मथुरा की कहानी भाग दस


पूर्व कथा

पिछले भागों में हम यदुवंश की शुरूआत, श्रीकृष्ण की कथा, महाजनपदों का विवरण, मौर्य साम्राज्य, शुंगवंशी राजाओं, मथुरा के मित्रवंशी राजाओं, मथुरा के शक शासक राजुबुल, शोडास, मथुरा के दत्त शासक, कुषाण शासक विम तक्षम, कनिष्क, वासिष्क, हुविष्क, वासुदेव, नाग राजाओं, गुप्त वंश के चन्द्रगुप्त प्रथम, समुद्रगुप्त, चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य, कुमारगुप्त आदि से आगे कन्नौज के मौखरि शासकों, हर्षवर्धन के बाद कन्नौज के गुर्जर-प्रतीहार शासकों तक की कथा का वर्णन कर चुके हैं। अब आगे…

महमूद गजनवी का आक्रमण


ग्यारहवीं शती के आरम्भ में उत्तर-पश्चिम की ओर से मुसलमानों के आक्रमण होने लगे। गजनी के मूर्तिभंजक सुल्तान महमूद गजनवी ने सत्रह बार भारत पर आक्रमण किये। हर बार वह लूटपाट करके गजनी लौट जाता था। अपने नवें आक्रमण (1017 ईस्वी) का निशाना उसने मथुरा की बनाया। महमूद के मीर-मुंशी अल-उत्वी ने अपनी पुस्तक ‘तारीखे यामिनी’ में इस आक्रमण का विस्तार से वर्णन किया है।

महावन का राजा कुलचंद


महमूद के आक्रमण के समय महावन में कुलचंद नामक राजा का किला था। यह एक शक्तिशाली राजा था। उसने महमूद की सेना का सामना किया पर विजय प्राप्त नहीं कर सका। इस युद्ध मे कुलचंद के पचास हजार सैनिक मारे गए। अपनी पराजय सुनिश्चित जान राजा ने एक खंजर से अपनी पत्नी को मार डाला तथा उसी खंजर से खुद को भी खत्म कर लिया। महमूद को इस विजय से 185 बढ़िया हाथी तथा और भी बहुत सा अन्य माल भी मिला। इसके बाद महमूद गजनवी की फौज मथुरा पहुंची।

तत्कालीन मथुरा का वर्णन


मथुरा शहर का वर्णन करते हुए अल-उत्वी ने कुछ इस तरह लिखा है। ‘इस शहर में निहायत उम्दा ढंग से बनी हुई एक इमारत थी जिसे लोगों ने मनुष्यों की रचना न बताकर देवताओं की कृति बताया। नगर का परकोटा पत्थर का बना हुआ था, जिसमें नदी की ओर दो ऊंचे और मजबूत दरवाजे बने थे। शहर के दोनों तरफ हजारों मकान बने हुए थे जिनसे लगे हुए देव मन्दिर थे। ये सब पत्थर के बने हुए थे। और लोहे की छड़ों द्वारा मजबूत कर दिए गए थे। उनके सामने दूसरी इमारतें बनी हुई थीं, जो सुदृढ़ लकड़ी के खंभों पर आधारित थीं। शहर के बीच में सभी मंदिरों से ऊंचा एवं सुंदर एक मंदिर था, जिसका पूरा वर्णन न तो चित्र रचना द्वारा और न लेखनी द्वारा किया जा सकता है।’

महमूद गजनवी द्वारा मन्दिर का वर्णन


इस विशाल और भव्य मंदिर के बारे में महमूद गजनवी के स्वयं कुछ इस तरह वर्णन किया है : 

‘यदि कोई व्यक्ति इस प्रकार की इमारत बनवाना चाहे तो उसे दस करोड़ दीनार (स्वर्ण मुद्रा) से कम  खर्च करने पड़ेंगे। और उसके निर्माण में 200 वर्ष लगेंगे। चाहे उसमें बहुत ही योग्य और अनुभवी कारीगरों को ही क्यों न लगा दिया जाए।’

