पाबू प्रकाश के काव्य का मूल्यांकन

पाबू प्रकाश एक प्रबन्ध काव्य है जिसमें समसामयिक, सामाजिक और सांस्कृतिक परिस्थितियों के साथ पाबू का सम्पूर्ण चरित्र वर्णित है। हम उसे एक महाकाव्य की संज्ञा भली भांति दे सकते हैं। महाकाव्य के परम्परागत शास्त्रीय लक्षणों के अनुसार उसमें उद्दात चरित्र का जीवन वृत, वीर श्रंगार और भक्ति रसों में से किसी एक की प्रधानता, प्रकृति चित्रण, चरित्र चित्रण और अन्य सामाजिक मान्यताओं का विस्तार, उस समय की संस्कृति का चित्रण, आठ सर्गों से अधिक सर्गों में ग्रन्थ का विभाजन, विभिन्न छंदों का प्रयोग, तथा धर्म अर्थ काम मोक्ष इन चारों में से किसी एक की लक्ष्यभूत उपलब्धि ये प्रमुख तत्व माने गए हैं। पाबू प्रकाश में ये सभी तत्व किसी न किसी रूप में विद्यमान हैं।

पाबू प्रकाश की कथा वस्तु

पाबू प्रकास की कथा लोकदेवता पाबूजी की जीवनी पर आधारित है। इसमें उनके पूर्वजों का वर्णन है। पाबू को एक अलौकिक पुरुष बताने की दृष्टि से उसके पिता धांधल के घर एक अप्सरा की कोख से पाबू का जन्म बताया गया है। बचपन से ही उसकी विलक्षण बाल सुलभ प्रवृत्तियों को दर्शाया गया है और एक वीर के अच्छे गुणों को भी उसके चरित्र में प्रतिष्ठापित किया गया है। उस काल के वीरों का एक विलक्षण गुण अश्वारोहण था और वे लोग घोड़ों के बड़े शौकीन होते थे, पाबू की नजर में देवलदे चारणी की घोड़ी कालवी चढ़ गई और उसने उसे प्राप्त करने के लिए उससे प्रार्थना की। चारणी को वह घोड़ी बहुत प्रिय थी और कई वीर उसे मांग चुके थे, यहां तक कि पाबू का बड़ा भाई बूड़ा भी उसे मांग चुका था पर देवल ने वह घोड़ी उसे भी नहीं दी थी। पाबू की विलक्षण वृत्ति को देखकर उसने उसे वह घोड़ी इस शर्त पर दी कि वह घोड़ी उसकी गायों की रक्षा करती है और जब कभी उस पर ऐसी विपत्ति आये तो पाबू उसकी तुरन्त रक्षा करेगा। पाबू ने वचन दे दिया और वह घोड़ी उसे प्राप्त हो गई। इसके बाद पाबू के अनेक वीरतापूर्ण क्रियाकलापों का वर्णन इस ग्रंथ में किया गया है। पाबू की बहन पेमलदे जायल के खीची सामंत जीन्दराव को ब्याही हुई थी और इन दोनों कुटुम्बों में पुराना वैरभाव था। खीची के मन में यह कपट बसा हुआ था कि कभी अवसर आये तो पाबू को मारकर यह वैर लिया जाए और कालवी घोड़ी को भी प्राप्त कर लिया जाए। 

