आज का किस्सा है जयपुर मन्दिर के नाम से प्रसिद्ध कुशल बिहारी मंदिर का जिसकी स्थापना को सौ वर्ष पूरे होने वाले हैं।यह मंदिर सौ वर्ष पहले जयपुर रियासत के राजा माधो सिंह द्वितीय ने बनवाया था। देश आजाद होने के बाद राजस्थान राज्य में देवस्थान विभाग का गठन किया गया और रजवाड़ों द्वारा बनवाये गए तमाम मन्दिरों की देख रेख इस विभाग को सौंप दी गई। तब से देवस्थान विभाग ही इस मंदिर का संचालन कर रहा है।
कुशल कंवर : जिनके नाम पर हुआ मन्दिर का नामकरण
एटा जिले में जादोन राजपूतों की एक रियासत है अमरगढ़। इस रियासत के शासक थे राव बुद्धपाल सिंह। इन बुद्धपाल सिंह की पुत्री थीं कुशल कंवर। इनको बिट्टाजी भी कहा जाता था। इन कुशल कंवर का विवाह सवाई माधोपुर जिले में स्थित ईसरदा ठिकाने के कुंवर कायम सिंह के साथ हुआ था। ये कायम सिंह आगे चलकर जयपुर के महाराज हुए और इनका नाम रखा गया माधोसिंह द्वितीय। जादोन रानी कुशल कंवर अब पटरानी हुईं। राजा-रानी दोनों ही बड़े कृष्ण भक्त थे। राजा ने ब्रज में दो मंदिरों का निर्माण कराया। वृंदावन में राजा माधोसिंह के नाम पर माधव विलास बनवाया गया। बरसाना में रानी कुशल कंवर के नाम पर कुशल बिहारी मंदिर निर्मित हुआ। इन्होंने गंगोत्री में भी एक मन्दिर का निर्माण कराया था। जादोन रानी की याद में जयपुर में एक छतरी भी बनी हुई है।
माधो सिंह द्वितीय : जयपुर राज्य के नवें महाराज
माधोपुर जिले के ईसरदा ठिकाने के ठाकुर रघुनाथ सिंह के दूसरे पुत्र कायमसिंह का जन्म 29 अगस्त 1861 ईस्वी को हुआ था। कायम सिंह ने युवा होने पर कुछ समय वृंदावन में बिताया और बाद में टोंक के नवाब के यहां नौकरी करने लगे। उसी समय जयपुर के महाराजा रामसिंह का स्वर्गवास हो गया। कुंवर कायम सिंह को जयपुर रियासत का उत्तराधिकारी चयनित किया गया। 30 सितंबर 1880 ईस्वी को वे सवाई माधोसिंह द्वितीय के नाम से जयपुर के महाराज बने। ये बहुत ही धार्मिक प्रवृत्ति के राजा थे। अपने गुरु के आदेश पर इन्होंने मंदिरों का निर्माण कराया था। महाराज के पांच रानियां थीं पर कोई संतान नहीं हुई। इनका स्वर्गवास सितंबर 1922 में हुआ।
राधा रानी के लिए बनवाया गया था यह मंदिर
जयपुर मन्दिर का निर्माण राधा रानी के विग्रह को यहां स्थापित करने के लिए कराया गया था। मन्दिर बन जाने के बाद राधा रानी मन्दिर के प्रमुख गोस्वामियों को इस बारे में बात करने के लिए राजा ने जयपुर बुलवाया था। गोस्वामी लोग जयपुर के लिए निकले लेकिन रास्ते में ही उनमें से एक गोस्वामी की अचानक मृत्यु हो गई। इस पर गोस्वामियों ने विचार किया कि इसे राधा रानी नए मन्दिर में जाने की इच्छुक नहीं हैं। इसी के चलते गोस्वामियों ने राधा रानी के विग्रह को जयपुर मन्दिर में स्थापित करने से इनकार कर दिया। इसके बाद राजा माधो सिंह ने यहां राधा-कृष्ण के दूसरे विग्रह की स्थापना की। राजा की पत्नी कुशला बाई के नाम पर मन्दिर का नामकरण कुशल बिहारी मंदिर किया गया।
बंसी-पहाड़पुर के पत्थरों से बना है मन्दिर
कुशल बिहारी मंदिर के निर्माणकर्ता माधो सिंह द्वितीय जयपुर रियासत के नौवें महाराजा थे। इस मंदिर का निर्माण तत्कालीन जयपुर रियासत के लोक निर्माण विभाग द्वारा कराया गया था। मन्दिर के निर्माण में बंसी पहाड़पुर के पत्थर का प्रयोग किया गया। इसमें 50 से 60 लाख रुपये की लागत आई और चौदह वर्ष में यह बनकर तैयार हुआ। मन्दिर के मुख्य हॉल तथा गर्भगृह के अलावा इस मंदिर की दो मंजिलों पर करीब छह दर्जन कमरे हैं। ये कमरे इस तरह बनाये गए हैं कि हर कमरे से दूसरे कमरे में आवागमन हो सकता है। यह मंदिर किलेनुमा बनाया गया है जो ब्रह्मांचल पर्वत के दानगढ़ शिखर पर स्थित है।
मन्दिर का निर्माण 1911 में पूर्ण हो गया लेकिन राधा रानी का विग्रह यहां स्थापित न हो पाने के चलते यह कुछ वर्ष खाली रहा। वर्ष 1918 में इसमें कुशल बिहारी की स्थापना की गई। मन्दिर की सेवा पूजा निम्बार्क परंपरा के अनुसार होती है। राजा ने यहां सेवा पूजा के लिए राधेश्याम ब्रह्मचारी को नियुक्त किया था।
कौन थे राधेश्याम ब्रह्मचारी
राधेश्याम ब्रह्मचारी का जन्म संवत 1920 में अलीगढ़ के गोरई में हुआ था। निम्बार्क माधुरी ग्रंथ के अनुसार ये युवावस्था में ही विरक्त होकर वृन्दावन आ गए और निम्बार्क महात्मा गोपालदास के शिष्य हुए। मन्दिर की स्थापना के बाद इन्हें मन्दिर की सेवा पूजा का दायित्व देकर महंत बनाया गया। तीस वर्ष तक मन्दिर व्यवस्था संचालन के बाद इनका देहांत हुआ।
शुरू से राधा रानी के भक्त रहे हैं जयपुर के शासक
जयपुर के शासक शुरू से राधा रानी के भक्त रहे हैं। जयपुर राज्य के संस्थापक सवाई जयसिंह के पुत्र महाराजा माधो सिंह प्रथम भी राधा रानी के परम भक्त थे। 19 नवम्बर 1753 को उन्होंने बरसाना में राधा रानी के दर्शन किये थे। उस समय भरतपुर के राजकुमार जवाहर सिंह तथा जयपुर राज्य में भरतपुर के राजदूत हेमराज कटारा उनके साथ थे। हेमराज कटारा को इस मौके पर माधो सिंह प्रथम ने एक हाथी भेंट किया था। यह घटना का विवरण कटारा परिवार की तीर्थ पुरोहिताई की पोथी में दर्ज है।
बहुत ही रोचक और तथ्यपरक जानकारी