भगवान श्रीकृष्ण की जन्मभूमि मथुरा नगरी सच में तीन लोक से न्यारी है। आमजन इसकी कहानी को बस श्रीकृष्ण से जोड़कर ही जानते हैं जबकि यह नगरी अपने अतीत में एक विशाल वैभवशाली विरासत को सहेजे हुए है जो श्रीकृष्ण के जन्म से कहीं प्राचीन है। मथुरा की इस अनकही कहानी को लेकर आया है हिस्ट्रीपण्डितडॉटकॉम। यह विस्तृत आलेख लिखा है श्री लक्ष्मीनारायण तिवारी ने। श्री तिवारी ब्रज के इतिहास और संस्कृति के पुरोधा हैं जो अपने कुशल निर्देशन में ब्रज संस्कृति शोध संस्थान (वृन्दावन) का संचालन कर रहे हैं। यह आलेख थोड़ा विस्तृत है अतः इसे यहां किश्तों में प्रकाशित किया जा रहा है। प्रस्तुत आलेख प्राचीन मथुरा की खोज की ग्यारहवीं किश्त है।
प्राचीन मथुरा की खोज ग्यारहवीं किश्त
हम प्राचीन मथुरा की इस खोज यात्रा में अब भागवत धर्म (वैष्णव धर्म) की उपासना पद्धति पर कुछ चर्चा करेंगे।
वासुदेव श्रीकृष्ण के आराधन की प्राचीनतम पद्धति ‘सात्वत विधि’ है। जिसके प्रारंभिक संकेत हमें महाभारत के शान्ति पर्व से प्राप्त होते हैं। संभवतः इसे ही बाद में ‘पांचरात्र विधि’ भी कहा जाने लगा। गीता के 10 वें अध्याय में एक श्लोक का अंश है –
‘वृष्णीनां वासुदेवोस्मि’
जिसमें श्रीकृष्ण कहते हैं कि मैं वृष्णि कुल में वासुदेव हूँ।
पांचरात्र विधि और चतुर्व्यूह का शास्त्रीय आधार
मैं समझता हूँ कि ब्रज के लोक मानस ने ही सर्वप्रथम श्रीकृष्ण के साथ-साथ वृष्णि कुल के अन्य योद्धाओं को भी देवत्व प्रदान किया। जिसके चलते पांचरात्र विधि में
‘चतुर्व्यूह’ की भावना का शास्त्रीय आधार तैयार हुआ।
प्रश्न है कि चतुर्व्यूह की भावना क्या है?
पांचरात्र विधि में अवतार भावना का वैशिष्ट्य है। ज्ञान और बल की प्रधानता से संकर्षण बलराम, ऐश्वर्य की प्रधानता से प्रद्युम्न तथा शक्ति और तेज की प्रधानता से अनिरुद्ध का अवतार होता है। उनके केंद्र में हैं वासुदेव श्रीकृष्ण जिनको मिलाकर इसे चतुर्व्यूह कहा जाता है। इसी क्रम में साम्ब को भी सम्मिलित किया गया है जिससे पंचव्यूह की रचना होती है। ब्रज में इन्हें ‘पंच वृष्णि वीर’ भी कहा जाता था।
पंच वृष्णि वीर
वायु पुराण के एक श्लोक में वृष्णियों के पाँच वीरों का उल्लेख प्राप्त होता है –
संकर्षणौ वासुदेव: प्रद्युम्न : साम्ब एव च ।
अनिरुद्धश्च पंचैते वंशवीरा : प्रकीर्तिता : ।।
यह सभी श्रीकृष्ण से संबंधित हैं संकर्षण बलराम बड़े भाई के रूप में, प्रद्युम्न व साम्ब उनके पुत्रों के रूप में तथा अनिरुद्ध प्रद्युम्न के पुत्र होने के कारण श्रीकृष्ण के पौत्र हैं।
दक्षिण भारत में हुई पांचरात्र संहिताओं की रचना
