राजपूतों का इतिहास लिखकर अमर हुए कर्नल जेम्स टॉड की कहानी

17 वर्ष की उम्र में भारत आया था जेम्स

कर्नल जेम्स टॉड का जन्म इंग्लैंड के इस्लिंगटन नगर में 20 मार्च 1782 ईस्वी को एक उच्च कुल में  हुआ था। 1798 ईस्वी में वह ईस्ट इंडिया कंपनी के उच्च पद के सैनिक उम्मीदवारों में भर्ती वुलविच नगर की राजकीय सैनिक पाठशाला में प्रविष्ट हुआ और दूसरे साल ही 17 वर्ष की आयु में बंगाल आया, जहां 1800 ईस्वी के प्रारंभ में उसे दूसरे नंबर के रेजिमेंट में स्थान मिला। लॉर्ड वैलेजली के मोलक्का द्वीप पर सेना भेजने का विचार सुनकर साहसी टॉड ने उस सेना में सम्मिलित होने के लिए अर्जी दे दी, जिसके स्वीकृत होने पर वह जलसेना में भर्ती हो गया। किसी कारणवश उस सेना का वहां जाना स्थगित रहा, परंतु इससे उसे जल सैन्य संबंधी कामों का भी अनुभव हो गया। इसके कुछ समय बाद वह 14 नंबर की देशी पैदल सेना का लेफ्टिनेंट बनाया गया। उस समय से ही उसकी कुशाग्र बुद्धि उसके होनहार होने का परिचय देने लगी। फिर कलकत्ते से हरिद्वार और वहां से दिल्ली में उसकी नियुक्ति हुई। इंजिनियरी के काम में कुशल होने के कारण दिल्ली की पुरानी नहर की पैमाईश का काम लेफ्टिनेंट टॉड के सुपुर्द हुआ, जिसे उसने बड़ी योग्यता के साथ पूर्ण किया।

टॉड ने पहली बार बनाया राजस्थान का नक्शा

1805 ईस्वी में ग्रीम मर्सर अंग्रेजी सरकार की तरफ से राजदूत और रेजिडेंट नियत होकर दौलत राव सिंधिया के दरबार में जाने वाला था। इतिहास प्रेमी होने के कारण राज दरबारों के वैभव देखने की उत्कंठा से टॉड ने भी उसके साथ जाने की इच्छा प्रकट की। ग्रीम मर्सर ने उसकी प्रशंसनीय स्वतंत्र प्रकृति से परिचित होने के कारण सरकार से आज्ञा लेकर उसे अपने साथ रहने वाली सरकारी सेना का अफसर नियत किया।

उस समय तक यूरोपियन विद्वानों को राजपूताना और उसके आसपास के प्रदेशों का भूगोल संबंधी ज्ञान बहुत ही कम था, जिससे उनके बनाए हुए नक्शों में उन प्रदेशों के मुख्य मुख्य स्थान अनुमान से ही दर्ज किए गए थे, यहां तक कि चित्तौड़ का किला, जो उदयपुर से 70 मील पूर्व की ओर है, उनमें उदयपुर से उत्तर पश्चिम में दर्ज था। राजपुताने के पश्चिम और मध्य भाग के राज्य तो उन्होंने बहुदा छोड़ ही दिए थे। उस समय सिंधिया के मेवाड़ में होने के कारण मर्सर को आगरे से जयपुर की दक्षिणी सीमा में होकर उदयपुर पहुंचना था। साहसी टॉड ने आगरे से उदयपुर को प्रस्थान करने के दिन से ही अपनी पैमाईश की सामग्री संभाली और डॉक्टर हंटर के नियत किए हुए आगरा, दतिया, झांसी आदि को आधारभूत मानकर पैमाईश करता हुआ वह 1806 ईस्वी के जून मास में उक्त राजदूत के साथ उदयपुर पहुंचा। उदयपुर तक की पैमाईश करने के बाद टॉड ने शेष राजपूताना और उसके आसपास के प्रदेशों का एक उत्तम नक्शा तैयार करना चाहा, जिससे उक्त राजदूत के साथ जहां कहीं वह जाता या ठहरता, वहां अपना बहुत सा समय इसी कार्य में लगाता। पैमाईश करने के साथ साथ उन प्रदेशों के इतिहास, जनश्रुति आदि का भी यथा शक्ति संग्रह करता जाता था। उसी समय से उसकी अमर कीर्तिरूप राजस्थान के इतिहास की सामग्री का संग्रह होने लगा।