महमूद गजनवी ने आज्ञा दी कि सभी मंदिरों को जलाकर धराशायी कर दिया जाए।

महमूद गजनवी द्वारा मथुरा की बर्बादी


महमूद की सेना बीस दिनों तक लगातार शहर को लुटती रही। इस लूट में महमूद के हाथ खालिस सोने की पांच मूर्तियां लगीं, जिनकी आंखें बहुमूल्य माणिक्यों से जड़ित थीं। इनका मूल्य 50 हजार दीनार था। केवल एक मूर्ति का वजन ही चौदह मन था। इन मूर्तियों तथा चांदी की बहुत सी प्रतिमाओं को सौ ऊंटों की पीठ पर लाद कर गजनी ले जाया गया। महमूद के द्वारा मथुरा की बर्बादी का विवरण बदायूंनी और फरिश्ता के लेखों में भी मिलता है। मथुरा की बर्बादी के बाद लुटेरे यहां नहीं ठहरे। कुलचंद के बाद उसके वंश में कौन शासक हुए इसका कुछ पता नहीं चलता है।

महमूद गजनवी के बाद मथुरा


महमूद गजनवी के बाद कुछ समय तक मथुरा प्रदेश की दशा का ठीक पता नहीं चलता है। लेकिन इस समय पर राजनीतिक परिवर्तन सारे उत्तर भारत में होने लगा था। हरियाणा के तौमर दक्षिण की तरह अपनी प्रभुता का प्रसार करने लगे थे। राजस्थान के चाहमान लोगों ने भी मथुरा की ओर बढ़ना शुरू किया। अजमेर से दिल्ली तक का प्रदेश उनके अधिकार में हो गया। ग्वालियर के आसपास कछवाहा राजपूतों ने अपना आधिपत्य जमा लिया। कछवाहों और बुंदेलखंड के चंदेलों ने कई बार उनसे टक्करें लीं। महमूद के हमलों की समाप्ति के बाद कछवाहों और चंदेलों के धावे प्रतीहार राजाओं के केंद्र कन्नौज तक होने लगे। ग्यारहवीं शती के उत्तरार्ध में राष्ट्रकूट वंश की एक शाखा का अधिकार कुछ समय के लिए कन्नौज पर स्थापित हो गया था। चालुक्य राजा सोमेश्वर प्रथम तथा चोलराज वीरराजेंद्र ने भी कन्नौज पर आक्रमण किये।

गाहड़वाल वंश का आधिपत्य


ग्यारहवीं शती बीतते-बीतते उत्तर भारत में एक नई शक्ति संगठित हुई, जो गाहड़वाल वंश के नाम से प्रसिद्ध है। इस वंश की शुरुआत महाराजा चंद्रदेव से हुई। इसने अपने राज्य का विस्तार कन्नौज से लेकर बनारस तक कर लिया।

गोविंदचंद्र (1112 से 1155 ईस्वी तक)


चंद्रदेव के बाद उसका पुत्र मदनचंद्र कुछ समय तक शासन का अधिकारी हुआ। उसके बाद उसका यशस्वी पुत्र गोविंदचंद्र शासक हुआ। गोविंदचंद्र ने कन्नौज का गौरव फिर से स्थापित किया। उसने अपने राज्य का विस्तार किया और सम्पूर्ण उत्तर प्रदेश और मगध के बड़े भाग पर अधिकार कर लिया। उसने चंदेलों को हराकर उनसे मालवा का पूर्वी भाग छीन लिया। गोविंदचंद्र के सोने और तांबे के सिक्के मथुरा से लेकर बनारस तक मिलते हैं। 

विजयचंद्र या विजयपाल (1155 से 1170 ईस्वी)


