मथुरा की कहानी भाग पन्द्रह

पूर्व कथा

पिछले भागों में हम यदुवंश, श्रीकृष्ण की कथा, महाजनपदकाल, मौर्य साम्राज्य, शुंगवंश, मथुरा के मित्रवंश, मथुरा के शक, दत्त, कुषाण, नाग, गुप्त वंश, कन्नौज के मौखरि, हर्षवर्धन, कन्नौज के गुर्जर-प्रतीहार, महमूद गजनवी का आक्रमण, कन्नौज के गाहड़वाल, दिल्ली सल्तनत के गुलाम, खिलजी, तुगलक, सैय्यद एवं लोदी आदि वंशों के बाद मुगल वंश के बाबर, हुमायूं, सूरी वंश के शेरशाह आदि की कहानी बता चुके हैं। इसके बाद अकबर की उदार नीति से ब्रज में वैभव का संचार हुआ जो जहांगीर के समय भी जारी रहा। उसके बाद की कहानी औरंगजेब की है जो ब्रज के लिए एक काले अध्याय से कम नहीं है। अब आगे…

ब्रज से मूर्तियों का बाहर जाना

हालांकि औरंगजेब ब्रज के मंदिरों को तोड़ने का आदेश पहले ही दे चुका था पर गोकला के विद्रोह के कारण यह आदेश तत्काल अमल में नहीं आ पाया। इस आदेश की सूचना आम जनता को कग चुकी थी। इसलिए तमाम मन्दिरों के पुजारियों ने इन मंदिरों की मूर्तियों को सुरक्षा की भावना से ब्रज से बाहर ले जाना शुरू कर दिया। बल्लभकुल का प्रमुख मंदिर गोवर्धन में था जो श्रीनाथजी के नाम से प्रसिद्ध था। 30 सितम्बर 1669 ईस्वी को वहां के गोसाईं श्रीनाथजी की प्रतिमा को लेकर निकले। छिपते-छिपाते वे बूंदी, कोटा, पुष्कर, किशनगढ़ और जोधपुर गए। पर औरंगजेब के भय से किसी ने भी उस मूर्ति को अपने राज्य में रखना स्वीकार नहीं किया। अंत में मेवाड़ के महाराणा राजसिंह ने श्रीनाथजी का सहर्ष स्वागत किया। 10 फरवरी 1672 ईस्वी के दिन सिंहाड़ (नाथद्वारा) गांव में वह मूर्ति स्थापित की गई। गोवर्धन के द्वारकाधीश की मूर्ति मेवाड़ के कांकरोली में स्थापित की गई। वृन्दावन में आमेर के राजा मानसिंह द्वारा बनवाये गए गोविन्ददेव जी की मूर्ति को उनके वंशज आमेर ले गए। 

केशवराय व अन्य मंदिरों का ध्वंस

मथुरा परगने का विद्रोह खत्म होते ही मन्दिर तोड़ने का आदेश अमल में लाया जाने लगा। 13 जनवरी 1670 को औरंगजेब ने मथुरा के प्रसिद्ध केशवराय मंदिर को तोड़ने का आदेश जारी किया। यह आदेश जल्द ही अमल में लाया गया। थोड़े ही समय में यह मंदिर नष्ट कर दिया गया। इसके स्थान पर एक बड़ी मस्जिद बना दी गई। इसके बाद मथुरा, वृन्दावन और सारे ब्रजमंडल का एक-एक मंदिर तोड़ा गया। वहां की मूर्तियां विनष्ट की गईं। इस समय हसन अली ने इतनी कठोरता से दमनचक्र चलाया कि उसका विरोध करने का साहस किसी को नहीं रहा।

जब बदल दिए मथुरा और वृन्दावन के नाम

औरंगजेब ने मथुरा और वृन्दावन नगरों के नाम भी बदलने के आदेश जारी किए। उसने मथुरा का नाम बदलकर इस्लामाबाद और वृन्दावन का नाम बदलकर मोमिनाबाद कर दिया गया। किंतु ये नए नाम शाही कागजातों तक ही सीमित रहे। कुछ मुगल इतिहासकारों ने भी इनका प्रयोग किया। आम जनता ने इन नामों को न कभी प्रयोग किया न ही अपनाया।