जायल की ओर अकाल पड़ जाने पर ये लोग इधर अपनी गायों को लेकर आये हुए थे और आग्रह करने पर भी वापस जाने का नाम नहीं ले रहे थे जिससे दोनों पक्षों में कुछ तनातनी सी हो गई थी। और अवसर देखकर जब पाबू उमरकोट सोढ़ों के यहां शादी करने गया हुआ था तब पीछे से जीन्दराव ने देवल की गायें घेर लीं। चारणी ने तुरंत पाबू के पास पुकार की और पाबू ने अपने वचन निर्वाह में एक क्षण भर की देरी न करके चंवरी में भांवरें खाती हुई अपनी नवविवाहिता पत्नी सोढ़ी का हाथ छोड़कर कालवी की सवारी की और अपने कुछ साथियों सहित गायों की बाहर के लिये निकल पड़ा। घमासान युद्ध करके पाबू ने गायें वापस प्राप्त कर लीं। युद्ध में अनेक बार ऐसा अवसर आया जब पाबू जीन्दराव को मार सकता था पर परन्तु उसने उसे अपना बहनोई समझकर तथा बहन के सुहाग का ख्याल कर उस पर वार नहीं किया। परन्तु जब जीन्दराव का दांव आया तो उसने पहले बूड़ा और बाद में पाबू दोनों को मार डाला। ऐसी परिस्तिथियों में जैसी कि राजपूत परंपरा रही है पाबू और बूड़ा दोनों की पत्नियां सती हुईं परन्तु बूड़ा की पत्नी के गर्भ में पुत्र था अतः उसने सती होते समय अपना पेट चीरकर वह पुत्र रत्न अपने मायके वालों को सम्भलवाया। इस दृढ़ आशा के साथ कि वह इन दोनों वीरों का वैर जीन्दराव से लेगा। यह पुत्र जिसका नाम झरड़ा दिया गया ( क्योंकि यह पेट चीरकर निकाला गया था) बचपन से ही बड़ा नटखट और निडर था। जब वह बड़ा हुआ तो उसकी बुआ ने उसे सारी बात कही और झरड़ा वैर लेने की भावना को हृदय में संजोए वहां से निकल पड़ा। भटकते हुए वह नाथ योगियों के संसर्ग में आया। इस ग्रन्थ में यह भी दर्शाया गया है कि उसे गोरखनाथ के प्रत्यक्ष दर्शन भी हुए। गोरखनाथ की कृपा से वह दिव्य गुणों से ओतप्रोत अदम्य साहस का धनी हुआ। जीन्दराव उस समय का बड़ा सबल और सक्षम व्यक्ति था परन्तु झरड़ा रात को महलों में पाबू की बहन से भेद लेकर पहुंचा और जीन्दराव को ललकारते हुए उसके सीने पर चढ़ बैठा। तथा उसकी हत्या करके पिता व चाचा का वैर लिया। इसके बाद पाबू के लोकरंजनकारी चरित्र का बखान कई प्रवाडो के रूप में करते हुए ग्रंथ की समाप्ति की गई है।

पाबू प्रकाश में वर्णित चरित्र

पाबू प्रकास का प्रमुख नायक पाबू राठौड़ है। यह एक धीरोदात्त और ऐतिहासिक नायक है। उसमें वीरता, वचनबद्धता, नेतृत्व, उदारता आदि ऐसे गुण हैं जो न केवल उसे एक महान व्यक्ति के रूप में प्रतिष्ठित करते हैं अपितु उसे लोकदर्श के रूप में भी स्थापित करते हैं। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण यह है कि पाबू लोकदेवता के रूप में प्रतिष्ठित हैं और उच्च समाज से लेकर निम्न वर्ग तक का उसके प्रति सहज सम्मान भाव है। पाबू का चरित्र उस युग की धरोहर है जब यहां सांस्कृतिक उथल पुथल मची हुई थी और इस संक्रांति काल में प्राचीन मूल्यों के सार तत्व के रूप में कुछ ऐसे नए मूल्यों का सृजन करने वाले लोगों की आवश्यकता थी जो समाज के आत्मबल और संस्कृति को अक्षुण्ण रख सकें। युगों युगों के संघर्ष में निम्न जातियां बड़ा संघर्षमय और संकटपूर्ण जीवन व्यतीत कर रही थीं। क्षत्रिय आदि लड़ाकू कौमों के कुटुंब जहां अपने राज्यों की स्थापना करने में व्यस्त थे वहां वणिक समाज हर परिस्थिति में अपने लाभ की ओर दृष्टि लगाए बैठा था और किसी प्रकार के जोखिम का भागीदार बनने से कतराता था, वहां ब्राह्मण समाज तटस्थ होकर केवल कर्मकांड के जरिये उच्च वर्ग की श्रद्धा का भाजन बने रहने में अपनी होशियारी समझता था और शूद्र वर्ग की उसे कतई परवाह नहीं थी। वे क्षत्रियों को समय समय पर बस यह याद दिला दिया करते थे कि वे गौ-ब्राह्मण प्रतिपालक हैं और ब्राह्मणों की रक्षा करना न केवल उनका कर्तव्य है अपितु पुण्य का मार्ग भी है। वे सनातन धर्म की उद्दात शिक्षा देने में अब सक्षम नहीं रह गए थे परन्तु मंदिरों एवं मठों में अपना एकाधिपत्य स्थापित कर सामंतों का सा जीवन व्यतीत करने की ओर प्रवत्त हो गए थे। क्योंकि उनकी जागीरें थीं और अपनी प्रबन्ध व्यवस्था भी थी। ऐसी स्थिति में धर्म और संस्कृति के अत्यंत संकुचित दायरे में पूरा समाज एक होते हुए भी अलग थलग होने लग गया था और निम्न वर्ग के प्रति सद्भाव और उनकी कठिनाईयों से उन्हें उबारने की ओर समाज का उच्च वर्ग कोई ध्यान नहीं दे रहा था। जिससे समाज के उच्च वर्ग को जो सहयोग पिछड़ी हुई जातियों से पहले प्राप्त होता था वह भी कम होता जा रहा था। ऐसी परिस्थिति में पिछड़े वर्ग को समाज का अभिन्न अंग बनाने में और उनमें आत्मविश्वास जागृत करने का कार्य पाबू जैसे लोगों ने किया इसलिए उनके चरित्र की विशिष्ट स्थापना लोकमानस में हुई। उन दो सौ वर्षों के काल में न केवल पाबू अपितु अन्य लोकनायकों की भी अवतारणा हुई थी। जिनमें रामदेव, हडबू, गोगाजी और मेहाजी का भी उल्लेखनीय स्थान है। यह प्राचीन दोहा आज भी इस बात की साक्षी देता है। 

