नजीर अकबराबादी! एक ऐसा शायर जिसकी रचनाएं अवाम की आवाज बुलन्द करती हैं। नजीर उस दौर के इकलौते शायर हैं जिनकी शायरी दरबारों के मखमली लिबासों को न चूमकर मुफलिसी के पैबंदों में सूकून पाती है। जिस वक्त प्रेम और मोहब्बत से भरी शायरी अपने पूरे सबाब पर थी, नजीर ने अपनी शायरी के लिए विषय अपनी आस पास बिखरी जिन्दगी से चुने। उन्होंने अपनी शायरी में हर वो प्रयोग किए जो उस वक्त के शायरों के लिए ‘खामखां’ थे। अपने इन प्रयोगों पर वे आलोचकों का निशाना भी बने लेकिन इन सबसे बेपरवाह नजीर छोटे बड़े, सड़क चलते, ठेले वाले, ककड़ी वाले, मूंगफली बेचने वालों के दिलों के भीतर सूकून पाते थे। वे बच्चों के कवि थे तो फकीरों – साधुओं के गीतकार भी । नजीर ने आदमी तो आदमी पशु-पक्षियों को भी अपनी शायरी में जगह दी। कबूतर, भालू, बुलबुल, गिलहरी आदि उनके विषय रहे।
“क्या गेहूं, चावल, मोंठ, मटर, क्या आग, धुंआ और अंगारा
सब ठाठ पड़ा रह जायेगा, जब लाद चलेगा बंजारा …”
नजीर की अनकही कहानी को सुनाती कमलदीप की यह रिपोर्ट :-
कमलदीप ‘जॉली’, आगरा
बहुत पुराना और बहुत बड़ा शहर है आगरा। ब्रज की छांव से सराबोर यह शहर साहित्य के हर रंग का विराट हस्ताक्षर है। साहित्य की मिली जुली इसी तहजीब के सबसे मुकम्मल हस्ताक्षरों में से एक हैं, नजीर अकबराबादी। एक ऐसा शायर जिसकी रचनाएं अवाम की आवाज बुलन्द करती हैं। नजीर उस दौर के इकलौते शायर हैं जिनकी शायरी दरबारों के मखमली लिबासों को न चूमकर मुफलिसी के पैबंदों में सूकून पाती है।
सन् 1735 में बसंत पंचमी के दिन दिल्ली में जन्में वली मुहम्मद आगरा आकर नजीर अकबराबादी हो गए। । हालांकि नजीर के जन्म को लेकर कुछ विद्वानों के मतभेद हैं लेकिन अधिकतर लोग 1735 को ही नजीर के जन्म का वर्ष मानते हैं। आगरा के ताजगंज में नजीर की मजार है जहां बसंत पंचमी को नजीर का मेला लगता है।
दिल्ली से आगरा तक का सफर
अहमद शाह अब्दाली के 1748 से 1758 में हुए तीन हमलों ने दिल्ली में उथल पुथल मचा दी। यह वही दौर था जिसने नजीर के परिवार को दिल्ली छोड़ने पर मजबूर कर दिया और उन्हें आगरा पहुंचा दिया। अपनी मां और नानी के साथ नजीर आगरा आकर बस गए और आगरा भी उनमें हमेशा के लिए बस गया। हालांकि कुछ विद्वान इस पूरे घटनाक्रम से इत्तेफाक नहीं रखते। वे ऐसा मानते हैं कि नजीर का जन्म आगरा का ही है क्योंकि उनकी मां आगरा के किलेदार की बेटी थी और उनका तखल्लुस अकबराबादी था। नजीर के इस तखल्लुस के बारे में विद्वानों की राय जुदा है। कहते हैं कि नजीर ने खुद ही अपना उपनाम नाम नजीर अकबराबादी रखा था। नजीर के पिता का नाम मोहम्मद फारूक और माता का नाम तहव्वरून्निसा था। नजीर अपने पिता की 13 वीं संतान थे लेकिन उनके पूर्व 12 संतानों की मृत्यु हो चुकी थी। अकेले नजीर परिवार के आंख के तारे बन गए।