सात्वत लोगों के मथुरा व ब्रज छोड़कर दक्षिण में जा बसने के कारण पांचरात्र विधि का प्रसार उत्तर से दक्षिण तक हुआ। बल्कि उत्तर भारत से कहीं अधिक पांचरात्र संहिताओं की रचना दक्षिण भारत में ही हुईं। जिससे भागवत धर्म का एक बड़ा केन्द्र अब दक्षिण भारत बन गया। जहाँ कई शताब्दियों तक यह विधि पोषित होती रही। आज उपलब्ध पांचरात्र आगम साहित्य का विपुल भण्डार इसी का परिणाम है।
शोडास ने स्थापित की पंचवीरों की प्रतिमा
किन्तु हमारे लिए यह जान लेना अत्यंत महत्वपूर्ण है कि पांचरात्र पद्धति के अब तक उपलब्ध सबसे प्राचीन पुरातात्त्विक साक्ष्य मथुरा से ही प्राप्त हुए हैं। मथुरा के पास मोरा नामक गाँव से एक दुर्लभ शिलालेख और कुछ खंडित मूर्तियाँ प्राप्त हुईं हैं, जो अब मथुरा संग्रहालय में सुरक्षित हैं। प्राप्त शिलालेख का समय प्रथम शताब्दी ईसा पूर्व का निर्धारित होता है। क्योंकि इस ब्राह्मी अभिलेख में मथुरा के शासक महाक्षत्रप राजबुल के पुत्र स्वामी (शोडास) के द्वारा शैल देव गृह (पत्थर के मन्दिर) में वृष्णियों के पाँच वीरों की प्रतिमाएँ स्थापित करने का उल्लेख है –
‘भगवतां वृष्णिनां पंचवीराणां प्रतिमा: शैल देव गृहे’
मोरा गाँव से एक वृष्णि वीर की खंडित मूर्ति भी प्राप्त हुई है।
बौद्ध मूर्तियों से पहले भागवत मूर्तियों का निर्माण
मोरा गाँव से प्राप्त यह अभिलेख और मूर्तियाँ भागवत धर्म की पांचरात्र उपासना पद्धति का पुरातत्व में प्राचीनतम उदाहरण हैं। यह जीवंत प्रमाण हैं कि मथुरा कला के शिल्पी बौद्ध मूर्तियों के निर्माण से लगभग सौ वर्ष पहले से ही भागवत धर्म संबंधी मूर्तियों का निर्माण कर रहे थे।
आप को यह जानकर भी आश्चर्य होगा कि पांचरात्र विधि के अनुसार चतुर्व्यूह भावना की प्राचीनतम मूर्ति का निर्माण भी मथुरा कला के शिल्पियों ने ही सर्वप्रथम किया। उत्तर कुषाणकालीन यह मूर्ति मथुरा के सप्त समुद्री कूप से प्राप्त हुई। यह मूर्ति अब मथुरा संग्रहालय में सुरक्षित है। अपने तरह की यह दुर्लभ मूर्ति है जिसके केन्द्र में वासुदेव श्रीकृष्ण हैं। इसमें चतुर्व्यूह भाव के अनुरूप चार मानव आकृतियाँ अवतरित होती दिखलाई गईं हैं। हालांकि मूर्ति अब खंडित अवस्था में है और मानव आकृतियाँ नष्ट हो गईं हैं। फिर भी श्रीकृष्ण के अलावा बलराम की आकृति को स्पष्ट रूप से पहचाना जा सकता है।
दक्षिण से उत्तर के मध्य विकसित हुआ भागवत धर्म
उत्तर भारत में बौद्ध धर्म के फैलने से भागवत धर्म का प्रभाव कुछ कम होने लगा, लेकिन यह धर्म दक्षिण में कई शताब्दियों तक संरक्षित बना रहा, बल्कि विकसित भी हुआ। भागवत धर्म का यही विकसित स्वरूप हमें मध्यकाल के वैष्णव भक्ति आंदोलन के रूप में पुनः प्राप्त हुआ।
मैं सोचता हूँ कि भागवत धर्म की एक बड़ी देन यह भी है कि उसने कई शताब्दियों तक दक्षिण भारत को उत्तर भारत के साथ एक मज़बूत सांस्कृतिक डोर में बाँधे रखा और यह मजबूती आज भी कायम है।
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