टॉड के बनाए नक्शे से पिंडारियों के दमन में मिली सहायता

सिंधिया की सेना के साथ साथ टॉड भी उदयपुर से चित्तौड़गढ़ के मार्ग से मालवे होता हुआ बुंदेलखंड की सीमा पर कमलासा में पहुंचा। इधर भी उसने अपना काम बड़े उत्साह से जारी रखा और जब सिंधिया की सेना ने 1807 ईस्वी में राहतगढ़ पर घेरा डाला, तो टॉड को अपने कार्य का बहुत अच्छा अवसर मिल गया। कुछ सिपाहियों को लेकर वह राजपुताने के भिन्न भिन्न स्थानों में गया और उधर के अधिकांश स्थानों की पैमाईश कर फिर राहतगढ़ में सिंधिया की सेना से आ मिला। जिस हिस्से में वह स्वयं न जा सका, उधर अपने तैयार किए हुए आदमियों को भेज कर उसने पैमाईश कराई और उसकी स्वयं जांच की। इस तरह से दस वर्ष तक निरंतर परिश्रम कर उसने राजपुताने का पूरा नक्शा तैयार कर लिया, जो अंग्रेजों के लिए पिंडारियों के साथ की लड़ाई में बड़ा उपयोगी सिद्ध हुआ।  

1813 ईस्वी में उसको कप्तान का पद मिला। फिर दो वर्ष बाद वह सिंधिया के दरबार का असिस्टेंट रेजिडेंट नियत हुआ और यहीं से उसका पॉलिटिकल विभाग में प्रवेश हुआ। 

महाराणा भीमसिंह के विश्वासपात्र होने का मिला लाभ

राजपुताने के राज्यों के साथ अंग्रेजों की संधियां होने पर कप्तान टॉड उदयपुर, जोधपुर, कोटा, बूंदी और जैसलमेर के राज्यों का पॉलिटिकल एजेंट बना और उसका सदर मुकाम उदयपुर नियत हुआ, जहां वह अपने उत्तम स्वभाव के कारण महाराणा भीम सिंह का विश्वासपात्र और सलाहकार बन गया। इस प्रकार राजपुताने में स्थिर होकर उसने अपने इतिहास का कार्य उत्साह के साथ आरंभ किया। महाराणा ने अपने सरस्वती भंडार से पुराण, रामायण, महाभारत, पृथ्वीराज रासो आदि ग्रंथ निकलवाकर उनसे पंडितों द्वारा सूर्य और चंद्र आदि वंशों की विस्तृत वंशावलियो और वृतांतों का संग्रह करवा दिया। फिर टॉड ने यति ज्ञानचंद्र को गुरु बनाकर अपने पास रखा, जो कविता में निपुण होने के अतिरिक्त कुछ कुछ प्राचीन लिपियों को पढ़ सकता था और जिसे संस्कृत का भी ज्ञान था। ज्ञानचंद्र के अतिरिक्त कुछ पंडितों और घासी नामक चित्रकार को भी वह अपने साथ रखता था। दौरा करने के लिए टॉड जहां जाता, वहां शिलालेखों, सिक्कों, संस्कृत और हिंदी के प्राचीन काव्यों, वंशावलियों, ख्यातों आदि का संग्रह करता और शिलालेखों तथा संस्कृत काव्यों का यति ज्ञानचंद्र से अनुवाद कराता। राजपुताने में रहने तथा यहां के निवासियों के साथ प्रेम होने के कारण उसे यहां की भाषा का अच्छा ज्ञान हो गया था। वह गांवों के वृद्ध पुरुषों,  चारणों, भाटों आदि को अपने पास बुला कर उनसे पुराने गीत तथा दोहों आदि का संग्रह करता और वहां की इतिहास संबंधी बातें , क्षत्रियों की वीरता और भिन्न भिन्न जातियों के रीति रिवाज या धर्म संबंधी वृत्तांत पूछता।