गोविंदचंद्र के बाद उसका पुत्र विजयचंद्र राज्य का शासक हुआ। इसने एक युद्ध में गजनी के शासक खुसरो को पराजित किया था। इसने अपने राज्य में कई विष्णु मंदिरों का निर्माण कराया था। मथुरा में श्रीकृष्ण जन्मस्थान पर संवत 1207 विक्रमी (1150 ईस्वी) में विजयचंद्र ने एक भव्य मंदिर का निर्माण कराया था। उस समय तक विजयचंद्र कन्नौज का शासक नहीं बना था। वह अपने पिता की ओर से मथुरा का शासक था। अभिलेख में इसका नाम विजयपाल देव दिया गया है। पृथ्वीराज रासो में भी विजयचंद्र का नाम विजयपाल ही मिलता है। विजयपाल द्वारा श्रीकृष्ण जन्मस्थान पर बनवाये गए मन्दिर के बारे में प्राप्त लेख से और भी बहुत कुछ जानने को मिलता है। इस लेख के अनुसार नवनिर्मित मंदिर के दैनिक व्यय के लिए दो मकान, छह दुकानें तथा एक वाटिका प्रदान की गईं थी। यह भी लिखा है कि मंदिर के प्रबंध हेतु चौदह नागरिकों की एक ‘गोष्ठी’ (समिति) नियुक्त की गई थी। जज्ज नामक एक व्यक्ति इस समिति का प्रमुख था।

जयचंद्र (1170 से 1194 ईस्वी)


यह विजयचंद्र का पुत्र था। ‘रासो’ के अनुसार यह दिल्ली के राजा अनंगपाल की पुत्री से पैदा हुआ था। नयनचन्द्र के द्वारा रचित ‘रंभामंजरी’ नाटिका से ज्ञात होता है कि इसने चन्देलराजा मदनवर्मदेव को पराजित किया था। इस नाटिका तथा रासो से यह भी पता चलता है कि जयचंद्र ने शिहाबुद्दीन गौरी को भी कई बार पराजित करके भारत से भगा दिया था। इब्न-असीर नामक एक मुस्लिम लेखक ने जयचन्द्र के राज्य का विस्तार चीन साम्राज्य की सीमा से लेकर मालवा तक लिखा है।

शिहाबुद्दीन गौरी का भारत पर हमला


उस समय भारत की राजनीतिक शक्तियों के बीच एकता का अभाव था। गाहड़वाल, चाहमान, चंदेल, चालुक्य तथा सेन एक-दूसरे के शत्रु थे। जयचन्द्र ने सेन शासकों से लम्बा युद्ध लड़कर अपनी शक्ति को कमजोर कर लिया था। तत्कालीन चाहमान शासक पृथ्वीराज के साथ भी उसकी शत्रुता थी। उत्तर भारत के राजाओं की इस आपसी फूट का गौरी ने पूरा फायदा उठाया। शिहाबुद्दीन मुहम्मद गौरी पंजाब से बढ़कर गुजरात की ओर गया। फिर उसने पृथ्वीराज के राज्य पर हमला किया। 1191 ईस्वी में थानेश्वर के पास तराइन के मैदान में पृथ्वीराज और गौरी की सेनाओं की मुठभेड़ हुई। गौरी युद्ध में घायल हुआ और पराजित होकर भाग गया। दूसरे वर्ष वह पुनः बड़ी तैयारी के साथ चढ़ दौड़ा। इस बार तराइन में ही फिर से घमासान युद्ध हुआ। इस बार पृथ्वीराज की पराजय हुई और वह मारा गया। अब अजमेर और दिल्ली पर मुसलमानों का राज्य स्थापित हो गया। गौरी ने कुतुबुद्दीन ऐबक को अपना प्रशासक बनाया।

चंदावर का युद्ध


1194 ईस्वी में मुस्लिम सेना ने कुतुबुद्दीन ऐबक के नेतृत्व में कन्नौज के राज्य पर आक्रमण किया। इटावा जिले में स्थित चंदावर नामक स्थान पर यह युद्ध लड़ा गया। जयचंद्र ने बड़ी बहादुरी से सामना किया। परन्तु वह पराजित हुआ और मारा गया। इस तरह 1194 ईस्वी में कन्नौज राज्य का पतन हो गया। अब मथुरा प्रदेश मुसलमानों के अधिकार में चला गया, जिनकी राजधानी दिल्ली में थी।

(आगे किश्तों में जारी)

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