पूर्व कथा
पिछले भागों में हम यदुवंश, श्रीकृष्ण की कथा, महाजनपदकाल, मौर्य साम्राज्य, शुंगवंश, मथुरा के मित्रवंश, मथुरा के शक, दत्त, कुषाण, नाग, गुप्त वंश, कन्नौज के मौखरि, हर्षवर्धन, कन्नौज के गुर्जर-प्रतीहार, महमूद गजनवी का आक्रमण, कन्नौज के गाहड़वाल, दिल्ली सल्तनत के गुलाम, खिलजी, तुगलक, सैय्यद एवं लोदी आदि वंशों के बाद मुगल वंश के बाबर, हुमायूं, सूरी वंश के शेरशाह सूरी, मुगल वंश के अकबर, जहांगीर, शाहजहाँ व औरंगजेब की है जो ब्रज के लिए एक काले अध्याय से कम नहीं है। औरंगजेब आदि की कहानी सुना चुके हैं। इसके बाद जाट नेता चूड़ामन, बदनसिंह, सूरजमल, जवाहर सिंह आदि का दौर आया। इसके बाद जाट सत्ता कमजोर हुई और इस प्रदेश पर नजफ़ खान ने फिर से मुगलिया सत्ता कायम की। इसके बाद महादजी सिंधिया ने इस क्षेत्र पर प्रभुत्व कायम किया। अब आगे…
महादजी के समय पर मथुरा की दशा
महादजी के नियंत्रण का क्षेत्र दिल्ली, पानीपत, हरियाणा, उत्तरी दोआब, मध्य दोआब तथा मालवा के छह सूबों में विभक्त था। मथुरा का क्षेत्र उत्तरी दोआब के अंतर्गत था, जिसका मुख्यालय कोइल (अलीगढ़) में था। द-ब्वान नामक एक फ्रांसीसी अधिकारी को ब्रज का अधिकांश भाग जागीर के रूप में मिला हुआ था। महादजी की मृत्यु के बाद लखवा दादा को उत्तर भारत का प्रशासक नियुक्त किया गया। लखवा दादा योग्य व्यक्ति था पर तत्कालीन परिस्थितियों के कारण वह शासन को ठीक से संभाल नहीं सका। महादजी और लखवा दादा को ब्रज से बहुत प्रेम था। उन्होंने ब्रज के स्थानों की रक्षा के लिए अनेक कार्य किये। अहल्याबाई का योगदान भी उल्लेखनीय है। काशी की तरह ही मथुरा-वृन्दावन के अनेक मंदिर, घाटों आदि के लिए इस धर्मपरायण रानी ने दान दिए। अठारहवीं शताब्दी में जब ब्रज पर मराठों का शासन दृढ़ रहा तब यहां पहले जैसी लूटमार और विध्वंस की घटनाएं नहीं हुईं।
मराठों का पतन
उन्नीसवीं शताब्दी का प्रारंभ मराठा शक्ति के पतन का समय था। यशवंतराव होल्कर ने अपना प्रभुत्व बढ़ाने के लिए दक्षिण में भयंकर सैन्य अभियान किये। महाराष्ट्र पतन के कगार पर पहुंच गया। असहाय बाजीराव पेशवा ने होल्कर से बचाव का कोई और उपाय न देख खुद को अंग्रेजों के हाथ सौंप दिया। 31 दिसम्बर 1802 ईस्वी का दिन मराठा इतिहास का दुर्भाग्यपूर्ण दिन था जब पेशवा ने बसीन की संधि के पत्र पर हस्ताक्षर कर खुद को पूर्णतया अंग्रेजी संरक्षण में सौंप दिया। अब अंग्रेजी सेना पूना पहुंची और उसने बाजीराव को पेशवा की गौरवहीन गद्दी पर फिर से आसीन कर दिया (13 मई 1803 ईस्वी)।
अंग्रेजों की शक्ति का विस्तार
टीपू की हत्या और हैदराबाद के निजाम को अपना मित्र बना लेने के बाद अंग्रेज दक्षिण की ओर से निश्चिंत हो गए थे। अब उन्होंने उत्तर की ओर शक्ति बढ़ाई। 10 नवम्बर 1801 ईस्वी को अंग्रेजों ने अवध के नवाब सआदत अली खान के साथ संधि कर उससे रुहेलखंड, मैनपुरी, इटावा, कानपुर, फर्रुखाबाद, इलाहाबाद, आज़मगढ़, बस्ती और गोरखपुर के जिले ले लिए। इन जिलों के मिल जाने से अंग्रेजों को बड़ा लाभ हुआ। इन जिलों में अंग्रेजों ने नई शासन व्यवस्था लागू की और यहां बाजार, मेले आदि के आयोजन किये। यह व्यवस्था आकर्षक सिद्ध हुई। सिंधिया के अधीन दोआब के बहुत से व्यापारी अंग्रेजी राज्य में जा बसे। इटावा शहर में रुई की एक बड़ी मंडी स्थापित की गई जो प्रमुख आकर्षण का केंद्र हुई।