इतिहास लेखन के लिए संदर्भ सामग्री का संग्रह

जिस जिस राज्य में जाना होता, वहां का इतिहास वहां के राजाओं द्वारा अपने लिए संग्रह कराता और ऐतिहासिक पुस्तकों की नकल करवाता। प्रत्येक प्राचीन मंदिर, महल आदि स्थानों के बनवाने वालों का यथासाध्य पता लगाता और युद्ध में मरे हुए वीरों के चबूतरे देखता, उन पर के लेख पढ़वा कर तथा लोगों से पूछकर उनका विवरण एकत्र करता, यदि कोई शिलालेख बहुत उपयोगी होता तो उसे उठवाकर अपने साथ ले जाता। जहां जाता, वहां के उत्तमोत्तम मंदिरों व महलों आदि के चित्र भी बनवाता। यह काम बहुधा उसका साथ कैप्टन वॉग किया करता था। इसी तरह राजाओं प्रतिष्ठित पुरुषों के अधिकांश चित्र घासी तैयार किया करता था। साथ ही वह स्वयं हिंदी, संस्कृत, फारसी आदि भाषाओं में लिखे हुए ऐतिहासिक और अन्य विषय के ग्रंथों, ख्यातों एवं प्राचीन ताम्रपत्रों तथा सिक्कों का संग्रह करता। प्राचीन सिक्कों के संग्रह के लिए मथुरा आदि शहरों में उसने अपने एजेंट रखे थे। इस प्रकार उसने 20000 पुराने सिक्के, सैकड़ों शिलालेख,  कई ताम्रपत्र या उनकी नकलें  वंशावलियां, बहुतसी ख्यातें तथा अनेक ऐतिहासिक काव्य इकट्ठे कर लिए। 

देशी राजाओं के साथ स्नेह के कारण अंग्रेजों की नजर में संदिग्ध हुआ कर्नल टॉड 

1819 ईस्वी के अक्टूबर में उदयपुर से जोधपुर को रवाना हुआ और नाथद्वारा, कुंभलगढ़, घाणेराव, नाडौल आदि होता हुआ वहां पहुंचा। वहां से वह मंडोर, मेड़ता, पुष्कर, अजमेर आदि प्राचीन स्थान देखता हुआ उदयपुर लौट आया; फिर वह बूंदी और कोटा गया। बाड़ौली, भानपुर, धमनार (जहां सुंदर प्राचीन गुफाएं हैं), झालरापाटन (चंद्रावती), बीजोल्या, मैनाल, वेगूं  आदि स्थानों को देखकर दौरा करता हुआ उदयपुर लौट आया। 

टॉड को स्वदेश छोड़े हुए 22 वर्ष हो चुके थे, जिनमें से 18 वर्षों तक पृथक पृथक पदों पर रहने के कारण उसका राजपूतों के  साथ बराबर संबंध रहा। अपनी सरल प्रकृति और सौजन्य वह जहां जहां रहा था या गया, वहीं लोकप्रिय बन गया और उसको राजपूताना तथा यहां के निवासियों के साथ ऐसा स्नेह हो गया था कि उसकी इच्छा थी कि मैं अपनी शेष आयु यहीं बिताऊं, परंतु शारीरिक अस्वस्थता के कारण उसका स्वदेश जाना आवश्यक था, और स्वदेश जाने में दूसरा मुख्य कारण यह भी था कि देशी राजाओं के साथ स्नेह रखने से अंग्रेज सरकार को उसकी प्रमाणिकता के विषय में संदेह होने लग गया था, जिससे अप्रसन्न होकर उसने गवर्नमेंट की सेवा छोड़ देने का संकल्प कर लिया। 

