पूर्व कथा
पिछले भागों में हम यदुवंश, श्रीकृष्ण की कथा, महाजनपदकाल, मौर्य साम्राज्य, शुंगवंश, मथुरा के मित्रवंश, मथुरा के शक, दत्त, कुषाण, नाग, गुप्त वंश, कन्नौज के मौखरि, हर्षवर्धन, कन्नौज के गुर्जर-प्रतीहार, महमूद गजनवी का आक्रमण, कन्नौज के गाहड़वाल, दिल्ली सल्तनत के गुलाम, खिलजी, तुगलक, सैय्यद एवं लोदी आदि वंशों के बाद मुगल वंश के बाबर, हुमायूं, सूरी वंश के शेरशाह सूरी, मुगल वंश के अकबर, जहांगीर, शाहजहाँ व औरंगजेब की है जो ब्रज के लिए एक काले अध्याय से कम नहीं है। औरंगजेब आदि की कहानी सुना चुके हैं। इसके बाद जाट नेता चूड़ामन, बदनसिंह, सूरजमल, जवाहर सिंह आदि का दौर आया। इसके बाद जाट सत्ता कमजोर हुई और इस प्रदेश पर नजफ़ खान ने फिर से मुगलिया सत्ता कायम की। इसके बाद मराठा आधिपत्य हुआ और फिर ईस्ट इंडिया कम्पनी ने इस क्षेत्र पर अपना राज्य कायम किया। अब आगे…
रणजीत सिंह के उत्तराधिकारी
हम पहले बता चुके हैं कि 1805 ईस्वी में रणजीत सिंह को अंग्रेजों को 20 लाख रुपये हर्जाना तथा सौंख, सौंसा और सहार आदि के परगने अंग्रेजों को सौंपने पड़े थे। गोवर्धन का परगना तब भी रणजीत सिंह के ही अधिकार में था। इस परगने का प्रशासक रणजीत सिंह का छोटा पुत्र लक्ष्मण सिंह था। रणजीत सिंह की मृत्यु 1805 ईस्वी में ही हो गई। रणजीत सिंह के चार पुत्र थे – रणधीर सिंह, बलदेव सिंह, हरिदेव सिंह और लक्ष्मण सिंह। उसके बाद उसका बड़ा पुत्र रणधीर सिंह राजा बना। रणधीर सिंह ने 1823 ईस्वी तक शासन किया। उसकी मृत्यु के बाद उसका छोटा भाई बलदेव सिंह राजा बना। सिर्फ डेढ़ वर्ष तक राज करने के बाद उसकी मृत्यु हो गई। गोवर्धन में मानसी गंगा के किनारे गंगा बाग में रणजीत सिंह, रणधीर सिंह और बलदेव सिंह की कलात्मक छतरियां दर्शनीय हैं।
उत्तराधिकार का संघर्ष
बलदेव सिंह की मृत्यु के समय उसका पुत्र बलवंत सिंह केवल छह वर्ष का बालक था। कम्पनी सरकार की ओर से उसे राजा स्वीकार कर लिया गया। पर रणजीत सिंह के सबसे छोटे पुत्र लक्ष्मण सिंह के पुत्र दुर्जनसाल ने अपना अधिकार घोषित कर दिया। राज्य के बहुत से सरदार भी उसके पक्ष में थे। दिल्ली का अंग्रेज रेजिडेंट ऑक्टरलोनी बलवंत सिंह के पक्ष में सेना लेकर भरतपुर की ओर चल पड़ा। शुरूआत में गवर्नर जनरल ने उसे भरतपुर राज्य के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करने से रोका। पर इधर दुर्जनसाल की शक्ति बढ़ती जा रही थी। उसे कई राजपूत राज्यों तथा मराठा रियासतों का भी समर्थन प्राप्त था। अंग्रेजों को लगा कि दुर्जनसाल इन सबकी सहायता से अपनी शक्ति बढ़ा सकता है अतः चार्ल्स मेटकॉफ की सलाह पर गवर्नर जनरल ने अपना निर्णय बदल दिया। उसने बीस हजार फौज तथा 100 तोपों के साथ कंबरमियर को भरतपुर जाने का आदेश दिया।
भरतपुर के किले की महत्ता
