क्या आप जानते हैं कि भरतपुर जिले की बयाना तहसील के पास एक गांव से गुप्तकालीन सोने के सिक्कों का एक ऐसा भंडार मिला था जिसने गुप्तकाल के इतिहास के अध्ययन का मार्ग सुगम किया और बयाना का नाम भी रोशन किया क्योंकि आज यह बयाना निधि के नाम से जाना जाता है। आइए आज के इस किस्से में हम जानते हैं कि किस तरह यह प्रकाश में आई:
खाली कारतूसों की खोखे खोजते हुए हाथ लगा खजाना
17 फरवरी का दिन था और वर्ष था 1946। तत्कालीन भरतपुर रियासत में बयाना रेलवे जंक्शन के सात मील दक्षिण – पूर्व में स्थित गांव हुल्लनपुरा और नगला छैला के बीच खेतों में तीन बच्चे कारतूसों के खाली खोखे खोज रहे थे। दरअसल रियासत के महाराज हिज हाईनेस बिजेंद्र सिंह एक माह पहले जनवरी में उस इलाके में शिकार पर गए थे। शिकार के दौरान चलाई गई गोलियों के खाली खोखे उधर खेतों में बिखरे हुए थे। पहाड़ियों से घिरे इस इलाके में नगला छैला के रहने वाले इन तीन बच्चों के नाम थे जीतमल, बाबू और तुलसी। कारतूसों के खोखे खोजते हुए इन बच्चों को भूरिया गूजर के खेत में जमीन के मात्र छह इंच नीचे दबा हुआ एक तांबे का कलश दिखा। किसी वजह से सदियों तक भूमिगत रहे इस कलश का कोई ऊपरी हिस्सा इन बच्चों की नजर पड़ गया। बच्चों ने इसे निकालकर देखा तो उन्होंने सोचा कि तांबे का यह कलश तांबे के बटनों से भरा हुआ था।
गांव वालों ने बांट ली यह महत्त्वपूर्ण निधि
तीनों बच्चे उस कलश को लेकर अपने घर चले गए और अपने घरवालों को वह कलश और उसमें भरे बटन दिखाए। घरवाले एक नजर में ही समझ गए कि तांबे का वह कलश सोने के सिक्कों से भरा हुआ था। सोने के सिक्के और वो भी हजारों की संख्या में। इतनी बड़ी बात भला छोटे से गांव में कैसे छुपी रह जाती। जैसे जैसे लोगों को पता चलता उन सिक्कों में से हिस्सा लेने उन बच्चों में घरवालों के पास जा धमकते। अब शुरू हुआ सोने के सिक्कों का बंटवारा। जिसको जो मिला लेकर संतुष्ट हुआ। घटना को गोपनीय रखने का सबने भरसक प्रयास किया पर पता नहीं कैसे बात छुपी न रही और बढ़ते बढ़ते महाराजा तक जा पहुंची। महाराजा ने तत्काल कुछ सिक्के मंगवाकर देखे तो हैरान रह गए। सिक्के पुरातात्विक महत्व के थे। जांच से पता चला था कि सिक्कों को संख्या हजारों में थी।
महाराजा के प्रयासों से बच पाई यह अमूल्य निधि
पढ़े लिखे महाराजा समझ गए कि यह तो भारत भर में पहला अवसर है जबकि पुरातात्विक महत्त्व के सिक्के इतनी बड़ी संख्या में मिले हैं। महाराजा ने तत्काल सख्त आदेश भेजा कि सारे सिक्के और वह पात्र अविलंब भरतपुर भेजे जाएं। गांव वालों की खुशी हवा हो गई। जांच शुरू हुई तलाशी ली गई। थोड़ा थोड़ा करके कुल 1821 सिक्के बरामद और वह कलश बरामद हो गया। पर अफसोस की बात यह रही कि तब तक पुरातात्विक महत्व के उन सिक्कों में से 285 सोने के सिक्के ग्रामीणों द्वारा इधर उधर किए जा चुके थे या फिर गलाए जा चुके थे ताकि उनकी पहचान नष्ट की जा सके। ऐसा करने वालों के साथ महाराजा ने भी सख्ती दिखाई और 45 रुपए प्रति सिक्के के हिसाब से राज्य के खजाने में दंड स्वरूप जमा करने का आदेश जारी किया। झक मार कर गांव वालों को 282 सिक्के पिघलाने के बदले 12680 रुपए जुर्माने के तौर पर जमा करने पड़े। सिक्कों का प्रथम दृष्टया निरीक्षण करते ही महाराजा समझ गए कि यह सिक्के असलियत में गुप्तकालीन स्वर्ण मुद्राएं हैं। जिस खेत से यह सिक्के मिले थे वह हल्लनपुरा गांव में पड़ता था। जिस स्थान से सिक्के मिले वह खेत और न ही उस हल्लनपुरा गांव में कोई भी गुप्तकालीन या किसी अन्य प्राचीन राजवंश के समय के किसी भवन या इमारत का कोई चिन्ह तक नहीं था। फिर खेत में यह सिक्कों से भरा कलश आखिर किसने दबाया था? अलबत्ता महाराज यह अवश्य जानते थे कि नगला छैला से आठ मील की दूरी पर बयाना के पास समीप बिजयगढ़ मौजूद है जो निसंदेह चौदह पंद्रह सौ वर्ष से अधिक प्राचीन स्थान रहा है। बिजयगढ गुप्तकाल में प्रशासन का एक महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है, जिसकी पुष्टि यहां मिले दो अभिलेखों से होती है।
आखिर किसने और क्यों दबाया होगा यह खजाना?