औरंगजेब के दक्कन जाने से मिली राहत

औरंगजेब ने अपने जीवन के अंतिम 25 वर्ष दक्कन में बिताए और वहीं पर उसकी मृत्यु हुई। इस कालखण्ड में ब्रज प्रदेश को कुछ राहत मिली। गोकला के बाद मथुरा परगने का विद्रोह भले ही दब गया था पर चिनगारी अंदर ही अन्दर सुलग रही थी। औरंगजेब निरन्तर दक्कन के युद्धों में व्यस्त था। उत्तर के अन्य दूसरे हिस्सों की तरह ब्रज प्रदेश के शासन में भी शिथिलता आ रही थी। यहां के शासन प्रबंध के लिए पर्याप्त धन नहीं मिल रहा था। इसलिए शांति और सुरक्षा के लिए जरूरी सिपाहियों की भी यहां कमी होने लगी। शाही शासन का स्वरूप अब निर्बल दिखने लगा था। शाही सेना की असफलता, शहजादे अकबर का विद्रोह और शम्भाजी के सफल धावों की खबरें ब्रज तक भी पहुंच रही थीं। इन खबरों को सुनकर लोगों के हृदय से मुगल सत्ता का आतंक खत्म होता जा रहा था।

जाट शक्ति का उत्थान

ब्रज प्रदेश में घटती मुगल शक्ति के इस वातावरण का फायदा जाटों के दो नए नेताओं राजाराम और रामचेहरा ने उठाया। उन्होंने जाटों की सेना संगठित कर उन्हें बन्दूक चलाने से लेकर सैनिक अनुशासन आदि की शिक्षा दी। उन्होंने मुख्य रास्तों से दूर बीहड़ जंगलों में अनेक सुदृढ़ गढियाँ बनवाईं। दिल्ली से मालवा होकर दक्षिण जाने वाला राजमार्ग आगरा और धौलपुर होता हुआ ब्रज प्रदेश से ही गुजरता था। युद्ध सामग्री और शाही खजाना भी इसी राह से दक्षिण भेजा जाता था। उनकी सुरक्षा के लिए उचित प्रबंध भी नहीं होता था। राजाराम और रामचेहरा क नेतृत्व में इस राजमार्ग पर लूटपाट होने लगी। लूट के लिए आगरा तक भी धावे बोले जाने लगे। आगरा के सूबेदार सफी खां जाटों के इस उपद्रव को दबाने में असफल रहा। ब्रज प्रदेश के मार्ग असुरक्षित होने के कारण बन्द हो गए थे। इसी बीच काबुल से बीजापुर जाते हुए सुप्रसिद्ध तूरानी वीर अगर खां को राजाराम ने धौलपुर के पास मार डाला। 

राजाराम ने खोद डाली अकबर की कब्र

जाटों के इस विद्रोह को दबाने के लिए औरंगजेब ने 1686 ईस्वी में खानजहां को भेजा। इसे सफलता नहीं मिली तब अंत मे उसने अपने पोते बेदारबख्त को दक्षिण से 1687 ईस्वी में भेजा। इससे पहले कि बेदारबख्त यहां पहुंचता राजाराम ने और भी दुस्साहस दिखाया। उसने पंजाब के नए सूबेदार महावत खां व उसके काफिले को राजमार्ग से गुजरते समय लूट लिया। राजाराम ने आगरा के सिकन्दरा में बने अकबर के मकबरे पर धावा बोल दिया। उसने सारी बहुमूल्य वस्तुएं लूट लीं। उसने अकबर की कब्र को खोद डाला और उसकी हड्डियों को निकाल कर जला दिया। इधर बेदारबख्त यहां पहुंच कर जाट विद्रोह को दबाने के प्रयास में जुट गया। उसने मथुरा में अपनी छावनी बनाई और युद्ध सामग्री एकत्र की। औरंगजेब ने बेदारबख्त की मदद के लिए आमेर के राजा बिशन सिंह को मथुरा का फौजदार नियुक्त करके भेज दिया। सिनसिनी का परगना भी बिशन सिंह की जागीर में दे दिया कि वह उसे जाटों से छीनकर अपने अधिकार में कर ले। पर इस विद्रोह की आग सारे ब्रज प्रदेश में सुलग रही थी। इसलिए बहुत समय तक बेदारबख्त कि हिम्मत मथुरा से बाहर निकलने की ही नहीं हुई।

