महाराजा सूरजमल अठारहवीं शताब्दी के एक महान शासक थे। विपरीत परिस्थितियों में उनका भाग्य नक्षत्र चमक उठा। अपनी कुशलता, योग्यता और वीरता के बल पर उन्होंने एक बड़े साम्राज्य का गठन किया। आज 25 दिसम्बर को उनका बलिदान दिवस है। हिस्ट्रीपण्डित डॉटकॉम इस अवसर पर महाराजा सूरजमल को नमन करता है। इस अवसर अत्यंत संक्षिप्त जीवन परिचय फिलहाल यहां प्रस्तुत किया जा रहा है।
सूरजमल का जन्म और शुरुआती घटनाएं
सूरजमल भरतपुर राज्य के वास्तविक संस्थापक राजा बदनसिंह के ज्येष्ठ पुत्र थे। उनका जन्म फरवरी 1707 में हुआ था। इनकी माता का नाम देवकी था जो कामां की थी। सूरजमल के बारे में कुछ इतिहासकारों ने भ्रांतिपूर्ण बातें भी लिखी हैं। कोई उन्हें गोद लिया हुआ पुत्र बताते हैं तो कोई उन्हें बदनसिंह के बड़े भाई रूपसिंह की विधवा का पुत्र बताते हैं। पर आपको इन भ्रांतियों पर ध्यान देने की जरूरत नहीं है। ये शुरुआत से ही बहादुर और योग्य थे। यही वजह थी कि बदनसिंह ने इन्हें अपने राज्य संचालन के कार्य का दायित्व सौंप दिया था।
पिता के राज्य संचालन में सहयोगी के रूप में
महाराजा बदनसिंह ने करीब बीस वर्ष तक राज्य व्यवस्था स्वयं संभाली। सन 1742 ईस्वी में बदनसिंह की नेत्रज्योति घटने लगी तो उन्होंने कुमार सूरजमल को राज्य के बहुत से अधिकार सौंप दिए। बदनसिंह ने राज्य के बाहरी मामलों का दायित्व पूरी तरह सूरजमल के हाथों में दे दिया था। राज्य विस्तार, सैन्य संगठन और राजनीतिक वार्ताओं के सारे काम सूरजमल ने बखूबी संभाले। 1745 ईस्वी में सूरजमल ने अली मुहम्मद रुहेले के खिलाफ दिल्ली के बादशाह मुहम्मद शाह की ओर से युद्ध किया। 1746 में सूरजमल ने चंदोस के युद्ध में सूबेदार फतह अली खां की सहायता करते हुए असद खाननजाद को हराया। अगस्त 1748 ईस्वी में सूरजमल ने जयपुर राज्य के उत्तराधिकारियों के मध्य संघर्ष में बगरू के युद्ध मे ईश्वरी सिंह के पक्ष में युद्ध लड़ कर उसे विजय दिलाई। इस युद्द ने सूरजमल की वीरता की धाक जमा दी। सूरजमल की मित्रता दिल्ली के वजीर सफदरजंग से हुई। उसने सफदरजंग के लिए दो बार रुहेलों के विरुद्ध सफल अभियान किए। जून 1749 में सूरजमल ने दिल्ली के मीर बख्शी सलावत जंग को कड़ी टक्कर दी। विवश होकर मीर बख्शी को सूरजमल के सामने संधि प्रस्ताव भेजना पड़ा।
जब सूरजमल ने लूट ली दिल्ली
सूरजमल की दिल्ली के वजीर सफदरजंग से मित्रता थी। सूरजमल की ख्याति देखकर बादशाह ने उसके मनसब में वृद्धि की और उन्हें मथुरा का फौजदार बना दिया। मार्च 1753 ईस्वी में बादशाह अहमदशाह ने सफदरजंग को वजीर के पद से हटा दिया। वजीर ने अपनी सेना लेकर लाल किले को घेर लिया और अपनी सहायता के लिए सूरजमल की बुलाया। सूरजमल तत्काल चल पड़े। मार्ग में सूरजमल ने अलीगढ़ में चकला कोइल के जागीरदार बहादुर सिंह बड़गुजर को मारकर घासीरा के दुर्ग पर अधिकार किया। मई 1753 ईस्वी में सूरजमल 15000 घुड़सवार सैनिकों को लेकर दिल्ली पहुंचे। उनकी सेना ने 9 मई से 4 जून के बीच दिल्ली में जमकर लूट मचाई। उनकी सेना ने किले के दरवाजे तक उखाड़ लिए थे। उस काल के इतिहासकारों ने लिखा है कि इस लूटपाट के बाद दिल्ली के निकट बसे चुरनिया और वकीलपुरा इलाकों में कोई दीपक तक दिखाई नहीं देता था। तभी से दिल्ली में जाट गर्दी मुहावरा कहा जाने लगा। जयपुर नरेश माधोसिंह के हस्तक्षेप के बाद सूरजमल वापस भरतपुर लौटे।
जब मराठों ने डाल दिया कुम्हेर पर घेरा
