पूर्व कथा
पिछले भागों में हमने मथुरा के इतिहास को जानने के संदर्भों के बारे में जाना और उसके बाद प्राचीन सूर्यवंश और चंद्रवंश की शुरुआत से लेकर यदुवंश की स्थापना को जाना। श्रीकृष्ण के जन्म से उनके देहत्याग तक के सम्पूर्ण विवरण पर चर्चा की। अब आगे…
ईस्वी पूर्व 1400 से ईस्वी पूर्व 600 तक
मथुरा की कहानी अब अगले काल खंड में प्रवेश करती है। यह काल खंड है ईसवी पूर्व 1400 से ईसवी पूर्व 600 टीम।
करीब आठ शताब्दियों के इस समयांतराल के दौरान शूरसेन जनपद के शासकों के बारे में कोई खास व्यवस्थित जानकारी नहीं मिलती है। पुराणों में उल्लेख मिलता है कि महाभारत के युद्ध से लेकर महापद्मनन्द के समय तक शूरसेन जनपद पर कुल 23 राजाओं ने शासन किया था। दुर्भाग्यवश हमें इन राजाओं के नाम और इनके बारे में कोई भी अन्य जानकारी कहीं नहीं मिलती है। पांडवों के बाद हस्तिनापुर की गद्दी पर उनका पौत्र परीक्षित बैठा और शूरसेन जनपद का उत्तराधिकारी कृष्ण का प्रपौत्र वज्रनाभ हुआ। उस समय भारतीय उपमहाद्वीप की राजनीतिक परिस्थितियों में बदलाव होने लगा था।
उत्तर-पश्चिम भारत में नागों का उत्थान
उत्तर-पश्चिम में नागवंशी राजाओं ने अपनी शक्ति का विस्तार कर लिया था। तक्षशिला इन नागवंशी राजाओं का प्रधान केंद्र बन गया और जल्द ही नागों का अधिकार तक्षशिला से लेकर शूरसेन जनपद तक हो गया। इन नागों का प्रधान शासक तक्षक था। तक्षक के बारे में जानकारी मिलती है कि वह बहुत शक्तिशाली हो गया था। हस्तिनापुर का राजा परीक्षित नागों की बढ़ती शक्ति को रोक नहीं पाया और तक्षक के हाथों उसकी मृत्यु हो गई।
बाद में परीक्षित के पुत्र जनमेजय ने नागों का संहार कर पुनः अपना राज्य प्राप्त किया। नागों का यह संहार नागयज्ञ कहा गया है। इस कालखंड के बारे में बौद्ध साहित्य से यह ज्ञात होता है कि प्राकबौद्ध काल में शूरसेन जनपद वैदिक धर्म का प्रधान केंद्र था।
इस काल में भारतीय उपमहाद्वीप 16 महाजनपदों में विभाजित था। प्राचीन बौद्ध और जैन साहित्य में यह सोलस महाजनपद के नाम से प्रसिद्ध हैं।
सोलह महाजनपद
पहला– काशी इसकी राजधानी वाराणसी (बनारस) थी। ब्रह्मदत्त राजाओं के काल में इस राज्य की बहुत उन्नति हुई थी।
दूसरा– कोशल इस राज्य की राजधानी श्रावस्ती (वर्तमान सहेत-महेत, जिला गोंडा बहराइच) थी। इसके पहले साकेत और अयोध्या इसके प्रधान नगर थे।
तीसरा– मगध (आधुनिक पटना और गया जिले) इसकी राजधानी गिरिब्रज थी। धीरे-धीरे मगध जनपद अन्य जनपदों से विस्तार और शक्ति में बहुत बढ़ गया।
चौथा– अंग (मगध के पूर्व में) इसकी राजधानी चम्पा नगरी में वर्तमान भागलपुर के निकट थी।
पांचवां– वज्जि इस जनपद की राजधानी वैशाली थी। यह गणराज्य था।
छठवां– मल्ल यह भी गणराज्य था जो हिमालय की तराई में स्थित था। मल्लों की दो शाखाएं थीं। एक का केंद्र कुशीनारा में था और दूसरी का पावा में।
सातवां– चेटि या चेदि यह राज्य आधुनिक बुंदेलखंड में था। इसकी राजधानी सूक्तिमती थी।
आठवां– वंस या वत्स अवंति राज्य के पूर्वोत्तर में यमुना के किनारे यह राज्य था। इसकी राजधानी कौशाम्बी थी।
नौवां– कुरु वर्तमान दिल्ली के आसपास का क्षेत्र। इन्द्रप्रस्थ और हस्तिनापुर इसके प्रधान नगर थे।
दसवां– पंचाल आधुनिक रुहेलखंड। इसके दो भाग थे उत्तर और दक्षिण पंचाल। इन दोनों के बीच की सीमा गंगा नदी थी। उत्तर पंचाल की राजधानी अहिच्छत्रा और दक्षिण पंचाल की काम्पिल्य थी।
ग्यारहवां– मत्स्य कुरु राज्य के दक्षिण में यह राज्य था। इसकी राजधानी विराटनगर थी।
बारहवां– शूरसेन यह मत्स्य राज्य के पूर्व में था। इसकी राजधानी मथुरा थी।
तेरहवां– अश्मक बुद्ध के समय पर यह राज्य गोदावरी नदी के तट पर था। इसकी राजधानी पोतली या पोतन थी। पूर्व में यह राज्य अवन्ति और मथुरा के बीच में फैला हुआ था।
चौदहवां– अवंति आधुनिक पश्चिमी मालवा। इसकी राजधानी उज्जयिनी थी। यह बहुत बड़ा राज्य था। इसके दक्षिणी भाग की राजधानी माहिष्मती थी।
पन्द्रहवां– गांधार यह वर्तमान पेशावर के पूर्व का भाग था। इसकी राजधानी तक्षशिला थी।
सोलहवां– कम्बोज यह वर्तमान अफगानिस्तान का पूर्वी भाग था। इसका मुख्य नगर राजपुर था।
इन 16 महाजनपदों के अलावा उस समय यहां बहुत से छोटे-छोटे जनपद भी थे। जिनमें केकय, त्रिगर्त, यौधेय, अम्बष्ठ, शिवि, सौवीर और आंध्र आदि प्रमुख थे।
कालांतर में इन जनपदों की सीमाएं घटती-बढ़ती गयीं। कुछ महाजनपदों ने दूसरे जनपदों को जीतकर अपना राज्य विस्तार किया। महात्मा बुद्ध का समय आते-आते भारत में चार प्रमुख राज्य ही बचे थे। मगध, कोशल, वत्स और अवंति। अन्य सभी जनपदों की स्थिति इनके सामने गौण हो गई थी। साम्राज्य विस्तार के इस दौर में शूरसेन जनपद मगध के अंतर्गत हो गया था।
(आगे किश्तों में जारी)