जब 17 रुपये में पढ़ाया
युवा होते नजीर को अब रोजगार की तलाश थी, सो उन्होंने लाला विलासराय के बच्चों को पढ़ाना शुरू कर दिया। 17 रुपये मासिक वेतन पर नजीर ने अपना अध्यापन जारी रखा। हालांकि नजीर को अवध के नवाब के यहां से पढ़ाने के लिए पेशकश हुई लेकिन शहर छोड़ने के लिए वे तैयार नहीं हुए और उन्होंने इस दरबारी पेशकश को ठुकरा दिया। दूसरी तरफ नजीर का मानना था कि वे अपनी कविताओं और शायरी का व्यापार नहीं करेंगे।
दौर ए नजीर
नजीर अकबराबादी उस दौर के शायर थे जब उर्दू की शायरी अपने शिखर पर थी। यह नजीर का अपना कमाल ही था उस दौर में उन्होंने उर्दू शायरी को बिल्कुल नए और अनोखे तरीके से परिचय कराया। जिस वक्त प्रेम और मोहब्बत से भरी शायरी अपने पूरे सबाब पर थी, नजीर ने अपनी शायरी के लिए विषय अपनी आस पास बिखरी जिन्दगी से चुने। उन्होंने अपनी शायरी में हर वो प्रयोग किए जो उस वक्त के शायरों के लिए ‘खामखां’ थे। अपने इन प्रयोगों पर वे आलोचकों का निशाना भी बने लेकिन इन सबसे बेपरवाह नजीर छोटे बड़े, सड़क चलते, ठेले वाले, ककड़ी वाले, मूंगफली बेचने वालों के दिलों के भीतर सूकून पाते थे। वे बच्चों के कवि थे तो फकीरों – साधुओं के गीतकार भी । नजीर ने आदमी तो आदमी पशु-पक्षियों को भी अपनी शायरी में जगह दी। कबूतर, भालू, बुलबुल, गिलहरी आदि उनके विषय रहे। इससे पता चलता है कि नजीर की कविताएं इंसान से ही नहीं बल्कि पशु पक्षियों से भी मोहब्बत करती हैं, जैसा की इन पंक्तियों से जाहिर होता है-
“कल राह में जाते जो मिला रीछ का बच्चा
ले आए वही हम भी उठा रीछ का बच्चा
सौ नेमतें खा-खा के पला रीछ का बच्चा
जिस वक़्त बड़ा रीछ हुआ रीछ का बच्चा
जब हम भी चले, साथ चला रीछ का बच्चा…”
नजीर हर धर्म के लिए एक नजीर थे। फिर चाहे वो कोई त्योहार ही क्यों न हो। यही वजह है कि उन्होंने ईद को जितनी शिद्दत के साथ बयां किया, कुछ यूं –
” रिन्द आशिकों को है कई उम्मीद की ख़ुशी,
कुछ दिलबरों के वल की कुछ दीद की ख़ुशी
ऐसी न शब-ए-बरात न बक़रीद की ख़ुशी,
जैसी हर एक दिल में है इस ईद की ख़ुशी …”
उतनी ही शिद्दत के साथ वे दिवाली पर कुछ यूं लिखते –
“हमें अदाएँ दिवाली की ज़ोर भाती हैं,
कि लाखों झमकें हर एक घर में जगमगाती हैं…
खिलौने नाचें हैं तस्वीरें गत बजाती हैं,
बताशे हँसते हैं और खीलें खिलखिलाती हैं…”
तो कभी फागुन के रंग से अपनी शायरी को रंग देते। उनकी नज्म में होली की बहारे देखते ही बनती थी –