पश्चिमी भारत की यात्रा की पृष्ठभूमि

राजपुताने के इतिहास की बड़ी भारी सामग्री एकत्र कर उसने स्वदेश के लिए एक जून 1822 ईस्वी को उदयपुर से प्रस्थान किया। बंबई तक जाने के मार्ग में भी वह अपने इतिहासप्रेम और शोधक बुद्धि के कारण इतिहास की सामग्री एकत्र करता रहा। उदयपुर से गोगूंदा, बीजापुर और सिरोही होता हुआ वह आबू पहुंचा, जहां के अनुपम जैन मंदिरों को देखकर अत्यंत मुग्ध हुआ और उनकी कारीगरी की उसने मुक्तकंठ से प्रशंसा की। आबू पर जाने वाला वह पहला ही यूरोपियन था। आबू से परमार राजाओं की राजधानी चंद्रावती नगरी के खंडहरों को देखता हुआ  वह पालनपुर, सिद्धपुर, अनहिलवाड़ा (पाटण), अहमदाबाद, बड़ौदा आदि स्थानों में होकर खंभात पहुंचा। वहां से सौराष्ट्र (सोरठ) में जाकर भावनगर और सीहोर देखता हुआ वह वलभीपुर पहुंचा। उसकी इस यात्रा का उद्देश्य केवल यही था कि जैनों के कहने से उसे यह विश्वास हो गया था कि मेवाड़ के राजाओं का राज्य पहले सौराष्ट्र में था और उनकी राजधानी वलभीपुर थी, जहां का अनुसंधान करना उसने अपने इतिहास के लिए आवश्यक समझा। उन दिनों सड़कें, रेल, मोटर आदि न थीं, ऐसी अवस्था में केवल इतिहास प्रेम और पुरातत्व के अनुसंधान की जिज्ञासा के कारण ही उसने इतना अधिक कष्ट सहकर यात्रा की। सोमनाथ से एक कोस दूर वेरावल स्थान के एक छोटे से मंदिर में गुजरात के राजा अर्जुनदेव के समय का एक बड़ा ही उपयोगी लेख मिला, जिसमें हिजरी सन् 662, विक्रम संवत 1320, वलभी संवत 945 और सिंह संवत 151 दिए हुए थे। इस लेख के मिलने से उसने अपनी इस कष्ट पूर्ण यात्रा को सफल समझा, और इससे वलभी तथा सिंह सम्वतों का प्रथम शोधक और निर्णयकर्ता बनने का श्रेय उसे ही मिला। सोमनाथ से घूमता हुआ वह जूनागढ़ गया, जहां से थोड़ी दूर एक चट्टान पर उसने अशोक, क्षत्रप रुद्रदामा और स्कंदगुप्त के लेख देखे, परंतु उस समय तक उनके पढ़े न जाने के कारण उसकी आकांक्षा पूर्ण न हो सकी। गिरनार पर जैन मंदिर और यादवों के शिलालेख आदि देखकर गूंमली, द्वारिका, मांडवी (कच्छ राज्य का बंदर) होता हुआ वह बंबई पहुंचा। इस यात्रा का सविस्तार वृत्तांत उसने अपने “ट्रेवल्स इन वेस्टर्न इंडिया” नामक एक वृहद ग्रंथ में लिखा है, जो उसकी मृत्यु के बाद प्रकाशित हुआ। तीन सप्ताह बंबई में रहकर उसने स्वदेश को प्रस्थान किया। इस समय वह यहां से इतनी ऐतिहासिक सामग्री ले गया था कि उसको केवल अपने सामान का 72 पौंड महसूल देना पड़ा। 

 

एक इतिहास लेखक के तौर पर कर्नल जेम्स टॉड

टॉड के इंग्लैंड पहुंचने से कुछ पहले लंदन में रॉयल एशियाटिक सोसाइटी की स्थापना हो चुकी थी। वहां जाते ही वह भी उसका सभासद बन गया और कुछ समय बाद अपने विद्यानुराग के कारण वह उसका पुस्तकालयाध्यक्ष बनाया गया। वहां पहुंचने के दूसरे साल ही उसने पृथ्वीराज (दूसरा) के समय के विक्रम संवत 1224 माघ सुदी सप्तमी ( 19 जनवरी 1168 ईस्वी) के लेख पर एक अत्यंत विद्वतापूर्ण निबंध पढ़ा, जिसकी यूरोप में बड़ी प्रशंसा हुई। तदांतर समय समय पर उसने राजपूताने के इतिहास संबधी कई अन्य निबंध भी पढ़े, जिनके कारण यूरोपीय विद्वानों का ध्यान राजपुताने के इतिहास की ओर आकर्षित हुआ।

