बयाना एक अत्यंत प्राचीन स्थान है जो हमेशा से अपना खासा ऐतिहासिक महत्त्व रखता है। यह उन चुनिंदा स्थानों में से एक है जिसके आबाद रहने के प्रमाण दो हजार वर्ष पहले तक मिलते हैं। बयाना वर्तमान में भरतपुर जिले की एक तहसील है। यह भरतपुर से 48 किमी की दूरी पर स्थित है। यहां एक विशाल किला दर्शनीय है जो प्राचीन है और आकार में अतिविस्तृत है। बयाना के पास है एक गांव है हुलनपुर। यह बात है ईस्वी 1946 की, जब हुलनपुर के चरवाहों को खेत में एक तांबे का पात्र मिला जो स्वर्ण मुद्राओं से भरा हुआ था। बात भरतपुर रियासत के महाराजा तक पहुंची। यह सोने के सिक्कों से भरा तांबे का कलश रियासत के खजाने में रख दिया गया। 1951 ईस्वी में महाराजा ने यह कलश और उसमें भरे सोने के सिक्कों का पुरातात्विक महत्त्व देखते हुए यह ताम्रपात्र और सिक्के भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद के माध्यम से राष्ट्रीय संग्रहालय को भेंट कर दिया। महाराजा की इस भेंट को ‘बयाना निधि’ के नाम से जाना जाता है। यह स्वर्ण सिक्के गुप्तकाल के शासकों के थे। इन सिक्कों का यहां मिलना इस बात का सबल प्रमाण है कि यह बयाना नगर गुप्तकाल में भी आबाद और उन्नत था।
बयाना निधि और उसका महत्त्व
बयाना निधि के ताम्र कलश में से कुछ राजवंशों के साथ साथ प्रमुखतः गुप्तकाल के सिक्कों के सर्वश्रेष्ठ उदाहरण सामने आए जिनके अध्ययन द्वारा कालक्रम, वंशावली, लाक्षणिक निर्धारीकरण आदि प्रश्नों का समाधान सम्भव हो पाया है। गुप्तकाल के सिक्कों की विविधता को कई प्रकारों में वर्गीकृत किया गया है। सिंघासनारूढ़ चंद्रगुप्त द्वितीय, सिंहनिहन्ता, गजारूढ़, वीणावादक आदि इनके कुछ प्रकार हैं। ताम्रकलश के साथ लगी सिक्कों की प्रतिछवि गुप्तवंश के सिक्कों में अलंकरण, संरचना, अभिलेख, प्रतीक एवं चिन्ह के साथ साथ सिक्कों के अद्वितीय सौंदर्य का भी परिचय देती है। इनसे गुप्तकाल के सिक्कों की तकनीक एवं प्रतीकात्मकता स्पष्ट होती है। इनमें अधिक सिक्के चन्द्रगुप्त द्वितीय के हैं। इन सिक्कों से गुप्तवंशीय कुमारगुप्त द्वितीय के इतिहास पर नया प्रकाश पड़ता है। यह अनुमान लगाया जाता है कि लगभग 540 ई. के आस-पास हूणों के आक्रमण के समय इस खज़ाने को ज़मीन में गाड़ दिया गया था। यहाँ से स्कन्दगुप्त का एक ही सिक्का मिला है।
भीमलाट
भीमलाट जिसे विजय स्तंभ भी कहा जाता है। इस स्तंभ पर मालवा संवत 428 अर्थात सन 371-72 उत्कीर्ण है। राजा विष्णु वर्धन द्वारा पुंडरीक यज्ञ के समापन पर इस प्रस्तर स्तंभ को बनवाया गया। यह स्तंभ लाल बलुए पत्थर से निर्मित एकाश्मक स्तंभ है। जो 13.6 फुट लंबे तथा 9.2 फुट चौड़े चबूतरे पर है। स्तंभ की लंबाई 26.3 फुट है। जिसमें प्रथम 22.7 फुट का भाग अष्टकोणीय है। तत्पश्चात तनुकार होता जाता है। स्तंभ के शिखर पर निकली धातुशलाका से स्पष्ट होता है कि इसके शीर्ष पर भी अवश्य कुछ रहा होगा। यहां लेख भी लगा है। यह बयाना के किले के परिसर में ही है जिससे यह भी सिद्ध होता है कि यह किला सर्वप्रथम गुप्तकाल में निर्मित हुआ और बाद के राजाओं ने इसे विकसित किया।
बयाना का ऊषा मन्दिर
बयाना को बाणासुर की नगरी कहा जाता है, क्योंकि बाणासुर की पुत्री ऊषा और भगवान श्रीकृष्ण के प्रपौत्र अनिरुद्ध का प्रेमाख्यान श्रीमद भागवत 10.62 और अन्य पुराणों में वर्णित है। इस स्थान का प्राचीन नाम ‘बाणपुर’ कहा जाता है। इसके अतिरिक्त, इसके अन्य नाम ‘वाराणसी’, ‘श्रीप्रथ’ या ‘श्रीपुर’ भी उपलब्ध हैं। यहां एक प्रसिद्ध ऊषा मंदिर स्थित है जहां से 956 ईस्वी का एक अभिलेख प्राप्त हुआ था। इस अभिलेख के अनुसार फक्का वंश के राजा लक्ष्मण सैन की रानी चित्रलेखा ने सम्राट महीपाल के शासन में ऊषा मंदिर बनवाया। इल्तुतमिश के काल में यहां एक मस्जिद भी बनवाई गई जिसे ऊषा मस्जिद कहते हैं।
