भक्त, भिक्षुक और जमींदार ‘लाला बाबू’

ब्रज में एक ऐसे भी भक्त का आगमन जो खानदानी जमींदार थे। इन्होंने यहां मन्दिर, धर्मशाला, अन्नक्षेत्र बनवाये। इनकी व्यवस्था के लिये गांव भी खरीदे। जमींदार होते हुए ब्रज में भीख भी मांगी।  ब्रज में इनकी पहचान लाला बाबू के नाम से है।

कौन थे लाला बाबू


ये बंगाल के एक जमींदार परिवार के थे। ये जाति से कायस्थ थे। इनका असली नाम कृष्णचन्द्र सिंह था। इनके पूर्वज बंगाल के मुर्शिदाबाद जिले के निवासी थे। जिन्होंने वहां के नवाबों की सेवा में रहकर और उस काल के अंग्रेज शासकों के सहयोग से खूब धन कमाया। इनका परिवार धन कमाने के साथ साथ धन को धार्मिक क्रिया कलापों पर खर्च भी खूब करता था। उन्होंने नदिया तथा अन्य स्थानों में धर्मशाला, मन्दिर और संस्कृत विद्यालय आदि बनवाये थे। अपने पुरखों की तरह ही लालाबाबू ने भी अपने कारोबार को बंगाल और उड़ीसा में खूब बढ़ाया और लाखों की कमाई की। कुल तीस वर्ष की उम्र में लालाबाबू को संसार से विरक्ति हो गई और ब्रज में आ गए। वह वृन्दावन तथा अन्य धार्मिक स्थानों पर विरक्त भक्त के रूप में रहते थे। अपने जीवन के अंतिम दो वर्षों में तो वह भिक्षुक के वेश में ब्रज के वनों में विचरण किया करते थे और ब्रजवासियों के घरों से भिक्षा मांगकर अपना जीवन यापन किया करते थे। 

कौन थे लाला बाबू के गुरु

उस समय गोवर्धन में गौड़ीय सम्प्रदाय के महात्मा कृष्ण दास निवास करते थे ये कृष्ण दास सिद्ध बाबा भी कहे जाते थे। लालाबाबू ने इन्हीं सिद्ध बाबा से दीक्षा ली और गुरु की सेवा के लिए अधिकतर गोवर्धन में ही रहना शुरू कर दिया। 

जब सेठों के द्वार भीख मांगने पहुंच गए लाला बाबू

उस समय पर मथुरा में सेठ मनीराम लक्ष्मी चंद धनी लोग थे। लाला बाबू के साथ इनके बड़े अच्छे संबंध थे। एक बार किसी भूमि को लेकर लाला बाबू और सेठों के मध्य मनोमालिन्य हो गया और बोलचाल तक बन्द हो गई। जब इस बात की जानकारी गुरु सिद्ध बाबा को हुई तो उन्होंने लाला बाबू को फटकार लगाई। उन्होंने लाला बाबू से कहा कि उसे ब्रज में ईर्ष्या नहीं करनी चाहिए। अपनी गलती का भान होते ही लाला बाबू दूसरे दिन सुबह एक भिक्षुक का वेश बना कर सेठों के द्वार पर पहुंच गए। लाला बाबू को भिक्षुक के रूप में आया देख सेठों को भी अपनी भूल महसूस हुई। इसके बाद इनके सम्बन्ध पहले जैसे मधुर हो गए।

लाला बाबू का मन्दिर

संवत 1867 में उन्होंने वृन्दावन में श्रीकृष्ण का एक विशाल मंदिर बनवाया। यह मंदिर लालाबाबू मन्दिर कहलाता है। इस मंदिर के साथ धर्मशाला भी बनवाई और अन्न क्षेत्र भी शुरू किया। उन्होंने राधाकुंड के पक्के घाट बनवाये साथ ही कई दूसरे कुंड सरोवरों की मरम्मत पर खूब धन खर्च किया। उस समय उसने ब्रज में करीब 25 लाख रुपये का खर्चा धार्मिक निर्माण आदि में किया। 