हडबू, पाबू, रामदेव, मंगलिया मेहा!

पांचू पीर पधारज्यो गोगादे जेहा!

कहने का तात्पर्य यह है कि पाबू जैसे चरित्र की अवतारणा समाज में कोई आकस्मिक घटना नहीं थी। वह उस काल की एक ऐसी आवश्यकता थी जिसकी पूर्ति पाबू ने की। पाबू के उद्दात चरित्र का मुख्य तत्व उसका वचन निर्वाह है और वचन निर्वाह हेतु ही उन्होंने प्राणोत्सर्ग किया था। और उसके गुणगान की काव्य में प्रेरणा भी इसी से फूट निकली है तथा उससे पवाड़ों और शिष्ट साहित्य का सृजन हुआ है। वचनबद्धता के पीछे गौ रक्षा का भाव चारणों और राजपूतों के सनातन सम्बन्ध का अत्यंत पवित्र और उर्ध्वगामी निर्वाह आदि मुख्य बातें हैं जो यहां की संस्कृति की रेखाओं की उज्जवलतर और अधिक पुख्ता करती हैं। परन्तु इस आदर्श के निर्वाह हेतु पाबू ने अपने कुटुंब का जितना सहयोग नहीं लिया जितना यहां की भील जाति का लिया और उन्हें इतना अपनत्व दिया कि कर्तव्य की उच्चतम वेदी के चारों ओर बहते हुए रक्त में अपने रक्त  के साथ भीलों के रक्त के मिल जाने की प्रसन्नता पाबू ने प्रकट की।

ओ रगत मिल जावण दे सांवला रे रगत मायं।

इससे पाबू के चरित्र की उदात्तता को कवि ने उच्चतम शिखर पर पहुंचा दिया है और यही पाबू के चरित्र की एक ऐसी विशेषता है जिसे कवि ने उपरोक्त विशेषताओं के साथ अपने काव्य में प्रकट किया है तथा उसकी यथास्थान सुंदर व्यंजना की है। पाबू आज भीलों के पूज्य ही नहीं इष्टदेव भी हैं। इसलिए पाबू के पावड़े मुख्यतः भील जाति ही गाती है जिन्हें समाज के सभी वर्ग बहुत श्रद्धा भाव से सुनते हैं। 