राजाराम की मृत्यु

उस समय मेवात में अपनी जमीदारियों की सीमा को लेकर चौहान और शेखावत राजपूतों में खींचतान चल रही थी। चौहानों ने राजाराम जाट को अपनी मदद के लिए बुलाया और मेवात के मुगल फौजदार ने शेखावतों की मदद की। इन दोनों गुटों के मध्य जमकर लड़ाई हुई। इस लड़ाई में चार जुलाई 1688 ईस्वी को राजाराम की मृत्यु हो गई। राजाराम के मरने के बाद उसके पुत्र जोरावर एवं फतहराम ने बारी-बारी से जाटों का नेतृत्व किया। राजाराम के वयोवृद्ध पिता भज्जा ने भी कुछ समय तक यह भार उठाया। 

मुगलों ने किया सिनसिनी पर अधिकार

राजाराम की मृत्यु के बाद बदली हुई परिस्थिति में बेदारबख्त ने सिनसिनी के किले पर घेरा डाल दिया। उस प्रदेश में बीहड़ जंगल, यातायात की कमी, पानी, घास और चारे की कमी के कारण मुगल सेना को बहुत मुश्किलों का सामना करना पड़ा। इस कठिन परिस्थिति में बिशन सिंह के अनुभवी सेनानायक हरीसिंह खंगारोत की चतुराई ने शाही सेना को भूखों मरने से बचा लिया। अंत में जनवरी 1690 ईस्वी में सुरंग लगाकर किले की दीवार तोड़ दी गई और शाही सेना किले में प्रवेश कर गई। जाटों ने जमकर मुकाबला किया। घमासान युद्ध में शाही सेना के 900 सैनिक मारे गए और 1500 जाट सैनिक मारे गए। किले पर मुगल सेना का कब्जा हो गया। जाटों का नेता जोरावर मुगलों के हाथ कैद हो गया। उसकी निर्दयतापूर्वक हत्या कर दी गई। अगले वर्ष मई 1691 ईस्वी में जाटों के दूसरे सुदृढ़ केंद्र सोगर पर भी बिशन सिंह ने अधिकार कर लिया।

बिशनसिंह को मथुरा की फौजदारी से हटाया

राजाराम की मृत्यु के बाद कुछ समय के लिए जाटों का संगठन टूट गया। बिशन सिंह ने एक-एक कर जाट सरदारों को हराया। इतना सब कुछ होने पर भी जाट विद्रोह पूरी तरह से खत्म नही हुआ था। जाटों के साथ-साथ ब्रज के राजपूत भी विद्रोही हो गए थे। मेवात में अलवर के पास कान्हा नरुका और हिंडौन-बयाना के बीच रण सिंह पंवार शाही सत्ता के विरोध में जुटे थे। सारा ब्रज प्रदेश ऊबड़ खाबड़ और दुर्गम जंगलों से भरा हुआ था। यहां के निवासी भी जिस मजबूती से विरोध कर रहे थे ऐसे में यहां सुव्यवस्थित शासन चलाना असम्भव हो गया था। कृषि लगान तक वसूल करने के लिए भी सेना भेजनी पड़ती थी। बिशनसिंह के पास न इतना धन था न ही इतने सैनिक कि वह इनसे लगातार जूझ सके। जाटों का विद्रोह पूरी तरह खत्म न होने का जिम्मेदार औरंगजेब ने बिशनसिंह को समझा और उसे मथुरा की फौजदारी से हटा दिया। 

चूड़ामन जाट का उत्थान (1696 – 1718 ईस्वी)