जनवरी 1754 में मराठा सरदार मल्हारराव होलकर के पुत्र ने भरतपुर राज्य के खिलाफ सैन्य संचालन किया। सूरजमल ने मराठों की 80 हजार की सेना देखकर भरतपुर की सुरक्षा का दायित्व जवाहर सिंह को सौंपा और स्वयं कुम्हेर के किले में रहकर युद्ध करने का निर्णय किया। मराठों ने कुम्हेर के चारों ओर 15 मील के घेरे की फसलें तक जला कर राख कर दी थीं। इमाद-उल-मुल्क, खंडेराव, रघुनाथ राव और मल्हार राव होलकर की सेनाओं के बीच सूरजमल बुरी तरह घिरे हुए थे। कुम्हेर का घेरा करीब चार महीने तक चला। तभी एक दिन कुम्हेर के किले से चली एक तोप के गोले ने खंडेराव को मार डाला। मल्हार राव पुत्र की मृत्यु से बौखला गया और उसने भरतपुर राज्य के खात्मे की प्रतिज्ञा की। यह सचमुच संकट की घड़ी थी। इस संकट से सूरजमल को उबारा उनकी महारानी किशोरी और वकील रूपराम कटारा ने। महारानी ने रूपराम की सलाह पर उसके पुत्र तेजराम को सिंधिया के पास भेजा। सिंधिया रूपराम का मित्र था। सिंधिया इस युद्ध में तटस्थ हो गया। कुम्हेर के किले को तोड़ने के लिए जिन तोपों की जरूरत थीं वे सिर्फ आगरा के किले में थीं। इमाद-उल-मुल्क ने आगरा के किलेदार से वे तोपें मांगी पर उसने बादशाह के आदेश के बिना तोपें देने से इनकार कर दिया। थक हार कर होलकर को सूरजमल द्वारा भेजे गए संधि प्रस्ताव को स्वीकार करना पड़ा और मराठों का घेरा कुम्हेर से उठ गया।
जब सूरजमल ने संभाली भरतपुर की राजगद्दी
सात जून सन 1756 ईस्वी में महाराज बदनसिंह की मृत्यु सहार के किले में हुई। इसके बाद सूरजमल महाराजा बने। अगले ही वर्ष 1757 में अफगान सरदार अहमद शाह अब्दाली ने भारत पर चौथा हमला किया। अब्दाली को टक्कर देने के लिए सूरजमल ने राजकुमार जवाहर सिंह को सेना के साथ भेजा। जवाहर सिंह ने बल्लभगढ़ से लेकर चौमुहां तक अब्दाली की सेना को रोकने के भरकस प्रयत्न किए। निर्णायक संघर्ष मथुरा शहर से कुछ ही कोस पहले चौमुहां गांव में हुआ। चौमुहां की लड़ाई में जवाहर सिंह के दसियों हजार सैनिक काम आए। अंत में जवाहर को हटना पड़ा। इसके बाद अब्दाली की सेना ने वृंदावन और मथुरा में भयानक नरसंहार किया। इस दौरान अब्दाली ने सूरजमल से धन वसूलने के लिये पत्र लिखे पर सूरजमल ने उसे भरतपुर आकर युद्ध करने के लिए ललकारा। अब्दाली को सूरजमल से कोई धन नहीं मिल सका और वह लौट गया। 1760 में अब्दाली का मुकाबला करने के लिए मराठों की सेना सदाशिव राव भाऊ के नेतृत्व में उत्तर भारत में आई। शुरू में सूरजमल इस सेना के साथ जुड़े पर भाऊ के घमंडी स्वभाव से रुष्ट होकर वे दिल्ली से अपनी सेना के साथ भरतपुर लौट आये। 1761 में मराठों और अब्दाली के बीच पानीपत में भीषण युद्ध हुआ। यह युद्ध पानीपत का तीसरा युद्ध कहलाता है। इस युद्ध में मराठे बुरी तरह हारे। युद्ध से हार कर भागते मराठा सैनिकों को सूरजमल ने शरण दी।
अपार सफलताएं और अनायास मृत्यु
पानीपत की लड़ाई के बाद उत्तर भारत में राजनीतिक शून्य पैदा हो गया था। सूरजमल ने कोई प्रबल विरोधी न देखकर आगरा के किले पर अधिकार कर लिया। यह किला 1774 तक भरतपुर राज्य के अधीन रहा। इसके बाद सूरजमल ने रुहेलों का दमन किया और उनसे बुलन्दशहर, अलीगढ़, जलेसर, सिकंदरा राऊ, कासगंज और सोरों के इलाके छीन लिए। साथ ही उन्होंने ब्रज क्षेत्र के फरह, किरावली, फतहपुर सीकरी, खेरागढ़, कोलारी, तांतपुर, बसेड़ी और धौलपुर आदि परगनों पर भी अधिकार कर लिया। उन्होंने अपनी सेना की एक टुकड़ी भेज कर फरीदाबाद, बटेश्वर और राजाखेड़ा पर अधिकार किया। सिकरवार राजपूतों से सिकरवाड़ ठिकाना और भदौरिया राजपूतों से भदावर ठिकाना भी जीत लिया। जवाहर सिंह के नेतृत्व में भरतपुर की सेनाओं ने हरियाणा में रुहेलों से रेवाड़ी, झज्झर, पटौदी, चरखी, दादरी, सोहना और गुड़गांव छीन लिए। इसके बाद फर्रुखनगर, गढ़ी हरसारू, रोहतक और बहादुरगढ़ तक अधिकार में लिए गए। 25 दिसम्बर 1763 को दिल्ली पर हमले के दौरान महाराजा सूरजमल की मृत्यु हो गई।
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