इस काव्य में कवि ने पाबू को न केवल युद्ध वीर ही बताया है अपितु उसे उदार और स्नेहिल भी चित्रित किया है। उसने अपनी बहन के प्रति स्नेह के वशीभूत होकर ही अपने प्रबल शत्रु जीन्दराव को युद्ध में नहीं मारा। अपनी दूसरी बहन के पति सिरोही के राव को भी बहन के कहने पर क्षमा किया। वह युद्ध भूमि में जहां वीर नायक है वहीं विलास प्रसंग में श्रृंगार की सरसता का नायक भी है और अपनी प्रेमिका राज कुंवरी का वरण करने जिस उत्साह और सज धज के साथ जाता है उसी उत्साह और सज धज के साथ वह सेना रूपी कुमारी का वरण करने के लिए भी प्रस्थान करता है। दोनों स्थितियों में उसका समभाव वीर और श्रृंगार रसों के एकत्व से उसके व्यक्तित्व को अक्षुण्ण रंगों से मूर्तिमान करता है। 

पाबू की पत्नी सुपियारदे सोढ़ी

सोढ़ी क्षत्रिय नारियों के आदर्श की एक प्रतीक के रूप में इस काव्य में चित्रित हुई हैं। वह रूपवती और गुणवती तो है ही किंतु साथ ही क्षत्रिय ललनाओं की तरह साहसी और कर्तव्यपरायण भी है। सोढ़ी नारियों की सुंदरता राजस्थान में प्रसिद्ध रही है और उसके अनुरूप ही इस काव्य में उसका बखान किया गया है। राजपूत नारी में वीर भावना, युद्ध में भाग लेने की लालसा और पति के मरण पर चितारोहण मध्यकालीन संस्कृति की सामान्य विशेषताएं बन चुकी थीं। इसी के अनुसार जब पाबू के पास देवल चारणी की पुकार पहुंची और वह चंवरी का गठबंधन छोड़कर युद्ध के लिए तत्पर हुआ तो साधारण नारियों की तरह प्रेम-विह्वल होकर सोढ़ी ने करुणा भरे आंसुओं की पाल बांध कर अपने पति का रण पथ अवरुद्ध नहीं किया। परन्तु उसने भी उसके साथ युद्ध में हाथ बंटाने की इच्छा प्रकट की। एक सहधर्मिणी का इससे बड़ा धर्म क्या हो सकता था, जो नई दुल्हन ने यौवन की दहली पर पैर रखते ही प्रकट किया। यदि उस परिस्थिति की हम कल्पना करें तो एक अद्भुत दृश्य हमारी आंखों के सामने प्रस्तुत होता है। वैसे तो वीर नारियां अपने पति के हर संकट में सहभागी बनती रही हैं पर जिस नारी ने चंवरी में बैठकर पूरे फेरे ही नहीं खाये न पति के प्रेम का सुख भोग ही किया वह जीवन की उद्दाम लालसाओं के आवेग को एकाएक जीवन की बलिवेदी पर समर्पण करने को तत्पर हो गई। यह यहां लक्ष्य करने वाली बात है सहधर्मिणी का यह विलक्षण साहस भरा त्याग पाबू के लिए कितना प्रेरणादायी रहा होगा। पाबू की वीरगति पर भला ऐसी नवविवाहिता पत्नी आंसू बहाने कब बैठती, वह उसी प्रणयसूत्र का उल्लास हृदय में संजोए चितारूपी चंवरी पर सोलह श्रृंगार से सज्जित होकर आ बैठी और उसी अग्नि में पावन होकर मानो धूमलता के सहारे स्वर्ग पहुंच गई। उस समय की नारी का यह सती रूप उस समय के वीरों के लिए सदा प्रेरणादायी मानकर उस समय के समाज और कवियों ने उनका बखान किया है और ‘पाबू प्रकास’ के रचयिता ने भी इसका निर्वाह सहृदयता पूर्वक किया है इसीलिए सोढ़ी रानी भी आज पाबू की तरह अमर हो गई। आज की परिस्थितियां इससे बहुत भिन्न हैं अतः नारी का यह सती रूप समय सापेक्ष ही समझा जाना चाहिए। 

