मथुरा की कहानी भाग ग्यारह


पूर्व कथा

पिछले भागों में हम यदुवंश की शुरूआत, श्रीकृष्ण की कथा, महाजनपदों का विवरण, मौर्य साम्राज्य, शुंगवंशी राजाओं, मथुरा के मित्रवंशी राजाओं, मथुरा के शक शासकों, दत्त शासकों, कुषाण शासकों, नाग राजाओं, गुप्त वंश के शासकों, कन्नौज के मौखरि शासकों, हर्षवर्धन के बाद कन्नौज के गुर्जर-प्रतीहार शासकों, महमूद गजनवी का आक्रमण, कन्नौज के गाहड़वाल शासकों और  मथुरा प्रदेश के दिल्ली सल्तनत के अधीन जाने तक कि कहानी बता चुके हैं। अब आगे…

दिल्ली सल्तनत काल (1194 से 1526 ईस्वी तक)


बारहवीं शताब्दी का अंत होते होते मुसलमानों का शासन भारत के एक बड़े भाग पर स्थापित हो गया। इस वंश के सभी शासक तुर्क थे। अल्तमश और बलबन इस वंश के प्रमुख शासक हुए। यह वंश गुलाम वंश कहलाया। इनके काल में दिल्ली सल्तनत का विस्तार हुआ। 

दिल्ली के अन्य राजवंश


दिल्ली पर सल्तनत काल के शासकों का आधिपत्य 1194 ईस्वी से 1526 ईस्वी तक रहा। इस काल खंड में गुलाम वंश (1206 – 1290 ईस्वी), खिलजी वंश (1290 – 1320 ईस्वी), तुगलक वंश (1320 – 1413 ईस्वी), सैय्यद वंश (1414 – 1451 ईस्वी) तथा लोदी वंश (1451 – 1526 ईस्वी) ने शासन किया। इस पूरे कालखण्ड में ब्रज प्रदेश दिल्ली के इन मुसलमान सुल्तानों के अधीन ही रहा। इस समूचे कालखण्ड पर चर्चा करने के स्थान पर हम सिर्फ उन्हीं सुल्तानों को इस कहानी में स्थान देंगे जिनका मथुरा से कुछ सम्बन्ध प्राप्त होता है। 

अलाउद्दीन खिलजी 


यह खिलजी वंश का शासक था। इसके समय का एक लेख मथुरा से मिला है। इस लेख में सुल्तान का नाम सुल्तान अलाउद्दीन शाह तथा उसकी उपाधि ‘सिकंदरे थानी’ दी गई है। लेख की दूसरी पंक्ति में गुजरात के प्रशासक उलग खां और उसकी बनवाई हुई एक मस्जिद का जिक्र मिलता है। यह उलग खां सुल्तान अलाउद्दीन का भाई था। इस उलग खां को अलाउद्दीन ने 1297 ईस्वी में गुजरात अभियान के लिए भेजा था। इसी उलग खां ने मथुरा में असिकुण्डा घाट पर किसी पुराने हिन्दू मंदिर के स्थान पर एक मस्जिद बनवाई थी। कुछ समय बाद यह मस्जिद यमुना की बाढ़ में बह गई। कालांतर में प्राचीन मस्जिद के पास दूसरी मस्जिद बनवाई गई।

अलाउद्दीन के बाद मथुरा की दशा


अलाउद्दीन के बाद बहुत लंबे समय तक मथुरा की दशा का कोई प्रमाण नहीं मिलता है। हालांकि दिल्ली के सुल्तानों की कोप दृष्टि मथुरा पर रही। यहां के प्रमुख मन्दिर नष्ट किये गए इस दौरान यहां का मुख्य राजनीतिक केंद्र महावन को बनाया गया। दिल्ली के सुल्तानों द्वारा नियुक्त फौजदार यहीं पर रहता था। इसी काल में कुछ फौजी पड़ाव भी यहां बने जिनमें फरह, बाद, छाता, सराय आजमपुर और शेरगढ़ शामिल हैं।

मुहम्मद तुगलक


यह तुगलक वंश का एक कठोर शासक था। उसके समय पर जमीन के लगान की दर बहुत बढ़ा दी गईं थी। किसानों के लिए यह कर अदा करना बहुत कठिन था जिसके चलते यहां के किसानों पर बहुत अत्याचार हुए। बुलंदशहर, मथुरा, कन्नौज आदि के किसानों को बहुत सताया गया और इनके खेत उजाड़ दिए गए। इस दौरान मालगुजारी वसूल करने के लिए जालिम फौजदार नियुक्त किए गए। 1336 ईस्वी में दिल्ली, मथुरा और उसके आसपास के क्षेत्र में भयंकर अकाल पड़ा। अगले सात वर्ष तक यही अकाल और भुखमरी की स्थिति बनी रही।

फिरोज तुगलक (1351 – 1388 ईस्वी)


यह मुहम्मद तुगलक का चचेरा भाई था जो उसके बाद सुल्तान बना। इसने सतलज और यमुना नदियों से नहरें निकलवा कर सिंचाई के साधन विकसित किये और बहुत से बगीचे लगवाए। यह धर्मांध सुल्तान था इसलिए इसने हिंदुओं को मुसलमान बनाने के बहुत से प्रयास किए। धर्मांतरण की घटनाओं से जनता में धार्मिक असंतोष की भावना बढ़ी। शासन में धर्मांध मुल्लों का बोलबाला हो गया था। मथुरा को इसके शासनकाल में बहुत अत्याचार भुगतने पड़े।

तैमूर का आक्रमण (1398 ईस्वी)


