त्योहार नहीं संस्कृति है होली


अन्य स्थानों पर होली महज एक त्योहार है जो रंग-गुलाल से एक दूसरे को तर करके मना लिया जाता है पर ब्रज में होली एक संस्कृति है, एक विरासत है मस्ती और आध्यात्म के दोहरे रस का आस्वादन कराती ऐसी परंपरा है जिसकी अनुभूति इसे देखे बिना संभव नहीं है। बरसाना की होली तो इतनी प्रसिद्द है कि जब होली का जिक्र आता है तो बरसाना की लठामार होली की चर्चा अवश्य होती है। बरसाना की होली के साथ ब्रजमण्डल की होली की कथा का समापन नहीं होता बल्कि यहां से शुरुआत होती मौज-मस्ती और राधा-कृष्ण के दिव्य प्रेम की विरासत सहेजे ब्रज भर में आयोजित होने वाले फागोत्सव की।

ब्रज की होली में लठामार के दृश्य।

बसंत पंचमी से होती है शुरुआत



खेतों में फूली सरसों को छूकर बहती मदहोश करने वाली बसन्ती बयार की मस्ती के बीच चौपालों पर फाग, धमार और चौपाई-रसिया के गायन के साथ बसन्त पंचमी को होली की शुरुआत होती है। ब्रज के प्रमुख मंदिरों में डांडे गाढ़ कर समाज गायन शुरू किया जाता है। जयदेव के गीत गोविन्द की अष्टपदी से शुरू होकर मध्यकालीन भक्तिरस के कवियों की रचनाओं के माध्यम से होली की लीलाओं का वर्णन वातावरण में फ़ाग का उल्लास भरता है। मन्दिरों में देव विग्रहों को गुलाल अर्पित किया जाता है और दर्शनार्थियों को गुलाल का प्रसाद दिया जाना शुरू हो जाता है। मन्दिरों में टेसू के फूलों से प्राकृतिक रंग बनाना शुरू हो जाता है। हुरियारिनें अपनी लाठियां तो हुरियारे अपनी ढालें संवारना शुरू कर देते हैं।

होली की मस्ती में नगाड़े बजाकर फाग गाते ग्रामीण।

लड्डू होली है सबसे विलक्षण



रंग-गुलाल की होली तो सबने खेली होगी पर लड्डूओं की होली तो ब्रज में ही सम्भव है। बरसाना के लाडलीजी मन्दिर में फाल्गुन शुक्ल अष्टमी को पांडे लीला होती है जो लड्डू होली भी कही जाती है। इस दिन एक मटकी में गुलाल नंदगांव भेजा जाता है इसे लेकर एक सखी जाती है जो कान्हा को बरसाने आकर होली खेलने का न्योता देती है। इसी दिन शाम को नंदगांव से एक पांडा कान्हा के संदेश लेकर बरसाना आता है। इस पांडा का सत्कार लड्डुओं से किया जाता है। गुलाल के उड़ते बादलों और रंग की बरसात के बीच यह पांडा लड्डुओं को श्रद्धालुओं के बीच लुटाता है। इस लड्डू होली में टनों लड्डू लुटाये जाते हैं।

हुरियारों पर लाठियां बरसाती महिलाएं।

अबला सबला सी लगे बरसाने की वाम


फाल्गुन शुक्ल नवमी को बरसाना की प्रसिद्ध लठामार होली का आयोजन होता है। नंदगांव के हुरियारे कृष्ण की ध्वजा के साथ बरसाना पहुंचते हैं। लाडलीजी मन्दिर में दोनों गांवों के लोग आमने-सामने बैठ कर समाज गायन और हास परिहास करते हैं। इसके बाद रंगीली गली में लठामार होली शुरू होती है। हुरियारिनें हुरियारों पर लाठियों से प्रहार करती हैं और हुरियारे ढालों पर इन प्रहारों को रोक कर खुद को बचाते हैं। इस प्रसिद्ध होली को देखने दुनियाभर से श्रद्धालु बरसाना पहुंचते हैं।

लाठी के प्रहार को ढाल से बचाता हुरियारा।

नंदगांव में फगवा लीला



नंदगांव में फाल्गुन शुक्ल दशमी को लठामार होली होती है। इसमें बरसाना के पुरुष नंदगांव की महिलाओं की लाठियों के प्रहार अपनी ढालों पर झेलते हैं। यह फगवा लीला के भाव की होली होती है।अगले दिन एकादशी को रंगभरनी एकादशी को कहते हैं इस दिन कृष्ण जन्म स्थान मथुरा में होली का मंचन होता है। साथ ही बाँके बिहारी और द्वारकाधीश मन्दिरों में भी होली होती है।