पाबू का भाई बूड़ा

बूड़ा पाबू का बड़ा भाई है। वह धांधल की पहली पत्नी से पैदा हुआ था और धांधल की मृत्यु के उपरांत गद्दी का अधिकारी हुआ था परन्तु उसमें पाबू जैसी वीरता, उदारता आदि विशेषताएं नहीं थीं, फिर भी वह अपने समय का माना हुआ वीर था। जब देवल चारणी की गायें चुराईं गईं तो उसने पहले पहल बूड़ा से ही निवेदन किया था कि वह उनका पीछा करे क्योंकि गायों की बाहर चढ़ना हर क्षत्रिय का धर्म था परन्तु बूड़ा ने ऐसा करने से इनकार कर दिया था। इस टालमटोल का मुख्य कारण यही रहा होगा कि बूड़ा ने भी कालवी घोड़ी देवल चारणी से मांगी थी परन्तु देवल ने घोड़ी बूड़ा को न देकर बाद में पाबू को दे दी थी। यदि बूड़ा इस अवसर पर बाहर चढ़ जाता और गायों को घेर लाता तो शायद पाबू के प्राणोत्सर्ग की नौबत नहीं आती। परन्तु बूड़ा ने ऐसा नहीं किया जिसके फलस्वरूप संकट की विकरालता बढ़ गई और बाद में समाज की लांछना से बचने हेतु बूड़ा ने भी युद्ध में भाग लिया और वह भी युद्ध में मारा गया। बूड़ा ने भी पाबू की तरह वीरतापूर्वक लड़ते हुए युद्ध में अपने प्राणों की आहुति दी थी और उसकी पत्नी भी उसके पीछे सती हुई परन्तु उसका चरित्र पाबू की तरह नहीं निखर पाया समय पर उसने अपने कर्तव्य पालन की तरफ ध्यान नहीं दिया तथा आपसी ईर्ष्या का शिकार हो जाने के कारण वह उस यश का भागी नहीं बन सका जिसका पाबू बना। इस प्रकार की ईर्ष्या की भावना उस समय के क्षत्रियों में खूब फैली हुई थी उसी का प्रतीक बूड़ा कहा जा सकता है और इसी ईर्ष्या के वशीभूत ही अनेक घटनाओं में राजपूतों की पराजय होती रही है। इस परंपरा के लक्षण पाबू प्रकास की इस घटना में भी देखे जा सकते हैं।

पाबू का मित्र चांदा

चांदा भील जाति का सरदार था और पाबू का अभिन्न मित्र होने का नाते सदा उसके साथ रहता था। बचपन से ही पाबू भीलों के साथ खेलता, शिकार में उन्हें साथ ले जाता और उनसे एक भ्रातत्व भाव का व्यवहार करता। इस शुद्र जाति से इतना मेल मिलाप रखने के कारण कई बार उसके कुटुंब की नारियां और अन्य लोग भी पाबू को उपहास का पात्र बनाते परन्तु वह उसकी परवाह नहीं करता था। भीलों के प्रति पाबू की सहज आत्मीयता के कारण ही उनका सरदार चांदा हर संकट की घड़ी में उसके साथ रहता था और अनेक युद्ध अभियानों में उसने भाग लिया। चांदा वीर होने के साथ साथ एक विश्वासपात्र व्यक्ति था। उसे जहां भीलों का पूर्ण विश्वास प्राप्त था वहीं पाबू के लिए क्षत्रियों से बढ़कर सहयोग देने वाला था। उसकी इस चारित्रिक विशेषता के कारण ही पाबू और भीलों का आद्योपांत सम्बन्ध बना रहा और जब आखरी युद्ध में पाबू ने जूझकर प्राणोत्सर्ग किया तो कितने ही भीलों ने उसके साथ प्राणों की आहुति दी। इस प्रकार चांदा भील जाति की वीरता, विश्वसनीयता और स्वामिभक्ति का प्रतीक बन गया और तब से भील जाति राजपूतों के निकट संपर्क में आई। वह उनके शिकार अभियानों में भी सुरक्षा के लिए अंगरक्षक की तरह आगे आने वाले समय में बराबर काम आती रही। महाराणा प्रताप के युद्ध अभियानों और संकट काल में उसका सहयोग इस परंपरा का एक बहुत बड़ा प्रमाण है।

