व्रज से ब्रज तक !

ब्रजभूमि का प्राण है श्रीराधाकृष्ण तत्व, इसी लिए यह भूमि सदैव से ही भारतीय साधकों के लिए आकर्षण का केन्द्र रही है ! ब्रज भारतीय लोकमानस का ललित भाव है !
संस्कृत का शब्द ‘ व्रज ‘ ऋग्वेदकालीन है जिस का अर्थ है ‘ गायों का खिरक ‘ या पशुओं का समूह, जो गतिमान और घुमन्तु हो ! कहीं – कहीं पशुओं के चरागाह के लिए भी यह शब्द प्रयुक्त हुआ है और चौथी सदी ईसा पूर्व के लगभग रचे कौटिल्य कृत अर्थशास्त्र के युग में भी ‘ व्रज ‘ शब्द इन्हीं अर्थों में प्रयोग हो रहा था, पर आज हम उत्तर भारत में जिस क्षेत्र को ‘ ब्रज मण्डल ‘ के नाम से पहचानते हैं , वह भू-भाग प्राचीन भारत में ‘ शूरसेन जनपद ‘ कहलाता था ।

पौराणिक सन्दर्भ


हालाँकि पौराणिक साहित्य में ‘ व्रज ‘ शब्द श्रीकृष्ण के लीला प्रसंगों के संदर्भ में स्थानवाचक रूप लेने लगता है । लेकिन हमारे लिए यह समझना अत्यन्त महत्वपूर्ण होगा कि कैसे वैदिक शब्द ‘ व्रज ‘ ने अपने अर्थों की एक पूरी सांस्कृतिक यात्रा प्रारम्भ की और मध्यकाल तक आते-आते वह कैसे एक भौगोलिक तीर्थ मण्डल के स्वरूप में परिणत होता है ! वह कौन से तत्व थे जिन्होंने ब्रज को मूर्त आकार प्रदान किया ! ब्रजभाव कैसे युगलोपासना के सोपानों को प्राप्त करता है !
वर्तमान में श्री कृष्ण के लीला स्थलों के लिए प्रयुक्त होने वाला देशज शब्द ‘ ब्रज ‘ वास्तव में भक्ति आन्दोलन की देन है !

संगोष्ठी का आयोजन


ब्रज की तीर्थ संस्कृति एवं ब्रज मण्डल को विविध दृष्टिकोणों से समझने के लिए ब्रज संस्कृति शोध संस्थान ,गोदा विहार ,वृन्दावन आगामी 6,7 एवं 8 दिसम्बर 2019 को अध्येताओं की तीन दिवसीय एक राष्ट्रीय संगोष्ठी और ब्रजयात्राओं व ब्रज की तीर्थ संस्कृति पर केन्द्रित अभिलेखीय सामग्री की प्रदर्शनी तथा वृन्दावन धरोहर परिदर्शन आदि कार्यक्रम आयोजित कर रहा है !
यदि आप के पास भी ब्रज मण्डल को समझने के लिए कुछ मौलिक शोधपूर्ण विचार हैं ,तो इस आयोजन से अवश्य जुड़ें !

हम आप को ब्रज के चिन्तन हेतु सादर आमंत्रित करते हैं !

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