चूड़ामन राजाराम का ही भाई था। उसने जाटों को फिर से संगठित किया। ब्रज क्षेत्र की दूसरी जातियों के लोग भी बड़ी संख्या में उससे जुड़े। उसने जाट शक्ति का पुनरुथान किया। उसने कुशलता से संगठन बनाया। सैनिकों और बन्दूकचियों के साथ उसने भालेदारों और घुड़सवारों के दल भी संगठित किये। 1704 ईस्वी में उसने सिनसिनी के किले पर फिर से अधिकार कर लिया। पर यह किला बहुत समय तक चूड़ामन के हाथ मे नहीं रहा। आगरा के किलेदार मुख्त्यार खां ने अक्टूबर 1705 ईस्वी में सिनसिनी के किले को चूड़ामन से छीन लिया। इस तरह चूड़ामन और मुगलों के मध्य संघर्ष चलता रहा। औरंगजेब के जीवनकाल में चूड़ामन को अपना प्रभाव बढ़ाने का पर्याप्त अवसर नहीं मिला। लगभग इसी समय से ब्रज प्रदेश में जाट इतिहास ही ब्रज प्रदेश का इतिहास बनना शुरू हो जाता है। 

औरंगजेब की मृत्यु

20 फरवरी 1707 ईस्वी के दिन अहमदनगर में औरंगजेब की मृत्यु हो गई। उसकी मृत्यु के बाद उसके पुत्र मुअज्जम और आजम में उत्तराधिकार का युद्ध छिड़ गया। जमरूद से मुअज्जम और अहमदनगर से आजम आगरा की और बढ़े। मुअज्जम का पुत्र अजीम बिहार की सूबेदारी पर नियुक्त था। वह अपने पिता का पक्ष मजबूत करने के लिए तत्काल आगरा जा पहुंचा और किले पर अधिकार कर लिया। आगरा से 20 मील दक्षिण में जाजौ के युद्ध क्षेत्र में मुअज्जम ने आजम को हराकर विजय प्राप्त की। वह बहादुरशाह के नाम से मुगल सम्राट बना। जाजौ के इस युद्ध में चूड़ामन भी पहुंच गया था। वह किसी भी शहजादे के पक्ष में नहीं लड़ा बल्कि उसने दोनों ही पक्षों के सैन्य शिविरों को लूटा। इन युद्ध की लूट से चूड़ामन को बहुत माल मिला। जिससे उसने अपनी शक्ति बढ़ाई और वह बहुत ताकतवर बन गया। 

चूड़ामन को मिला मनसब

बहादुरशाह के गद्दी पर बैठने के बाद चूड़ामन ने उससे मेल कर लिया। वह स्वयं शाही दरबार में उपस्थित हुआ। उसे डेढ़ हजारी जात और 900 सवारों का मनसब प्रदान किया गया। अगले पांच साल तक चूड़ामन ने मुगल सम्राट के साथ पूर्ण सहयोग किया। इस दौरान दूसरे जाट जमींदारों पर मुगल साम्राज्य की ओर से दबाव डाला जाने लगा। शाही फौजदार रियाज खां ने नवम्बर 1707 ईस्वी में सिनसिनी पर आक्रमण कर वहां से सैकड़ों हथियार जब्त किए और एक हजार विद्रोहियों को मारा। रियाज खां ने कामां के जमींदार अजीत सिंह पर आक्रमण किया। चूड़ामन तब रियाज खां के साथ था। इस युद्ध में चूड़ामन जख्मी हुआ जबकि रियाज खां मारा गया। कुछ समय तक ब्रज प्रदेश में बहुत कुछ शांति हो गई। जून 1710 ईस्वी में बहादुरशाह सिक्खों के विद्रोह को दबाने पंजाब गया तब चूड़ामन भी उसके साथ गया।

चूड़ामन की शक्ति का विस्तार

बहादुरशाह के मरने के बाद उसका बड़ा पुत्र जहांदार शाह मुगल सम्राट बना। जहांदार शाह रंगरेलियों में मस्त रहने वाला व्यक्ति था। अब चूड़ामन अपने प्रदेश में वापस लौट आया। इस समय तक वह बहुत शक्तिशाली बन गया था। ब्रज प्रदेश के लिए वह एक तरह से बेताज का राजा था। अपने साहस के बल पर और मुगल शासन की निर्बलता के कारण वह ब्रज प्रान्त की हिन्दू जनता का एकमात्र नेता बन सका था। पंजाब से पंजाब से लौटने पर उसने अपनी शक्ति और बढ़ा ली थी। दिसम्बर 1712 ईस्वी में जहांदार शाह के भतीजे फर्रूखशियर ने विद्रोह कर दिया। जहांदार शाह जब अपने भतीजे का दमन करने आगरा पहुंचा तब उसने अपनी सहायता के लिए चूड़ामन की बुलाया। चूड़ामन आगरा गया तो अवश्य पर उसने युद्ध में किसी की मदद नहीं की बल्कि दोनों ही पक्षों को जमकर लुटा। 31 दिसम्बर 1712 ईस्वी को हुए इस युद्ध में जहांदार शाह की हार हुई और फर्रूखशियर मुगल सम्राट बना। फर्रूखशियर ने चूड़ामन को काबू करने के प्रयास शुरू किए। उसने राजा छबीलेराम को आगरा के सूबेदार बनाया। छबीलेराम राम ने चूड़ामन को शक्तिहीन करने के बहुत प्रयास किये पर वह सफल नहीं हो सका। चूड़ामन को परोक्ष रूप से मुगल साम्राज्य के वजीर सैय्यद अब्दुल्ला और उसके भाई हुसैन अली की सहायता मिल रही थी।

