिल्ली की ओर बढ़ा। आगरा का मुगल सूबेदार सिकन्दर उजबेग आगरा छोड़कर भाग गया। इस तरह कुछ समय करीब दो माह तक यह प्रदेश फिर से मुगलों की सत्ता से विहीन हो गया। 5 नवम्बर 1556 ईस्वी को पानीपत के दूसरे युद्ध में मुगल सेना ने हेमू को पराजित कर दिया। मुगल सेना के साथ अकबर दूसरे दिन दिल्ली पहुंचा। उसने कियाखां को आगरा का सूबेदार बनाकर भेजा। आगरा पर अधिकार करने में कियाखां को कोई कठिनाई नहीं हुई। नासिर उल मुल्क को मेवात भेजा गया जिसने वहां के अफगान प्रशासक हाजी खां को वहां से निकाल बाहर किया। इस तरह नवम्बर के अंत तक ब्रज का सारा भाग मुगल आधिपत्य में आ गया।

(आगे किश्तों में जारी)

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