“जब फागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली की।
और दफ़ के शोर खड़कते हों तब देख बहारें होली की…”
उर्दू नज्म का पिता कहे जाने वाले नजीर धर्म निरपेक्षता का बड़ा उदाहरण हैं। कभी उनकी शायरी खुदा को पुकारती तो शिव की महिमा भी बखूबी रच डालते। वहीं नजीर ने कन्हैया के बालपन को अपने शब्दों में कुछ इस तरह उकेरा-
“यारो सुनो! यह दधि के लुटैया का बालपन
और मधुपुरी नगर के बसैया का बालपन
बन-बन के ग्वाल गोएँ चरैया का बालपन
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन
क्या-क्या कहूं मैं किशन कन्हैया का बालपन…”
जब मीर हुए नजीर के कायल
“नजर पड़ा एक बुत परीवश निराली सजधज नई अदा का,
जो उम्र देखी तो दस बरस की ये कहर आफत गजब खुदा का”
उस जमाने में कम उम्र में लड़कियों की शादी आम बात हुआ करती थी। इस तरह की कुप्रथा का नजीर ने अपनी गजल के माध्यम से लोगों की आंखे खोलने का प्रयास किया । उपरोक्त गजल जब मीर ने सुनी तो वे नजीर के कायल हो गए। मीर ने नजीर को बुलाया और शाबाशी दी। इस वाक्ये ने नजीर को प्रसिद्ध कर दिया। नजीर पतंगबाजी के बेहद शौकीन थे। साथ ही उन्हें कबूतरबाजी का शौक भी खूब था। बुलबुलों को लड़ाना भी नजीर के शौक का हिस्सा था। नजीर ने अपने इन शौकीन अंदाज को शायरी के गोते कुछ इस तरह लगवाए-
“अब पेंच पड़ने को हैं न दो इतनी ठुमकियां
घबरा के कन्ने इनको न फंसने दो मेरी जां
अच्छा नहीं है मुफ्त कटाना पतंग का…”
“कल बुलबुलें कुछ नौ दस काबू में आईं
इस ढब से यारों हमनें बुलबुलें लड़ाईं…”
फेरी वालों के शायर
नजीर की प्रसिद्धि इस कदर थी कि हर खासो आम उनका मुरीद था। सब कहते मियां पहले कुछ सुनाओ तभी जाने देंगे। नजीर भी किसी को निराश नहीं करते। नजीर राह चलते नज्म बना देते थे। फेरी वाले उनसे कविताएं लिखकर ले जाते फिर गली कूचों में सामान बेचते हुए सुनाते। एक फेरी वाले ने नजीर को रोक कर जिद की वे उसके सामान पर कोई नज्म सुना दें। नजीर ने ऐसी नज्म कही कि फेरी वाला अपना सामान उन्हीं की शायरी में बेचने लगा। इसका सबसे अच्छा उदाहरण है ककड़ी पर लिखी उनकी शायरी जिसकी कुछ बानगी पेश है-
“क्या खूब नर्मोनाजुक इस आगरे की ककड़ी,
और जिसमें खासकर फिर इस्कंद की ककड़ी…”
जब ताजमहल हुआ ‘ओझल’
