कभी आबाद घर यां थे

जहां वीराना है, पहले कभी आबाद घर यां थे,

शगाल अब हैं जहां बसते, कभी रहते बशर यां थे।

जहां फिरते बगूले हैं, उड़ाते खाक सहरा में,

कभी उड़ती थी दौलत रक्स करते सीमे-बरयां थे।

‘जफ़र’ अहवाल आलम का कभी कुछ है कभी कुछ है,

कि क्या-क्या रंग अब हैं और क्या-क्या पेश्तर यां थे।

कोई क्या किसी से लगाये दिल

कभी बन-संवर के जो आ गये तो बहारे हुस्न दिखा गये, मेरे दिल को दाग़ लगा गये, यह नया शगूफ़ा […]

मुरीदे कुतुबुद्दीन हूँ

मुरीदे कुतुबुद्दीन हूँ खाक-पाए फखरेदीं हूँ मैं, अगर्चे शाह हूँ, उनका गुलामे-कमतरी हूँ मैं। बहादुर शाह मेरा नाम है मशहूर […]

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