अंग्रेज-मराठा युद्ध
अंग्रेजों ने अब मराठों से युद्ध की तैयारी शुरू कर दी। लेक ने सेना को नए सिरे से प्रशिक्षित किया। उसने सिंधिया की सेना के अनेक योग्य यूरोपीय अधिकारियों को लालच देकर अपनी ओर मिला लिया। अनेक भारतीय सिपाही भी इस प्रकार के प्रलोभनों में आकर अंग्रेजों के सहायक बन गए। फ्रांसीसी अधिकारियों द्वारा प्रशिक्षित सिंधिया की सेना अब पहले जैसी तेज नहीं रही थी।
अलीगढ़ और आगरा पर अधिकार
29 अगस्त 1803 ईस्वी को लेक ने अलीगढ़ में पेरों के नेतृत्व वाली मराठा फौज को करारी हार दी। अलीगढ़ के किले पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया। पेरों भागकर मथुरा आ गया। यहां उसने कुछ फौज इकठ्ठी की पर उसे कामयाबी नहीं मिली। सितम्बर 1803 ईस्वी में लेक ने दिल्ली से भी मराठों को हराकर भगा दिया। 16 सितम्बर 1803 ईस्वी को मुगल बादशाह शाहआलम ने खुद को अंग्रेजों के हाथ सौंप दिया। अगले महीने दो अक्टूबर को मथुरा और 18 अक्टूबर को आगरा पर भी अंग्रेजों का आधिपत्य स्थापित हो गया। इसके बाद लासवाडी, असई आदि की लड़ाइयां भी लड़ी गयीं जिनमें मराठों को हार का सामना करना पड़ा। अंत में 30 दिसम्बर 1803 ईस्वी को दौलतराव सिंधिया और अंग्रेजों के मध्य सर्जी अंजनगांव की संधि हुई। इस संधि के अनुसार सिंधिया को गंगा-यमुना दोआब का सारा इलाका पूर्णतया ईस्ट इंडिया कम्पनी को सौंप देना पड़ा।
अंग्रेजों के अधीन मथुरा (1803 – 1947)
सर्जी अंजनगांव की सन्धि से ब्रज प्रदेश पर से मराठा शासन का अंत हो गया। मथुरा, आगरा, अलीगढ़ आदि जिले पूरी तरह ब्रिटिश शासन के अंतर्गत आ गए। मथुरा के जो परगने ईस्ट इंडिया कम्पनी के अधिकार में आये वे नौहझील, सौंसा, मांट, सादाबाद, सहपऊ, महावन और मथुरा थे। इन सब परगनों की सालाना आमदनी छह लाख रुपये थी। दोआब तथा यमुना नदी के पश्चिम में भरतपुर के राजा रणजीत सिंह की जमींदारी का इलाका भी अंग्रेजों के हाथ लगा जिसकी सालाना आमदनी तेरह लाख से अधिक थी। मराठों ने 1784-85 रणजीत सिंह को डीग आदि 11 परगने दिए थे जिनकी आय लगभग दस लाख रुपये थी। अब अंग्रेजों के साथ रणजीत सिंह ने जो संधि की (23 सितम्बर 1803 ईस्वी), के अनुसार उसे लगभग चार लाख रुपए आमदनी के कई और परगने प्राप्त हुए। भरतपुर राज्य की स्वतंत्र सत्ता भी स्वीकार कर ली गई बदले में उसने कम्पनी सरकार का सहायक होना भी स्वीकार कर लिया।
होल्कर से युद्ध
यशवंतराव होल्कर ने लेक से दोआब तथा बुंदेलखंड के अपने बारह जिले और हरियाणा के जिले वापस करने की प्रार्थना की, जो अस्वीकृत हुई। इधर होल्कर की फौज के कई अंग्रेज अफसर कम्पनी से मिलकर उसके विरुद्ध षड्यंत्र बना रहे थे, होल्कर ने ऐसे तीन अफसरों को फांसी दे दी। होल्कर ने मराठा, जाट, राजपूत, बुंदेले, सिख, रुहेले और अफगान – इन सब लोगों को एक करके युद्ध लड़ने की चेष्टा की। परन्तु उसे किसी से सहायत नहीं मिली। यशवंतराव ने पूर्वी राजस्थान में एक मजबूत मोर्चा बनाया। गवर्नर जनरल वेलेजली ने अपने भाई आर्थर, लेक, मॉनसन तथा कई अन्य सेनापतियों के नेतृत्व में फौज तैयार कराई और होल्कर को घेरने भेजा। होल्कर बड़ी कुशलता से अपना बचाव करता रहा। बुंदेलखंड और मालवा में कई स्थानों पर कशमकश हुई। कोंच की अंग्रेज छावनी को पूरी तरह नष्ट कर दिया गया। सिंधिया की कुछ सेना तथा अंग्रेजों की भारतीय पलटन के बहुत से सिपाही होल्कर के साथ मिल गए।