नजीर को आगरा से बेपनाह मोहब्बत थी। इसका पता एक घटना से चलता है कि नवाब वाजिद अली शाह ने उन्हें लखनऊ आने का न्योता दिया तो नजीर अपने घोड़े पर सवार होकर चल पड़े। वे ताजमहल को बीच बीच में निहारते जा रहे थे। लेकिन जैसे जैसे ताजमहल उनकी नजरों से दूर जाता गया उनका मन विचलित होने लगा । आखिरकार घोड़े को पलटाया और वापस अपने ठिकाने पर लौट उन्होेंने कभी आगरा न छोड़ने का फैसला अपने आप को सुना दिया। ‘आगरा हम पर फिदा और हम फिदाए आगरा ‘ उनका प्रसिद्ध नारा है। आगरा से इतना प्रेम करने वाले नजीर ने अपने आप को शायरी में कुछ इस तरह से बयां किया है-
“आशिक कहो, असीर कहो, आगरे का है
मुल्ला कहो दबीर कहो आगरे का है
मुफ़लिस कहो फ़क़ीर कहो आगरे का है
शायर कहो नज़ीर कहो आगरे का है”
पेट का भूगोल
नजीर को शोहरत तो मिली लेकिन पेट के भूगोल में वे हमेशा उलझे रहे। जिस दौर में शाहों और नवाबों की शान में लिखकर शायरों के गुजारे होते थे नजीर उनके महलों से ज्यादा अपनी झोपड़ी में खुश रहते। लेकिन उनकी शायरी अपने इर्द गिर्द कुछ न कुछ जरूर ढूंढती। तभी उनकी शायरी चांद और सूरज में भी रोटियां ही निहारती है, शायद कुछ इस तरह-
“जब आदमी के पेट में आती हैं रोटियां
फूली नहीं बदन में समाती हैं रोटियां
आंखें परीरुखों से लड़ाती हैं रोटियां।
सीने ऊपर भी हाथ चलाती हैं रोटियां
जितने मजे़ हैं सब यह दिखाती हैं रोटियां
हम तो न चांद समझें, न सूरज हैं जानते
बाबा हमें तो यह नज़र आती हैं रोटियां…”
मुफलिसी जीवन भर नजीर के साथ रही और वे उसके साथ । नजीर बेहद संतोषी व्यक्तित्व वाले थे। उन्हें धन की अभिलाषा कभी नहीं रही। लेकिन पैसे की स्तुति में नजीर ने यह भी खूब लिखा है-
“पैसा ही रंग रूप है, पैसा ही माल है,
पैसा न हो तो आदमी चर्खे की माल है
जिनके घर में ढेर है सोने के दाम के,
हर एक उम्मीदवार हैं उनके सलाम के …”
“तेगो सर पर उठाते हैं पैसे के वास्ते,
तीरों सना लगाते हैं पैसे के वास्ते……”
आदमी का दर्द
नजीर युग में समाज दरिद्रता से कराह रहा था। उस समय को नजीर की कलम कुछ यूं उकेरती है-
“मेहनत से हाथ पांव के कोई कोड़ी हाथ न आए
बेकार कब तलक कोई कर्जा उधार खाए
आता है हमें तो ऐसे हाल पर रोना हाय…”
इन परिस्थितियों में भी नजीर और उनकी शायरी हर मोड़ पर किसी हारे के साथ हमेशा खड़ी रहती। नजीर ने समाज का दर्द बखूबी बयां किया। आम आदमी के लिए नजीर ने ‘आदमीनामा ‘ में जो दर्द लिखा वो आज भी मौजूं है-
“यां आदमी पे जान वारे है आदमी
और आदमी पे तेग़ को मारे है आदमी
पगड़ी भी आदमी की उतारे है आदमी
चिल्ला के आदमी को पुकारे है आदमी
और सुन के दौड़ता है सो है वो भी आदमी…”
नजीर ने अपनी कविता में मुफलिसी को सीधे सीधे ताना मारा है-
“आटा मिला तो ईंधन, चूल्हा तवा नदारद
रोटी पकाएं किस पर घर में तवा नदारद
गर ठीकरे पर थोपे तो फिर मजा नदारद
नौ छेद पेंदी गायब जिस पर गला नदारद….”