बहरहाल अनुमान यही लगाया जाता है कि इन स्वर्ण मुद्राओं का स्वामी इसी विजयगढ़ का कोई संपन्न निवासी रहा होगा। हल्लनपुरा गांव का वह खेत जहां यह खजाना दबा हुआ मिला, वह भी अवश्य उसी का रहा होगा। बर्बर हूणों के किसी हमले के दौरान अपनी संपदा को सुरक्षित रखने के उद्देश्य से उसने इन स्वर्ण मुद्राओं को इस ताम्र कलश में भर कर इस खेत में दबा दिया होगा। हो सकता है कि हूणों के हमले के दौरान वह व्यक्ति मारा गया हो और इस खजाने के बारे में किसी पता ही नहीं चला। उस समय तक इतनी बड़ी संख्या में सोने के पुरातात्विक महत्व के सिक्के कभी नहीं मिले थे। वर्ष 1783 में बंगाल के कालीघाट से एक गुप्तकाल के 200 सोने के सिक्के मिलना सबसे बड़ी प्राप्ति थी। भरतपुर रियासत के एक गांव से इतनी बड़ी संख्या में गुप्तकालीन सिक्कों का मिलना एक बड़ी उपलब्धि है यह बात महाराजा भली भांति समझ रहे थे।
डॉ. एएस आल्टेकर का योगदान
महाराजा ने न्यूम्समैटिक सोसाइटी ऑफ इंडिया के चेयरमैन डॉ. एएस आल्टेकर को भरतपुर आमंत्रित किया ताकि इन सिक्कों का वास्तविक महत्त्व जाना जा सके। मई 1947 को डॉ. आल्टेकर भरतपुर पहुंचे और उन्होंने महाराजा को बताया कि गुप्तकाल के सिक्के इतनी बड़ी संख्या में मिलना एक सामान्य बात नहीं है। यह सिक्के महत्त्वपूर्ण हैं। अलग अलग शासकों के इन सिक्कों में विविधता भी भरपूर है। इन सिक्कों का गहनता से अध्ययन कर इनकी एक कैटलॉग बनाई जानी चाहिए जिससे कि भविष्य के शोधार्थी इससे लाभान्वित हो सकें। इस काम के लिए महाराजा ने एक बार फिर से डॉ. आल्टेकर को भरतपुर बुलाया। इस बार सिक्कों का गहन परीक्षण किया गया। काम जितना महत्त्वपूर्ण था उतना ही वक्तखाऊ भी था। इन सिक्कों में चंद्रगुप्त प्रथम के 10 सिक्के, समुद्रगुप्त के 183 सिक्के, कच के 16 सिक्के, चंद्रगुप्त द्वितीय के 983 सिक्के, कुमारगुप्त प्रथम के 628 सिक्के तथा स्कंदगुप्त का एक सिक्का शामिल है।डॉ. आल्टेकर के सहयोग के लिए इस बार महाराजा ने एक पूरी टीम जुटा दी जिससे वे अपना काम जल्दी और सुगमता से कर पाएं। महाराजा ने इस काम के आर्कियोलॉजिकल विभाग से एक फोटोग्राफर को बुलवाया जिससे कि सिक्कों की फोटोग्राफी की जा सके। इस कैटलॉग के लिए डॉ. आल्टेकर को वर्ष 1948 और 1949 में दो बार भरतपुर आना पड़ा। अंत में 1949 की समाप्ति तक यह कैटलॉग बन कर तैयार हो गई लेकिन कुछ कारणों से इसे पब्लिश होने में समय लगा।
महाराजा ने राष्ट्र को समर्पित की राष्ट्र की धरोहर
वर्ष 1951 के मार्च महीने में महाराजा ने सोने के सिक्कों से भरा वह ताम्र कलश भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद को भेंट कर राष्ट्र को समर्पित कर दिया। आज इसे बयाना निधि के नाम से जाना जाता है। एक महाराजा के प्रयासों से गुप्तकालीन विरासत न केवल नष्ट होने से बची साथ ही आज के शोधार्थियों का मार्ग प्रशस्त करने का एक महत्त्वपूर्ण जरिया भी बना।
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