लठ की मार झेलता हुरियारा।

गोकुल की छड़ीमार होली



अगले दिन द्वादशी को गोकुल की छड़ीमार होली होती है। गोकुल में कृष्ण को बालक स्वरूप में पूजा जाता है इस लिए बालक कृष्ण पर लाठी प्रहार के स्थान पर छड़ी मार कर होली खेली जाती है। इस होली में हुरियारों के हाथ में अपने बचाव को ढालें नहीं होतीं। यहां मन्दिर में इस लीला को देखने हजारों की भीड़ आती है। 

आग को चीर कर निकलते हैं पण्डे



फाल्गुन पूर्णिमा को होलिका दहन के मौके पर फालैन और जटवारी गांवों में प्रह्लाद लीला आयोजित होती है। इन गांवों में दहन के दौरान पण्डे इन आग की दहकती लपटों के बीच से होकर गुजरते हैं। इस लीला को देखकर लोग आश्चर्य चकित रह जाते हैं।

धुलेंडी पर भाभी के हाथ लाठी



धुलेंडी पर सारे देश की तरह ब्रजमण्डल में भी रंग-गुलाल की होली होती है। इस दिन ब्रज के हर गांव में देवर-भाभी की होली होती है। देवर अपनी भाभियों पर पिचकारी से रंग डालते हैं और भाभियां उन्हें डंडे मार कर दौड़ाती हैं। शाम को देवर भाभियों को फगवा के रूप में मिठाई भेंट करते हैं।

चारों ओर से बरसते लट्ठों के बीच खुद को बचाता हुरियारा।

जेठ के संग होली, दाऊजी की कौड़ामार



बलदेव की कौड़ामार होली प्रसिद्ध है। दाऊजी कृष्ण के बड़े भाई हैं इसलिए यह होली जेठ के संग होली कही जाती है। इस होली में दाऊजी मन्दिर की छतों से गुलाल उड़ाया जाता है और रंग की बरसात की जाती है। हुरियारिनें हुरियारों के कपड़ों को फाड़कर उन्हें घुमा-घुमा कर कौड़े की तरह प्रहार करती हैं। पुरुष इन प्रहारों को अपनी पीठ पर झेलते हैं।

धुलेंडी के बाद होती है हुरंगों की मस्ती



धुलेंडी के बाद होने वाले होली के सारे आयोजन हुरंगा कहलाते हैं। इन हुरंगों में लठामार भी होती है पर लाठियों के प्रहार से बचने के लिए पुरुषों के हाथ में ढाल के स्थान पर लकड़ी की बनी एक हत्थी होती है जिसे गारदी कहा जाता है। इन हुरंगों की सबसे खास बात यह है कि इनमें समाज के हर वर्ग के स्त्री-पुरुष भाग लेते हैं। धुलेंडी के अगले दिन द्वितीया को नंदगांव और जाब के हुरंगे होते हैं। नंदगांव में गिडोह गांव के हुरियारे होली खेलने आते हैं और जाब में बठैन गांव के हुरियारे होली खेलने आते हैं। अगले दिन तृतीया को गिडोह और बठैन के हुरंगे होते हैं। नंदगांव के हुरियारे गिडोह की महिलाओं के साथ होली खेलने जाते हैं और जाब के हुरियारे बठैन की महिलाओं के साथ होली खेलने जाते हैं। 

अन्य आयोजन ब्रज के हर गांव में


मांट तहसील में भी कई स्थानों पर हुरंगों का आयोजन होता है। सरकोरिया, इरोली, बिंदपुर, जाबरा, मांट, हरनोल, टेंटीगांव, सुरीर और मांट में हुरंगों के बड़े आयोजन होते हैं। महावन में नंदभवन चौरासी खंभा और कोयला के हुरंगे दर्शनीय होते हैं। शेषशायी की चौपाई, खायरा का फूलडोल, बनचारी का चौपाई गायन, मुखराई और सौंख का चरकुला नृत्य तथा बछगांव-नगला आशा के हुरंगे देखने योग्य होते हैं। गोवर्धन क्षेत्र के राल में झंडा दौड़ आदि का आयोजन हुरंगों के दौरान होता है। ये आयोजन चैत्र कृष्ण दशमी तक चलते हैं। 

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