टॉड 1824 ईस्वी में मेजर और 1826 ईस्वी में लेफ्टिनेंट कर्नल हुआ। अपनी तीन वर्ष की छुट्टी समाप्त होने पर उसने अपने पूर्व संकल्प के अनुसार 1825 ईस्वी में सरकारी नौकरी से इस्तीफा दे दिया। 1826 ईस्वी में 44 वर्ष की अवस्था में विवाह किया और थोड़े ही दिनों बाद स्वास्थ्य सुधार के लिए यूरोप की यात्रा की। 

1829 ईस्वी में उसने राजपूत जाति के कीर्ति स्तंभ रूप “राजस्थान के इतिहास” की पहली जिल्द प्रकाशित की और 1832 ईस्वी में दूसरी जिल्द प्रकाशित की। फिर 1835 ईस्वी में “पश्चिमी भारत की यात्रा” नामक पुस्तक लिखकर समाप्त की। उसे छपवाने के लिए वह 14 नवंबर 1835 ईस्वी को लंदन गया, परंतु उसके दो ही दिन बाद, जब वह एक कंपनी के यहां अपने लेनदेन का हिसाब कर रहा था, एकाएक मिर्गी के आक्रमण से वह मुर्छित हो गया और 27 घंटे मुर्छित रहने के अनंतर 17 नवंबर को 53 वर्ष की अवस्था में उसने इस संसार से प्रयाण किया।

टॉड मंझोले कद का था। उसका शरीर हृष्ट पुष्ट और चेहरा प्रभावशाली था। उसकी शोधक बुद्धि बहुत बड़ी हुई थी। वह बहुश्रुत, इतिहास का प्रेमी और असाधारण वेत्ता, विद्यारसिक, क्षत्रिय प्रकृति का निरभिमानी पुरुष था। यही कारण था कि राजपूतों की वीरता और आत्म त्याग के उदाहरणों को जानने से उसको राजपुताने के इतिहास से बड़ा प्रेम हो गया था। 

राजस्थान का इतिहास का लेखन कार्य

टॉड ने जब अपना सुप्रसिद्ध और विद्वतापूर्ण इतिहास लिखा, उस समय प्राचीन शोध का कार्य आरंभ ही हुआ था। उस समय उसे न कोई पुरातत्व अन्वेषण संस्था इस महान कार्य में सहायता दे सकी और न उससे पूर्व किसी विद्वान ने राजपुताने में कुछ शोध किया था। ऐसी अवस्था में इतना महत्त्वपूर्ण इतिहास लिखना कितना कठिन कार्य था, यह बतलाने की आवश्यकता नहीं है। उसने अपना इतिहास अधिकतर पुराणादि ग्रंथों, भाटों की ख्यातों, राजाओं के दिए हुए अपने अपने इतिहास और वंशावलियों, प्राचीन संस्कृत और हिंदी काव्यों तथा कुछ फारसी तवारीखों के आधार पर लिखा, परंतु केवल इसी पर उसने संतोष न किया और भिन्न भिन्न शिलालेखों तथा सिक्कों की खोजकर उसने पृथ्वीराज रासो और भाटों की ख्यातों की कई अशुद्धियां ठीक कीं। 