नजीर का काव्य खजाना
माना जाता है नजीर का काव्य खजाना करीब डेढ़ लाख से ज्यादा छंदो कविताओं से भरा पड़ा था लेकिन दुर्भाग्य से नजीर का ये बेशकीमती खजाना कोई संजो न पाया और नष्ट हो गया। हालांकि जो जानकारी मिलती है उसके मुताबिक नजीर के करीब छ हजार छंद आज मौजूद हैं। नजीर ने बेशक खुद को कभी उंचा कवि नहीं माना लेकिन अपनी नज्मों के कारण नजीर अमीर खुसरो, रसखान जैसे कवियों की परंपरा के कवि लगते हैं। उनके दौर के शायद मीर तकी मीर खुद नजीर की शायरी के कायल थे। लेकिन नजीर ने अपने आपको धरातल पर ही रखा। वे साहित्यिक कीर्ति के पीछे कभी नहीं दौड़े। लिखने में उनकी कलम ने हर उस विषय को छुआ जिन्हें उस वक्त के कवि सोचने से भी डरते थे। उनकी कलम ने हर उस विषय को छुआ जिन्हें उस वक्त के कवि सोचने से भी डरते थे। उन्होंने मीर की तरह इश्क और दर्द पर नहीं लिखा। नजीर ने गालिब की तरह मोहब्बत और शराब की बात नहीं की। इसकी बानगी उनके ‘बंजारानामा’ में देखने को मिलती जिसमें उन्होंने बताया कि सांसारिक सफलताओं पर अभिमान करना मूर्खता है क्यांेकि मनुष्य की परिस्थितियां कभी भी बदल सकती हैं। जिस तरह कोई ये नहीं बता सकता कि बंजारा कब अपना सामान लादकर चल देगा ठीक वैसे ही मौत कभी भी आ सकती है। नजीर की यह कविता जगत में अमर हो चुकी है, जिसको उन्होंने कुछ इस तरह अपने शब्दों में पिरोया है-
“टुक हिर्सो-हवस को छोड़ मियां, मत देस विदेश फिरे मारा
क़ज़्ज़ाक़ अजल का लूटे है, दिन रात बजाकर नक़्क़ारा
क्या बधिया, भैंसा, बैल, शुतर क्या गोने पल्ला सर भारा
क्या गेहूं, चावल, मोंठ, मटर, क्या आग, धुंआ और अंगारा
सब ठाठ पड़ा रह जायेगा, जब लाद चलेगा बंजारा …”
शायरी के लड्डू और मूंगफली
नजीर को जानने समझने के लिए यही काफी नहीं है। समानता, एकता और मानवीय सौहार्द नजीर का विशेष गुण है। कहते हैं कि नजीर का अपना कोई साहित्यिक गुरू नहीं था। वो अपने दीपक स्वयं बने। आज नजीर पर बहुत कुछ लिखा पढ़ा जा रहा है। हालांकि 19 वीं शताब्दी के आलोचकों ने नजीर का चित्रण वैसे नहीं किया जैसा उनका कद था। ककड़ी, मूंगफली, तिल के लड्डू, जलेबी जैसी वस्तुओं पर की गई नजीर की कविताओं को आलोचक कविता मानने से इनकार करते रहे। जबकि नजीर सही मायनों में हर फन के उस्ताद थे। इस तरह की वस्तुओं पर की गई कविताओं पढ़ने पर इनकी गहराईयों का पता चलता है। हालांकि बहुत बाद में नजीर की इन उत्कृष्ठ रचनाओं को पहचान मिली। नजीर जिस समय अपने काव्य को रच रहे थे उस समय सूफी वैराग्य अपने चरम पर था, लेकिन नजीर ने आम बोलचाल की भाषा को नई दिशा दी और लोकप्रिय बनाया। नजीर ने आम बोलचाल में बोले जाने वाले कुछ कुरूप से शब्दों को भी अपनी कविताओं में कुछ इस प्रकार जड़ा कि वह सुन्दर बन गए-
“न मेह में कोंद बिजली की न शोले का उजाला है,
कुछ इस गोरे मुखड़े का झमकड़ा ही निराला है…”
भाषा की ‘गूटर गूं ‘