फिरोज तुगलक के उत्तराधिकारी अयोग्य साबित हुए। इसी दौरान तुर्क सरदार तैमूर ने 1398 ईस्वी में भारत पर आक्रमण कर दिया। यह आक्रमण बहुत भयानक था। जहां भी उसकी फौज गई उसने भयंकर कत्लेआम किया। दिल्ली और मेरठ को उजाड़कर वह हरिद्वार पहुंच गया। हरिद्वार में उसने भयानक रक्तपात किया। तैमूर के इस हमले से दिल्ली सल्तनत की जड़ें हिल गईं।

लोदी वंश


1451 ईस्वी में बहलोल लोदी नामक पठान ने दिल्ली पर कब्जा कर पठान शासन की नींव डाली। इसने कन्नौज के शासक हुसैनशाह शर्की को परास्त कर उससे कन्नौज और अवध तक का सारा प्रदेश अपने अधिकार में कर लिया। 

सिकन्दर लोदी (1488 – 1517 ईस्वी)


यह पठान वंश का शक्तिशाली शासक था। इसने अपने राज्य का विस्तार किया। मध्यभारत और राजस्थान के कई इलाकों को इसने जीता। इसने अपने राज्य का केंद्र आगरा को बनाया। इसके काल में आगरा नगर व्यापार का प्रमुख केंद्र बन गया। यहां सूती और रेशमी वस्त्र बनते थे। फीते, सोने, चांदी का जरी का काम एवं सादे और रंगीन शीशे का काम भी यहां होता था। इसके काल में 5 जुलाई 1505 ईस्वी के दिन एक भयंकर भूकम्प आया था। इस भूकम्प से बड़ी-बड़ी इमारतें धराशायी हो गईं थीं जिनमें दबकर बहुत से लोग मर गए थे। फरिश्ता ने इस भूकम्प के बारे में लिखा है कि ऐसा भूचाल भारत में न पहले कभी आया था न ही बाद में।

सिकंदर की धार्मिक कट्टरता


सिकन्दर की धार्मिक कट्टरता के कारण मथुरा शहर की बहुत कुछ भुगतना पड़ा। अब्दुल्ला ने ‘तारीखे दाउदी’ ने लिखा है कि इसके समय पर मथुरा के मंदिर पूरी तरह से नष्ट कर दिए गए थे। कोई भी धार्मिक स्थान बाकी नहीं रहा था। बहुत से मंदिरों के स्थान पर सरायें बना दी गईं। सिकन्दर ने यह भी फरमान जारी किया कि मथुरा का कोई भी हिन्दू अपने सिर के बाल और दाढ़ी न मुंडवाए। इसने मथुरा के मुख्य घाटों के ऊपर मस्जिदों और दुकानों का निर्माण करा दिया। यमुना स्नान और हिंदुओं के दूसरे धार्मिक अनुष्ठान प्रतिबंधित कर दिए। विजयपाल देव के समय पर बनाया गया श्रीकृष्ण जन्मस्थान का मंदिर भी इसकी धार्मिक कट्टरता का शिकार हो गया था। इसके समय पर मथुरा के विश्राम घाट के बारे में यह धारणा प्रचलित हो गई थी कि कोई भी हिन्दू वहां से गुजरेगा तो उसकी शिखा कट कर गिर जाएगी। बाद में हिन्दू धर्माचार्यों ने इस धारणा को खंडित किया।

इब्राहीम लोदी (1518 – 1526 ईस्वी)


यह सिकन्दर का उत्तराधिकारी था। इब्राहीम बहुत ही क्रूर और घमंडी शासक था जिसके कारण इसके बहुत से सामंत इसके विरोधी हो गए। इसकी नीतियों के कारण पठान राज्य कमजोर हो गया और सल्तनत में अराजकता व्याप्त हो गई। पंजाब का हाकिम दौलत खां लोदी और दूसरे बहुत से सरदारों ने इसके विरुद्ध विद्रोह कर दिया। इन विद्रोहियों ने तैमूर के वंशज बाबर को दिल्ली पर आक्रमण करने के लिए आमंत्रित किया। बाबर और इब्राहीम के मध्य 1526 ईस्वी में पानीपत के मैदान में युद्ध हुआ। इस युद्ध में इब्राहीम की हार हुई और भारत में मुगल वंश की सत्ता स्थापित हुई।

मथुरा की तात्कालिक दशा


सोलहवीं शताब्दी का समय मथुरा के लिए महत्त्वपूर्ण है। इस शताब्दी के प्रारंभ से ही यहां एक नई धार्मिक लहर उठी। भारत के अलग-अलग भागों से बहुत से विद्वान हिन्दू संत-महात्मा मथुरा-वृन्दावन आये।  चैतन्य और उनके शिष्यों ने तथा बल्लभाचार्य एवं अष्टछाप के संतों ने ब्रज का धार्मिक महत्त्व फिर से स्थापित किया। इस काल में इन महापुरुषों के प्रयासों से ब्रज में कृष्ण भक्ति के एक नए युग का सूत्रपात हुआ। मथुरा, वृन्दावन, गोवर्धन, गोकुल आदि स्थान धर्म, दर्शन, काव्य और संगीत के नए केंद्र बने।

तत्कालीन जैन संदर्भों में मथुरा


1348 ईस्वी में लिखित श्रीराजशेखर सूरी कृत प्रबन्ध कोश में श्रीकृष्ण के जन्मस्थान मथुरा और वृंदावन का उल्लेख हुआ है। एक अन्य जैनधर्म ग्रंथ विविधतीर्थ कल्प में मथुरा की गणना तीर्थों में कई गई है। इस ग्रंथ में कई जैन तीर्थंकरों का मथुरा के साथ संबंध वर्णित है। इस पुस्तक के मथुरापुरी कल्प में मथुरा नगरी और यहां के जैन स्तूपों और विहारों का वर्णन है।

(आगे किश्तों में जारी)

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