थूण के गढ़ का निर्माण

राजा छबीलेराम को हटाकर उसके स्थान पर खानदौरान को आगरा का सूबेदार नियुक्त किया गया। खानदौरान ने चूड़ामन से मेल किया। समझाने बुझाने पर सितम्बर 1713 ईस्वी में चूड़ामन दिल्ली में मुगल बादशाह के सामने हाजिर हुआ। मुगल दरबार ने इस बार चूड़ामन को दिल्ली से चम्बल तक के रास्तों की निगरानी का दायित्व सौंपा। अब चूड़ामन ने ब्रज पर पूर्ण आधिपत्य स्थापित किया और अपने इलाकों को बढ़ाने में लग गया। उसका दुस्साहस अब और बढ़ गया था। एक ओर वह रास्ते से गुजरने वालों से अतिरिक्त कर वसूलना शुरू कर दिया वहीं दूसरी ओर उसने शाही कर देना भी बंद कर दिया। उसने अपने लिए घने जंगलों के बीच थूण नामक स्थान पर एक मजबूत गढ़ भी बनवाया। 

चूड़ामन के विरुद्ध जयसिंह का अभियान

चूड़ामन की हरकतों से मुगल सम्राट फर्रुखसियर बहुत नाराज हो गया था। उसने आमेर के राजा सवाई जयसिंह को चूड़ामन के विरुद्ध सेना सहित भेजा। 1716 ईस्वी में बरसात के बाद सवाई जयसिंह सेना लेकर थूण के किले की ओर बढ़ा। नवम्बर मास में उसने थूण के गढ़ को जा घेरा। चूड़ामन किले में रहकर बचाव का आयोजन कर रहा था वहीं उसके पुत्र और भतीजे किले के बाहर अलग-अलग स्थानों पर मोर्चा संभाले हुए थे। उस दुर्गम प्रदेश के जंगलों को काटकर गढ़ तक पहुंचने में जयसिंह का बहुत खर्चा और मेहनत हुई और समय भी बहुत लगा। इतने में चूड़ामन को अवसर मिल गया और उसने दिल्ली में मौजूद अपने वकील के माध्यम से वजीर सैय्यद अब्दुल्ला से बात की। इधर जयसिंह ने भी अतिरिक्त धन और सेना की मांग बादशाह फर्रुखसियर से की। फर्रूखशियर नाम मात्र का सम्राट था। शासन की असली शक्ति सैय्यद बंधुओं के हाथ में थी। फर्रूखशियर चाह कर भी जयसिंह की मदद नहीं कर पाया। इतना ही नहीं फर्रूखशियर को सैय्यद बन्धुओं के दबाव में उसने चूड़ामन के संधि प्रस्ताव को भी स्वीकार कर लिया। शाही खजाने में तीस लाख रुपए और वजीर को निजी तौर पर बीस लाख रुपए देने का वायदा करके चूड़ामन एक बार फिर मुगल दरबार का हिस्सा बन गया। इधर जयसिंह को मजबूर होकर थूण का घेरा उठाना पड़ा। 

