तर्पण (जीते जी भर पेट खाने को तरसती मां के मृत्यु भोज में किया लाखों का खर्चा)

कहानी

पायल कटियार

आज दादी का श्राद्ध है कहते हुए सुबह से ही उसकी मां ने घर के सभी सदस्यों को जल्दी उठा दिया। श्राद्ध के लिए दही पकौड़ी, खस्ता, पूड़ी कचौड़ी, आलू की सब्जी, बूंदी का रायता, इमरती सब बनाया गया। पूरे घर में भोजन की खुशबू फैल चुकी थी। बाहर के कमरे में एक ओर रखे पटरे पर दादी की तस्वीर को लगाकर फूलों की माला उन पर डाल दी गई। यह पिछले कई सालों से हो रहा था। दादी का जब-जब श्राद्ध आता था तब-तब उनकी तस्वीर को निकालकर इसी तरह से सजा दिया जाता उसके बाद एक साल तक उनकी तस्वीर से धूल तक नहीं पौंछी जाती थी। आज भी उनकी तस्वीर को देखा तो लगा जैसे आज भी वह इस भोजन को नहीं सिर्फ खुशबू को ही लेने के लिए ही हमारे आसपास हैं।

श्रद्धा को याद आ रहा था कि जिस दादी को जिंदा रहते दो वक्त की रोटी नसीब नहीं हुई। दलिया भी सिर्फ दो चम्मच, कभी तीसरी चम्मच मांग लिया तो उसकी ताई चीखने लगती थीं खा तो लोगी फिर सफाई कौन करेगा? खाने के बाद तुम्हें होश तक नहीं रहता कपड़े-बिस्तर सब खराब कर देती हो। अब बस करो खा लिया इससे ज्यादा नहीं मिल सकता है। बेचारी अपनी भूख को मार-मार कर जी रहीं थीं। बुढ़ापे में असहनीय भूख और नए-नए स्वाद याद आते थे।

घर में बनीं चीजों का उन्हें स्वाद लेने के लिए नहीं सिर्फ खुशबू ही सूंघने को मिलती थी। दादी हमेशा अपने पुराने दिनों को याद करके घर पर आने वाले सभी रिश्तेदारों को बतातीं थीं कि मैं सूजी का हलवा ऐसे बनाती थी, मैं कढ़ी ऐसे बनाती तो कभी अपने बनाए परेव के बारे में बतातीं थीं। तुम्हारे दादा को बहुत पसंद थी मेरे हाथ की बनी खीर। उनके जाने के बाद मेरे स्वाद भी चले गए। फिर रोने लगती और कहतीं देखो आज बिस्तर पर पड़े पड़े अपने पुराने दिनों को याद कर कराह रही हूं। ऊपरवाला है कि उठाने का नाम नहीं ले रहा है।

एक दिन अचानक न जाने क्या धुन सवार हो गई, दादी ने अपने बक्से को अपने सामने रखकर खोलने की जिद कर डाली। दादी की चारों बहुएं बक्से के सामने आकर ऐसे खड़ी हो गईं जैसे कोई कुबेर का खजाना मिलने वाला है। तभी उन्होंने श्रद्धा से बक्सा खुलवाया उसमें कुछ पुराने छोटे-छोटे कपड़े निकालकर देने लगी, ले यह तेरे बाप का झबला है मेरी मां ने इसके लिए अपने हाथ से सीकर (सिलकर) भेजा था। आज तक संभालकर रखा है। बड़ी बहू ने मुंह सिकोड़ते हुए बुदबुदाया और कुछ नहीं संभालकर रख पाईं थीं, बड़ी की बात सुन छोटी भी मुस्करा दी। उसमें से एक के बाद एक कई जोड़ी छोटे कपड़े मोजे निकालकर रख दिए। एक सुंदर सा कार्ड भी निकला जिसे देखकर लगता था किसी छोटे बच्चे ने बनाया है। यह मुझे पहली बार तेरे ताऊ (दादी के बड़े बेटे) ने मुझे ग्रीटिंग बनाकर दिया था। दादी के लिए यह सब किसी खजाने से कम चीजें न थीं। एंटिक चीजें, खेल-खिलौने ऐसी पुरानी चीजों का पिटारा पहली बार खोला गया था। दादी की बहुएं मुंह बनाकर अपने-अपने कमरे में जा चुकी थीं। मगर श्रद्धा को अपनी दादी की हर एंटीक चीज से लगाव था। वह उन्हें सहेजकर दोबारा बक्से में रखने लगी तो दादी ने मना कर दिया।

उस रात दादी अपने उस खजाने के साथ गले लगाकर सो गईं। सोती हुई दादी ऐसे लग रहीं थीं जैसे कोई छोटी बच्ची अपने गुड्डे गुड़ियों के खिलोनों को साथ लेकर सो जाती हो। दूसरे दिन दादी ने प्रतिदिन की किसी को भी मुंह धुलवाने के लिए आवाज नहीं लगाई। बहुओं को भी आज शांति सी मिल रही थी वरना सुबह होते-होते वह किसी न किसी को आवाज ही देती रहती थीं। घरवाले भी चार बार आवाज देने पर एक बार ही उनसे उनके हाल चाल पूछने जाते थे। श्रद्धा उस समय छोटी थी इसलिए वह दादी की तकलीफों को शायद तब समझ नहीं पाई थी। उस दिन भी दादी ने जब आवाज नहीं दी तो वह खुद ही उनके पास आई थी और दादी को जगाने का प्रयास कर रही थी मगर वह हमेशा के लिए सो चुकी थीं।बहुओं ने रोना पीटना शुरू किया तो आसपास के लोग इकट्ठे हो गए।

दादी के अंतिम संस्कार पर किसी ने कहा दादी सौ वर्ष की तो होंगी इसलिए विमान तो निकलना ही चाहिए। किसी ने कहा नहीं-नहीं बैंड बाजे भी होना चाहिए। दादी का बैंड-बाजों के साथ विमान निकाला गया। जिस दादी के लिए कभी दवा के लिए भी पैसे देने में आफत आती थी आज हजारों रूपये का विमान और बैंड-बाजों में फूंक दिये गए। आसपास की ताई-चाची ने आकर तीनों बहुओं को चेतावनी दी कि अब तेरह दिन तक दादी को जो भी पंसद था वही खाना बनाकर चील कौवों को खिलाना, ताकि उनकी आत्मा को शांति मिल सके। जिस दादी को दो से तीसरी चम्मच दलिया के लिए सौ सुना देती थीं बहुएं आज वह दादी के नाम से तरह तरह के पकवान बनाकर चील कौवों और कुत्ते को बना बनाकर खिला रहीं थीं।

तेरहवें दिन आसपास के गांव में चून (पूरे परिवार की दावत) न्यौता दिया गया। ट्रैक्टर की ट्रॉली भरकर खीर पुआ और आलू टमाटर की सब्जी, बूंदी बनाकर खिलाई परोसी गई। रिश्तेदारों ने छककर खाया और बांध-बांधकर ले गए। श्रद्धा का बालमन सबकुछ देख भी रहा था और मन ही विचार कर रहा था क्या सच में दादी की आत्मा को शांति मिल रही होगी?

पायल कटियार

[नोट: इस कहानी के सभी पात्र और घटनाएं काल्पनिक है, इसका किसी भी व्यक्ति या घटना से कोई संबंध नहीं है। यदि किसी व्यक्ति से इसकी समानता होती है, तो उसे मात्र एक संयोग कहा जाएगा।]

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