मथुरा पर होल्कर का कब्जा
भरतपुर का राजा रणजीत सिंह अब होल्कर के पक्ष में हो गया। 15 सितम्बर 1804 ईस्वी को यशवंतराव साठ हजार घुड़सवार, पन्द्रह हजार पैदल और 192 तोपों सहित मथुरा आया। कर्नल ब्राउन की अध्यक्षता में जो अंग्रेजी सेना मथुरा में थी वह डरकर आगरा भाग गई। उसका सारा सामान होल्कर के हाथ लगा। मथुरा पर होल्कर का अधिकार कुछ ही समय तक रहा। चार अक्टूबर को लेक सिकन्दरा होते हुए मथुरा आ पहुंचा और उसने नगर पर फिर अपना कब्जा कर लिया। होल्कर दिल्ली की ओर चला गया और उसने दिल्ली को घेर लिया। परन्तु वह दिल्ली को जीत नहीं सका और दोआब में चला गया।
भरतपुर पर लेक का घेरा
होल्कर का पीछा करते हुए जब लेक दोआब में पहुंचा तो होल्कर डीग आ गया। उसने भरतपुर के किले में शरण ली। लेक ने भरतपुर के किले का घेरा डाल दिया। इस किले को भेदने के लेक के सब प्रयास असफल हुए। दिल्ली, आगरा और अलीगढ़ के किलों का विजेता लेक यहां खुद को असहाय महसूस कर रहा था। अंत में रणजीत सिंह के साथ संधि हुई। लेक ने घेरा हटा लिया और रणजीत सिंह ने उसे 20 लाख रुपया हर्जाना दिया। सौंख, सौंसा और सहार आदि कई परगने अंग्रेजों को वापस करने पड़े। डीग के किले पर अंग्रेजी फौज रखी गई। गोवर्धन का परगना रणजीत सिंह के पुत्र लक्ष्मण सिंह के अधिकार में रहा। इस संधि के बाद होल्कर भरतपुर छोड़कर दक्षिण की ओर चला गया।
होल्कर और लेक के मध्य संधि
होल्कर अब ग्वालियर पहुंचा जहां वह दौलतराव सिंधिया से मिला। पेशवा और भोंसले के दूत भी वहीं होल्कर से मिले। होल्कर अब मराठा शक्ति को एकीकृत करके अंग्रेजों से लड़ना चाहता था। यह सुनकर लेक भी सेना लेकर ग्वालियर की ओर चल पड़ा। होल्कर अजमेर की ओर चला गया। जुलाई 1805 ईस्वी में वेलेजली के स्थान पर कार्नवालिस गवर्नर जनरल बनकर भारत आया। उसने सिंधिया को ग्वालियर और गोहद के इलाकों का लालच देकर अपनी ओर मिला लिया। अब होल्कर अकेला रह गया। उसे राजपूतों से कोई सहायता नहीं मिल सकी। वह सिखों की सहायता प्राप्त करने अमृतसर पहुंचा पर वहां से भी उसे कोई मदद नहीं मिली। वह अफगानों की सहायता हासिल करने पेशावर की ओर जाने लगा। तभी लेक ने उसे संदेश भेजा कि यदि वह लौट आये तो उसे उसके सारे इलाके वापस दे दिए जाएंगे। इस आधार पर दिसम्बर 1805 ईस्वी में दोनों के मध्य संधि हो गई।
होल्कर का दुःखद अंत
यह संधि अधिक समय तक नहीं चल पाई। लेक ने होल्कर को परास्त करने की पूरी तैयारी कर ली। भरतपुर के राजा रणजीत सिंह ने अब लेक की मदद की। डीग का किला अब लेक ने रणजीत सिंह को सौप दिया। सात दिसम्बर 1805 ईस्वी को अंग्रेजी और जाट सेना ब्यास नदी के तट पर पहुंच गईं। वहां होल्कर की फौज के साथ मुकाबला हुआ। होल्कर की सीमित फौज अधिक दिन तक संघर्ष नहीं कर सकी। अंत में छह जनवरी 1806 ईस्वी को होल्कर को अंग्रेजों के साथ संधि करनी पड़ी। इस संधि के अनुसार उसका बहुत बड़ा इलाका अंग्रेजों को मिला। 1808 ईस्वी से यशवंतराव होल्कर विक्षिप्त रहने लगा और 1811 ईस्वी में उसकी मृत्यु हो गई।
(आगे किश्तों में जारी)
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