पहली जिल्द में राजपुताने का भूगोल संबंधी वर्णन, सूर्य, चंद्र आदि पौराणिक राजवंशों और पिछले 36 राजवंशों का विवेचन, राजपुताने में जागीरदारी प्रथा; और अपने समय तक का उदयपुर का इतिहास तथा वहां के त्यौहारों आदि का वर्णन एवम उदयपुर से जोधपुर और जोधपुर से उदयपुर लौटने तक के दौरे में जहां जहां उसका ठहरना हुआ, वहां का और उसके आसपास के स्थानों के वृत्तांत, वहां के इतिहास, शिल्प, शिलालेख, राजाओं और सरदारों का वर्णन, लोगों की दशा, भौगोलिक स्थिति, खेतीबाड़ी, वहां के युद्धों, वीरों के स्मारकों, दंत कथाओं तथा अनेक ऐतिहासिक घटनाओं का विवरण है। यह विवरण बड़ा ही रोचक और एक प्रकार से इतिहास का खजाना है। दूसरी जिल्द में जोधपुर, बीकानेर और जैसलमेर का इतिहास, मरुस्थली का संक्षिप्त वृत्तांत, आंबेर का इतिहास, शेखावतों का परिचय, हाड़ौती (बूंदी) और कोटे का इतिहास एवम उदयपुर से कोटा और कोटा से उदयपुर तक की दो यात्राओं का सविस्तार वर्णन है। इन दोनों दौरों का विवरण भी ठीक वैसा और उतने ही महत्त्व का है जितना कि जोधपुर के दौरे का ऊपर बतलाया गया है। इन दोनों जिल्दों में स्थान स्थान पर टॉड ने राजाओं, प्रसिद्ध वीरों, ऐतिहासिक स्थानों और कई उत्तम दृश्यों आदि के अपने तैयार करवाए हुए अनेक सुंदर चित्र भी दिए हैं। इस पुस्तक के प्रकाशित होने से राजपूत वीरों को कीर्ति, जो पहले केवल भारतवर्ष में सीमाबद्ध थी, भूमंडल में फैल गई। यह पुस्तक इतनी लोकप्रिय और प्रसिद्ध हुई कि इस वृहद ग्रंथ के अनेक संस्करण भारत के भिन्न भिन्न प्रांतों और इंग्लैंड में प्रकाशित हुए। भारत में हिंदी, गुजराती, बंगला, उर्दू आदि भाषाओं में इसके कई अनुवाद प्रकाशित हुए और कई भाषाओं में इसके आधार पर स्वतंत्र ऐतिहासिक पुस्तक, काव्य, उपन्यास, नाटक तथा जीवन चरित्र लिखे गए। 

अपने गुरु यति ज्ञानचंद्र से कराता था संस्कृत का अनुवाद

टॉड स्वयं संस्कृत से अनभिज्ञ था, इसलिए संस्कृत के शिलालेखों के लिए उसे अपने गुरु यति ज्ञानचंद्र से सहायता लेनी पड़ती थी। ज्ञानचंद्र भाषा कविता का विद्वान होने पर भी अधिक पुराने शिलालेखों को ठीक ठीक नहीं पढ़ सकता था और उसका संस्कृत ज्ञान भी साधारण ही था; जिससे टॉड की संग्रहित सामग्री का पूरा पूरा उपयोग न हो सका, और कुछ लेखों के ठीक न पढ़े जाने के कारण भी उसके इतिहास में कुछ अशुद्धियां रह गईं।

राजाओं से उनके यहां से लिखे हुए जो इतिहास मिले, उनके अतिश्योक्तिपूर्ण होने एवम विशेष खोज के साथ न लिखे जाने के कारण भी इतिहास में कई स्थल दोषपूर्ण हैं। भाटों और चारणों की ख्यातों तथा गीतों को आधारभूत मानने के कारण एवम बहुत सी अनिश्चित दंत कथाओं का समावेश होने से भी त्रुटियां रह गईं हैं। संस्कृत भाषा तथा भारतीय पुरुषों या स्थानों के नामों से पूर्ण परिचय न होने से कई जगह नामों की अशुद्ध कल्पना हुई है। कहीं यूरोप और मध्य एशिया की जातियों तथा राजपूतों के रीति रिवाजों का मिलान करने में भ्रमपूर्ण अनुमान भी किए गए हैं। कुछ लोगों की लिखवाई हुई बातों की ठीक ठीक जांच कर उनको ज्यों की त्यों लिखने से भी अशुद्धियां रह गईं हैं। इस पर भी टॉड का इतिहास एक अपूर्व ग्रंथ है। यह इतिहास अपने विषय का पहला और सबसे महत्त्वपूर्ण प्रयास है।

(राजपूताने का इतिहास के लेखन गौरीशंकर हीराचंद ओझा की पुस्तकों में दिए गए तथ्यों पर आधारित)

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