महात्मा सूरदास की समाधि के दर्शन

श्रीनाथ जी के मन्दिर के मुख्य कीर्तनकार नियुक्त किये जाने के बाद से सूरदास हर दिन एक पद रचकर उन्हें सुनाते थे। इन पदों में वे श्रीकृष्ण की लीलाओं का वर्णन करते थे। श्रीनाथ जी के नित्य श्रृंगार का वर्णन वे जन्मांध होने के बावजूद बड़ी कुशलता से कर देते थे। करीब सत्तर वर्ष तक उन्होंने श्रीकृष्ण भक्ति की अलख जगाई। गोवर्धन के पास परसौली गांव में चन्द्र सरोवर के तट पर वे निवास करते थे। आज भी यहां सूर कुटी और सूर समाधि के दर्शन होते हैं।

जन्म से ही नेत्रहीन पर विलक्षण प्रतिभा के धनी

सूरदास की समाधि।



सूरदास जन्मांध थे। इनका जन्म दिल्ली के समीप बल्लभगढ़ के पास स्थित सीही गांव में विक्रमी संवत 1535, वैसाख शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि रविवार के दिन हुआ था। ये शुरू से ही हरिभक्ति में लीन रहते थे। मात्र छह वर्ष की इन्होंने घर छोड़ दिया। ये अपने जन्मस्थान से चार कोस की दूरी पर एक जगह रहकर भजन करने लगे। शीघ्र ही इनकी बहुत प्रसिद्धि हो गई। जब ये 18 वर्ष के हुए तो इनकी प्रसिद्धि इतनी हो गई कि इनके हरिभजन में बाधा आने लगी। इसलिए ये उस स्थान को त्यागकर रुनकता गांव में गौघाट पर आकर रहने लगे। रुनकता गांव मथुरा से आगरा जाने के रास्ते पर बीच में पड़ता है। गौघाट पर भी इनके बहुत शिष्य बन गए। उस समय तक वे सूरस्वामी के नाम से प्रसिद्ध हो चुके थे।

सूरस्वामी से सूरदास 

सुरकुटी के दर्शन।



यह घटना 1560 की है। महाप्रभु बल्लभाचार्य जी ब्रजयात्रा के लिए निकले। उन्होंने अपने शिष्यों के साथ गौघाट के समीप पड़ाव डाला। महाप्रभु के आगमन का समाचार पाकर सूरस्वामी उनसे भेंट करने पहुंचे। बल्लभाचार्य जी ने उन्हें अपना शिष्य स्वीकार कर लिया। महाप्रभु की कृपा प्राप्ति के बाद वह सूरदास कहलाने लगे। महाप्रभु ने उन्हें श्रीनाथ जी के मन्दिर का प्रमुख कीर्तनकार नियुक्त किया। सूरदास जी चन्द्र सरोवर पर निवास करने लगे। उन्होंने अपने जीवनकाल में सवा लाख पदों की रचना की थी। यह पद संकलन सुर सागर कहलाता है। कहते हैं इन सवा लाख पदों में से 25 हजार पद स्वयं श्रीनाथ जी द्वारा रचे गए हैं। श्रीनाथ जी द्वारा रचित पदों में ‘सूर श्याम’ की छाप मिलती है। आज सूरसागर के अधिकांश पद अप्राप्त हैं। उनमें से महज 20-22 हजार पद ही प्राप्त हो सके हैं। 

सूर कुटी और सूर समाधि हैं दर्शनीय

महाप्रभु जी की बैठक का प्रवेश द्वार।



गोवर्धन के पास परसौली गांव में चन्द्र सरोवर पर सूर कुटी है। यह महाप्रभु बल्लभाचार्य जी की बैठक के तीज बगल में हैं। यह एक छोटा सा कक्ष है। पर इस कक्ष की महत्ता बहुत है। यही वह स्थान है जहां हिंदी साहित्य का सूरज निवास करता था। यहां बैठकर उन्होंने इतना लिखा जितना कोई सोच भी नहीं सकता। करीब 70 वर्ष तक इस कुटिया में निवास करने के बाद सूरदास की जीवन लीला पूर्ण हुई। सुर कुटी के ठीक बगल में सूर समाधि बनी हुई है जो सूरदास की स्मृतियों को सहेजे हुए है।

क्या है चन्द्र सरोवर का महत्त्व

चन्द्र सरोवर।



गर्ग संहिता के अनुसार चंद्र सरोवर पर श्रीजी और ठाकुर जी ने जल केलि लीला की थी। विक्रमी संवत 1548 में फाल्गुन सुदी पंचमी को महाप्रभु बल्लभाचार्य जी यहां पधारे थे। उन्होंने चन्द्र कूप में स्नान किया था और वैष्णवों को रासलीला का साक्षात्कार कराया था। वर्तमान में चन्द्र सरोवर का स्वरूप अष्टदल कमल के आकार का है। इसका पक्का निर्माण भरतपुर के राजा जवाहर सिंह ने कराया था। बाद में इसका जीर्णोद्धार महारानी हंसिया द्वारा कराए जाने का भी जिक्र मिलता है। 

अन्य दर्शनीय स्थल

चन्द्र सरोवर का विहंगम दृश्य।



चन्द्र सरोवर के पास ही रास मंडल है जिसे रास चौंतरा कहते हैं। यहां एक कदम्ब वृक्ष भी है जो बंशी वट कहा जाता है। यहां महाप्रभु बल्लभाचार्य जी की बैठक, गुसाईं जी की बैठक दर्शनीय हैं। यहां पर गुसाईं हरिरायजी और गोकुलनाथ जी की गादी सेवा के दर्शन हैं। यहां पर एक कूप है जिसका नाम चन्द्र कूप है। यह चन्द्र कूप श्रीनाथ जी का जलघरा भी कहलाता है। श्रीनाथ जी की सेवा के लिए जल यहीं से जाता था।

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