नजीर की शैली सीधी और सरल है। नजीर ने उर्दू हिन्दी में कविता लेखन की नींव डाली। नजीर एक यर्थाथवादी शायर थे। उन दिनों शायरियों में अरबी और फारसी भाषा का भी भरपूर समावेश था, वहां नजीर ने उर्दू या कहें तो हिन्दुस्तानी जबान का बखूबी प्रयोग अपनी रचनाओं में किया। यही वजह थी कि नजीर की रचनाओं को आम आदमी की भाषा वाली रचना कहा गया। कहा जाता है कि नजीर अरबी, फारसी, उर्दू, पंजाबी, पूर्वी, मारवाड़ी, ब्रज भाषा और हिन्दी भाषा के ज्ञाता थे। ऐसा माना जाता है कि नजीर को संस्कृत का भी ज्ञान था। नजीर ने उर्दू के लिए वो काम किया जो शेक्सपियर ने अंग्रेजी के लिए किया। इसके अलावा नजीर ने पशु पक्षियों की आवाजों को भी शब्दों के माध्यम से बेहद सरल और खूबसूरती के साथ प्रस्तुत भाषा को व्यापकता दी है। जैसे गुटर गूं, कांव-कांव, कूकडू कू, ढेंचू ढेंचू। हिन्दी के साथ उर्दू में ठेठ मुहावरों का अपनी कविताओं में प्रयोग कर नजीर ने काव्य के गुलिस्तां को और भी महकाया है। लोकोक्ति कहने में भी नजीर का कोई सानी नहीं था। शायद कुछ इस तरह-
“दिल चाहे दिलदार को और तन चाहे आराम,
दुविधा में दोनों गए माया मिली न राम “
नजीर जितना अपनी शायरी में गंभीर दिखते हैं तो व्यंग्य का तड़का भी जोरदार लगाते नजर आते हैं, हास्य में उनका शाब्दिक चातुर्यपन कुछ इस तरह छलकता है-
“सब चीज को होता है बुरा हाय बुढ़ापा,
आशिक को तो अल्लाह न दिखलाए बुढ़ापा”
इसे विडंम्बना ही कहेंगे की नजीर के इतंकाल के सौ बरस बाद उनकी रचनाओं को ऐतिहासिक महत्व मिला है। अपनी सौ बरस की उम्र को नजीर ने इस तरह से बयां किया है जिससे पता चलता है कि लगभग अपनी पूरी आयु के साथ ही इस दुनिया से रुखसत हुए होंगे-
“ए यार सौ बरस की हुई अपनी उम्र आकर
और झुर्रियां पड़ी हैं सारे बदन के ऊपर…”
नजीर का ‘आगरा बाजार’
नजीर को आधुनिक भारत के रंगमंच पर बखूबी उतारा गया। प्रख्यात रंगकर्मी, निर्देशक और ‘चरणदास चोर’ जैसा नाटक प्रस्तुत करने वाले हबीब तनवीर ने नजीर अकबराबादी की जिन्दगी के इर्द गिर्द बुने गए नाटक आगरा बाजार का मंचन किया है, जहां ‘वालों’ का बोलबाला है। मसलन ककड़ीवाला, पानवाला, लड्डूवाला, तरबूजवाला, रेवड़ीवाला, चनेवाला, बरफवाला बर्तनवाला, किताबवाला, किरानावाला, दर्जी, फकीर, मदारी, शोहदे, शायर दरोगा, आदि किरदार वैसे ही भरे हैं जैसे नजीर की शायरी में आगरा बसा हुआ है। वास्तव में हबीब साहब ने आगरा बाजार को शहर नहीं बल्कि एक संस्कृति का रूप दिया है। हबीब तनवीर ने नजीर की कविताओं का एक छोटा रूपक तैयार किया था जो लोगों बहुत पसंद भी आया। धीरे धीरे इसने आगरा बाजार सरीखे नाटक का रूप ले लिया। आगरा बाजार नाटक एक ककड़ी बेचने वाले की कहानी है। जिसकी ककड़ी कोई नहीं खरीदता तो वह नजीर अकबराबादी की नज्मों की मदद लेता है। ककड़ी पर नज्म सुनकर ग्राहक आकर्षित होते हैं और देखते ही देखते उसकी ककड़ियां बिकने लगती हैं। नाटक में मेला, मदारी, त्योहार, पतंगबाजी नाटक को जीवंत बनाती है।
नजीर एक ऐसा शायर जिसके तन मन में ब्रज रचा बसा है जिसकी आंखों में दूसरों के आंसू हैं जिसकी जुबां पर थी शायरी की मिठास.. सच में जिसके लिए बार बार दिल यही दोहराये- शायर कहो, नजीर कहो आगरो का है……।
(यह आलेख हिस्ट्रीपंडित डॉटकॉम के लिए कमलदीप ‘जॉली’ ने लिखा है। कमलदीप आगरा में रहते हैं और पेशे से पत्रकार हैं। शायरी, रंगमंच, अभिनय, निर्देशन, फिल्मी पत्रकारिता आदि क्षेत्रों में कमलदीप आगरा में जाना पहचाना नाम है।)
You must log in to post a comment.