यहां से एक होती है मथुरा और भरतपुर की कहानी

मथुरा की यह कहानी जो अब तक आप पढ़ रहे हैं ज्यादातर दो कहानियां समानांतर चलती हैं। एक तो तात्कालिक राष्ट्रीय राजनीति की और दूसरी तात्कालिक स्थानीय राजनीति की। मथुरा की स्थानीय राजनीति अब मुगल काल की छाया से बाहर निकलकर जाट शासन की अधीन जा रही थी। यह शासन सिनसिनी या थूण जिन भी स्थानों से संचालित हो रहा था वे मथुरा के बेहद नजदीकी स्थान थे और ब्रज की परिधि में ही थे। यहां के विद्रोही जाट नेताओं को वर्तमान मथुरा जिले के निवासियों से हर तरह का सहयोग मिलता था। चूड़ामन के साथियों और सहयोगियों में बड़ी संख्या में मथुरा जिले के लोग थे। बाद में बदनसिंह और सूरजमल के समय पर तो जाट दरबार के अधिकांश बड़े पदों पर मथुरा ही लोग आसीन थे। इनमें से अधिकांश लोग ऐसे थे जिन्होंने भरतपुर राज्य की सत्ता जमाने में सूरजमल के कंधे से कंधा मिलाकर काम किया था। अतः अब आगे की कहानी भरतपुर दरबार की कहानी के नाम से लिखी गई है पर है यह मथुरा की ही कहानी।

मुगल सम्राट मुहम्मद शाह

फर्रुखसियर के बाद ईस्वी 1720 में मुहम्मद शाह मुगल सम्राट हुआ। इसने सैय्यद बन्धुओ की शक्ति को कुचलने में सफलता पाई। चूड़ामन इस समय पर ब्रज प्रदेश का अघोषित राजा था। 

चूड़ामन ने एक ओर तो मुगल सम्राट के प्रति सहयोग का भाव दर्शाया पर दूसरी ओर वह मुगल साम्राज्य की खिलाफत करने में भी नहीं चूकता था। वह अक्सर शाही माल को लूट लेता था। जोधपुर के राजा अजीतसिंह के विरुद्ध भेजी गई शाही सेना के रास्ते में उसने बहुत सी मुश्किलें पैदा कीं। चूड़ामन ने इलाहाबाद के मुगल सूबेदार मुहम्मद खां बंगश के खिलाफ बुंदेलों की भी मदद की। चूड़ामन की इन हरकतों से बादशाह उससे नाराज हो गया। 

आगरा के मुगल सूबेदार सआदत खां ने नीलकंठ नागर को जाटों पर हमला करने के लिए भेजा। नीलकंठ ने जाटों के एक गांव पर हमला किया। इसके जवाब में चूड़ामन के बड़े पुत्र मोहकम सिंह ने शाही सेना पर हमला किया। इस लड़ाई में नीलकंठ नागर मारा गया। 

चूड़ामन की मृत्यु

चूड़ामन की मृत्यु 1721 ईस्वी में हुई। कहते हैं कि उसके बेटों के मध्य झगड़ा हो गया था। चूड़ामन इस झगड़े को रोकने में असफल रहा तो उसने आत्महत्या कर ली। जाटों का नेतृत्व अब चूड़ामन के पुत्र मोहकम सिंह के हाथ में आया। इस बीच चूड़ामन के भतीजे बदनसिंह ने सआदत खां से मेल कर लिया पर जल्द ही सआदत खां को आगरा की सूबेदारी से हटा दिया गया। आमेर के राजा सवाई जयसिंह को अब आगरा की सूबेदारी सौंपी गई। जयसिंह को जाटों का दमन करने के निर्देश दिए गए।

थूण का पतन

1722 ईस्वी में जयसिंह ने15 हजार घुड़सवारों के साथ थूण की ओर प्रस्थान किया। उसने आसपास के जंगलों को साफ कराया और करीब डेढ़ महीने तक थूण के किले को घेरे रखा। इस बीच बदनसिंह और जयसिंह के मध्य मेल हो गया। एक रात को मोहकम किले से निकलकर भाग गया और 18 नवम्बर 1772 ईस्वी को थूण का किला जीत लिया गया। मोहकम भाग कर जोधपुर चला गया और उसने वहां के राजा अजीतसिंह के यहां शरण ली। इस विजय से जयसिंह का सम्मान बढ़ा और उसे ‘राजराजेश्वर श्री राजाधिराज महाराज सवाई जयसिंह’ का विरुद प्राप्त हुआ।

(आगे किश्तों में जारी)

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