पाबू का शत्रु जिन्दराव खीची

जिन्दराव जायल का खीची सरदार था। वह अपने समय का एक शक्तिशाली, सजग और प्रशासन-निपुण वीर था। बूड़ा की सगी बहन पेमलदे उसे ब्याही हुई थी। इस प्रकार इन दोनों परिवारों में बहुत निकट का सम्बंध था परंतु इन दोनों कुटुम्बों में पुराना वैरभाव भी था क्योंकि उस समय कुटुम्बों में धरती के लिए आपसी तनाव और युद्ध होना साधारण सी बात थी। जिन्दराव आपसी ईर्ष्या, वैमनस्य और वैरभाव रखने वाला व्यक्ति था। वह पाबू से इसलिए भी रुष्ट हो गया था क्योंकि चारणी ने कालवी घोड़ी उसे नहीं दी थी। इन कारणों से उसके मन में वैरभाव और भी प्रबल हो गया और उसने अवसर देखकर चारणी की गायें घेर लीं जिसके फलस्वरूप युद्ध हुआ। इस युद्ध में ग्रँथकर्ता ने बताया है कि पाबू को ऐसा अवसर मिला था कि वह जिन्दराव का प्राणान्त कर देता परन्तु उसने अपनी बहन के सुहाग का ख्याल करते हुए बहनोई के प्राण बक्श दिए किंतु जब जिन्दराव का वार आया तो उसने किसी प्रकार का ख्याल नहीं किया और पाबू को मार डाला जिससे उसके चरित्र की निकृष्टता प्रमाणित होती है। परन्तु युद्ध में अवसर न चूकना भी नीति का एक नियम है उसने उसी नीति का पालन किया लेकिन मानवता का अवलम्ब उसने त्याग दिया इसलिए वह जनप्रशंसा का पात्र नहीं बन सका। वह बड़ा सावधान व्यक्ति था इसलिए उसने इस तथ्य को कभी नजरअंदाज नहीं किया कि उसने पाबू को मारा है इसलिए उसके कुटुंब वाले इसका वैर अवश्य लेंगे। इसलिए वह सदा सावधान रहता था तथा अपनी सुरक्षा का पूरा प्रबंध रखता था। इस ग्रन्थ में दर्शाया गया है कि रात्रि को जहां वह अपने महल में सोता था उसके चारों और कितने ही सुरक्षात्मक उपाय किये गए थे। वैर कभी बूढ़ा नहीं होता यह राजस्थान की पुरानी कहावत है अतः कई वर्ष बीत जाने के बाद भी ‘झरड़ा’ जब युवा हुआ तो उसने अपने पिता तथा काका का वैर जिन्दराव को मारकर ले ही लिया और उसके सुरक्षा प्रबंध यूं ही धरे रह गए क्योंकि जो जैसा करता है वैसा भरता है। पाबू जैसे विलक्षण और उदार संबंधी की उसके हाथों क्रूर अनाचार और सोढ़ी के श्राप से भला वह कब उबर सकता था। इस प्रकार इस काव्य में जिन्दराव की एक खलनायक की स्थिति के रूप में सफलतापूर्वक वर्णित की गई है।

पाबू प्रकास में रस योजना

पाबू प्रकास में जीवन के अनेक प्रसंगों का उद्घाटन यथास्थान हुआ है अतः इसमें लगभग नौ रसों का परिपाक देखने में आता है। परन्तु वीर रस इसका प्रधान रस है वीर रस की उद्भावना पाबू द्वारा लड़े गए तीन-चार युद्धों के प्रसंगों में देखी जा सकती है परन्तु जहां पाबू और जिन्दराव का अंतिम युद्ध हुआ है वहां वीररस अपनी चरमता में प्रकट हुआ है और वीर रस के साथ साथ अद्भुत, भयानक और वीभत्स रस भी सहयोगी रसों के रूप में प्रकट हुए हैं।

वीर रस का विवरण वैसे तो परम्परागत रूप में ही देखने को मिलता है परन्तु जब प्रतिपक्षी नायक जिन्दराव से वह युद्ध करता है तो अर्जुन के सामने जैसी धर्म संकट की स्थिति आ गई थी 

(साभार : पाबू प्रकाश, संपादन : नारायण सिंह भाटी, प्रकाशक: महाराजा मान सिंह पुस्तक प्रकाश, जोधपुर)

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