उस समय भरतपुर का दुर्भेद्य दुर्ग सारे भारत में प्रसिद्ध था। लेक जैसा वीर सेनानायक भी इसे भेद नहीं पाया था। इससे इस किले की प्रसिद्धि न केवल भारत साथ ही पड़ोसी देशों तक हो गई थी। 1814 ईस्वी में अंग्रेज नेपाल को अपनी शक्ति दिखाकर भयभीत कर रहे थे। तब नेपाल के सरदार भीमसेन थापा ने नेपालियों में जोश भरते हुए कहा था कि, “मनुष्यों का बनाया हुआ भरतपुर गढ़ तक अंग्रेज न जीत सके तो हमारे पहाड़ों को तो भगवान ने अपने हाथों से बनाया है।” भारत पर अपनी सामरिक क्षमता का प्रभाव प्रस्तुत करने के लिए अंग्रेज इसे जीतना चाहते थे।
भरतपुर के किले का पतन
छह दिसम्बर 1825 ईस्वी को कंबरमियर ने मथुरा में सेना का नेतृत्व ग्रहण किया। पांच दिन बाद वह भरतपुर की ओर चल पड़ा। उसने भरतपुर के दुर्ग का घेरा डाल दिया। डेढ़ महीने के कड़े घेरे के बाद 18 जनवरी 1826 ईस्वी को यह प्रसिद्ध किला जीत लिया गया। इस घटना का प्रभाव बर्मा तक पड़ा। जब वहां के राजा को पता चला कि भरतपुर का दुर्ग जीत लिया गया है तब उसने अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध जारी न रखकर संधि पत्र पर हस्ताक्षर कर दिये। दुर्जनसाल को कैद कर इलाहाबाद भेज दिया गया।
गोवर्धन परगने का मथुरा में विलय
पांच फरवरी 1826 ईस्वी को धूमधाम से बलवंत सिंह का राज्याभिषेक किया गया। उसके नाबालिग होने के कारण उसकी माता अमृतकुंवर को उसकी संरक्षिका नियुक्त किया गया। साथ ही राजा को अंग्रेज पोलिटिकल एजेंट की संरक्षिता भी स्वीकार करनी पड़ी। गोवर्धन का जो परगना पूर्वकाल में लक्ष्मण सिंह की जागीर में था, उसे अंग्रेजों के अधिकार में दे दिया गया। पहले इस परगने को आगरा जिले मिलाया गया पर बाद में इसे मथुरा जिले में जोड़ दिया गया।
मथुरा में फौजी छावनी की स्थापना
होल्कर से युद्ध के समय से ही मथुरा में फौजी अड्डा बनाया गया। तब से यहां बरकरार सैनिक छावनी मौजूद है। 1824 ईस्वी से पहले वर्तमान मथुरा जिले का कुछ भाग आगरा जिले के अंतर्गत था और शेष भाग का शासन सादाबाद केंद्र से संचालित होता था। 1824 ईस्वी में मथुरा का नया जिला बनाया गया पर इसका केंद्र सादाबाद ही रहा। 1832 ईस्वी में जिले की सीमाओं में कुछ परिवर्तन किए गए और इसका केंद्र सादाबाद के स्थान पर मथुरा नगर को ही बना दिया गया।
तत्कालीन मथुरा की तहसीलें
उस समय मथुरा जिले में आठ तहसीलें थीं। अडींग, सहार, कोसी, मांट, नौहझील, महावन, सादाबाद और जलेसर। 1860 ईस्वी में नौहझील को मांट तहसील में मिला दिया गया। 1868 ईस्वी में अडींग की तहसील समाप्त कर मथुरा तहसील बनाई गई। 1857 की क्रांति के समय पर सहार का तहसील दफ्तर छाता स्थानांतरित कर दिया गया। बाद में उसे छाता तहसील में बदल दिया गया। कोसी की तहसील भी छाता में विलय कर दी गई। महावन की तहसील भी विलीन कर दी गई। उसके बाद जिले में चार बड़ी तहसीलें बचीं। छाता, मथुरा, मांट और सादाबाद। जलेसर तहसील पहले आगरा और बाद में एटा जिले में मिला दी गई।
(मथुरा की कहानी की यह लेखमाला फिलहाल रोक दी जाती है। आगे की कहानी ब्रिटिश काल में मथुरा शीर्षक लेखमाला के अंतर्गत सुनाई जाएगी।)
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