ब्रज के प्रमुख गांवों की जमींदारी खरीदी

लाला बाबू ने मंदिर के रख-रखाव, धर्मशाला और अन्न क्षेत्र के संचालन के लिए ब्रज में कुछ गांवों की जमीदारी भी खरीद ली। इन गांवों से करीब 22 हजार रुपये की सालाना आमदनी होती थी। लालाबाबू को ब्रज के कई महत्वपूर्ण गांवों की जमीदारी ब्रजवासियों ने कौड़ियों के भाव दे दीं क्योंकि वह उनका उपयोग धार्मिक कार्यों में करना चाहते थे। लालाबाबू कहते थे  कि उनका उद्देश्य इस जमीदारी द्वारा साधु सेवा, मोर-बन्दरों का चारा, अनाथ भिक्षुओं को अन्नदान तथा मन्दिर-धर्मशाला आदि के व्यय की व्यवस्था करना है।

लाला बाबू ने खरीदे ये गांव

उन्होंने मथुरा जिले में कुल 15 गांव खरीदे। इनमें कोसी परगना का जाव; छाता परगना के नंदगांव, बरसाना, संकेत, करहेला, गढ़ी और हाथिया; मथुरा में जैत, महोली, नवीपुर के साथ मथुरा का कुछ भाग खरीदा। उनके गांवों में गूजरों के चार गांव पीरपुर, गुलालपुर, चामर गढ़ी और धीमरी भी थे। लाला बाबू ने राजा वीर सिंह चौहान से अलीगढ़ और बुलन्दशहर में 72 गांव और भी खरीदे।लालाबाबू ने नंदगांव के लिए केवल 900, बरसाना के लिए 600, संकेत के लिए 800 तथा करहला के लिए 500 रुपये दिए थे। इस धन का भुगतान भी ‘वृन्दावनी रुपयों’ में किया गया था।

क्या होता था वृन्दावनी रुपया

मराठों के काल में वृन्दावन में एक टकसाल थी। आज भी वहां टकसाल वाली गली है। जब यहां जाट राजाओं का राज हुआ तब वह टकसाल वृन्दावन से हटा कर भरतपुर पहुंचा दी गई। उस टकसाल में जो रुपया ढलता था वह वृन्दावनी रुपया कहलाता था। यह गोल मोटे आकार का चांदी का होता था। अंग्रेजी राज आने पर इस रुपये का चलन कम हो गया और उसका बाजार भाव भी अंग्रेजी रुपये की तुलना में बारह आना रह गया। यह रुपया अधिकतर विवाह-समारोह आदि के अवसर पर लेन देन के काम आता था। उस समय उसका भाव बढ़कर तेरह-चौदह आना तक हो जाता था। बाद में बहुत दिनों तक उसका स्थाई भाव आठ आना रह गया और फिर उसका चलन बन्द हो गया।

लाला बाबू का गोलोकवास

लालाबाबू ब्रज में करीब बारह वर्ष तक रहे। एक दिन गोवर्धन में एक घोड़े की अकस्मात लात लगने से लालाबाबू की मौत हो गई। उनकी अकस्मात मौत की लेकर ब्रज में यह लोकोक्ति कही जाती है :
‘लालाबाबू मर गए, घोड़ा दोष लगाय।
पारिख के कीड़ा परे, विधि सों कहा बलाय।’
उनकी अंतिम इच्छा के अनुसार उसका शव गोवर्धन से वृन्दावन ले जाया गया। जहां हरिनाम संकीर्तन के साथ उन्हें रज में घुमाते हुए यमुना में प्रवाहित किया गया।

संदर्भ ग्रंथ :
1. मथुरा ए डिस्ट्रिक्ट मेमॉयर (एफएस ग्राउस)
2. ब्रज का इतिहास (कृष्णदत्त वाजपेयी)
3. ब्रज का सांस्कृतिक इतिहास (प्रभुदयाल मित्तल)
4. उल्लिखित गांवों के जमीदारी दस्तावेज
5. प्रचलित लोकोक्तियां एवं बुजुर्गों से सुने संस्मरण।

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