बयाना के किले का निर्माण
गुप्तकाल के साक्ष्य किले से मिलने से यह निर्धारित हो जाता है कि भले ही छोटा रहा हो पर इस किले का अस्तित्व उस समय पर भी था। बाद के प्रतिहार शासकों के स्थानीय प्रशासकों के समय पर भी यह राजनीतिक गतिविधियों का केंद्र था। मथुरा के यदुवंशी शासकों ने इस किले पर अधिकार कर लिया था। राजा विजयपाल ने इस किले का भव्य निर्माण कराया।
महाराज विजयपाल और बयाना का किला
बयाना के किले का निर्माण महाराज विजयपाल ने 1040 ईसवी में कराया था। विजयपाल मथुरा के यादव वंशीय (जादौन राजपूत) थे जिन्होंने अपनी राजधानी बयाना में बनाई। यदुवंश के इतिहास के जानकार डॉ धीरेंद्र सिंह जादौन के अनुसार “गजनी की ओर से होने वाले आक्रमणों से जान और माल की सुरक्षा दिनानुदिन कम होती जा रही थी इस लिए विजयपाल ने मथुरा के मैदान पर बनी अपनी प्राचीन राजधानी छोड़कर पूर्वी राजस्थान की मानी नामक पहाड़ी के शिखर भाग पर बयाना का दुर्ग का निर्माण करवाया और यहां चले आये।”
विजयपाल रासो और करौली की ख्यात से ज्ञात होता है कि महाराजा विजयपाल का 1045ई0 में अबूबकर शाह कंधारी से घमासान युद्ध हुआ था। इस युद्ध के उपरांत यहां की स्त्रियों ने जौहर का मार्ग अपनाया था। यह राजस्थान के इतिहास में जौहर का पहला अवसर था। महाराज विजयपाल की मृत्यु (1093 ईस्वी) के बाद इस किले पर मुस्लिम आधिपत्य हो गया।
तवनपाल और उसके उत्तराधिकारी
विजयपाल का पुत्र तवनपाल (1093- 1158) इस वंश का शक्तिशाली शासक था। 66वर्ष के दीर्घकालीन शासनकाल में उसने बयाना से 22 किमी दूर तवनगढ़ का किला (त्रिभुवन गिरी) बनवाया। डॉ. धीरेंद्र सिंह जादौन के अनुसार तवनपाल ने पुनः शक्ति अर्जित करके बयाना का दुर्ग मुस्लिम शासकों से छीन लिया। तवनपाल ने अपने राज्य की शक्ति बढ़ाई और डाँग, अलवर, भरतपुर, गुड़गांव, धौलपुर, मथुरा, आगरा तथा ग्वालियर के विशाल क्षेत्र जीतकर अपने राज्य का विस्तार किया। इस विशाल क्षेत्र पर उसकी सत्ता उसके विरुद्ध “परम भट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर” से भी सिद्ध होती है l राजा तवनपाल के बाद आये अगले दो शासक धर्मपाल और हरपाल अपना पैतृक अधिकार स्थिर नही रख सके। कुछ पारवारिक झगड़ों और अपने सामंतों के साथ मतभेद के कारण धर्मपाल धोल्डेरा (धौलपुर) के स्थान पर किला बना कर रहने लगा तथा हरपाल बयाना और ताहनगढ़ का शासक हुआ। धर्मपाल के पुत्र कुंवरपाल ने हरपाल को मार कर ताहनगढ़ और बयाना छीन लिये। कुंवरपाल ने लगभग सन् 1195ई0 तक राज्य किया। सन् 1196ई0 में मोहम्मद गौरी ने बयाना और ताहनगढ़ पर चढाई कर दी। घमासान युद्ध हुआ जिसमें राजा कुंवरपाल की हार हुई और दोनों किलों पर मोहम्मद गौरी का अधिकार हो गया। कुंवरपाल बहुत समय तक डाँग की पहाड़ियों में मारा मारा फिरता रहा और चम्बल नदी के पार सबलगढ़ के जंगलों में यादववाटी क्षेत्र बना कर बयाना को पुनः प्राप्त करने का प्रयास करता रहा।
कुछ समय बाद बहाउदीन तुगरिल की बयाना में मृत्यु हो गयी और इस प्रकार अवसर देख कर फिर यदुवंशियों ने कुंवरपाल के नेतृत्व में 1204 -1211 ई0 के मध्य बयाना का राज्य हस्तगत कर लिया। इसके बाद पुनः इल्तुतमिश ने बयाना पर आक्रमण किया जिसमें यदुवंशी राजपूतों की पुनः हार हुई और बयाना तथा ताहनगढ़ पर मुस्लिम शासकों का पुनः अधिकार हो गया ।
बयाना का युद्ध
बयाना का युद्ध मेवाड़ के महाराणा सांगा और बाबर के मध्य फरवरी 1527 ईस्वी में लड़ा गया। यह युद्ध खानवा के प्रसिद्ध युद्ध से कुछ सप्ताह पहले ही लड़ा गया था। 1526 ईस्वी में पानीपत के पहले युद्ध में दिल्ली के सुल्तान इब्राहिम लोदी को परास्त करके बाबर ने भारत में मुगल सत्ता की नींव डाली। शुरू में राणा सांगा को लगा था कि बाबर भारत में लूटपाट के उद्देश्य से आया है और जल्द ही वापस लौट जाएगा। पर अप्रैल 1526 ईस्वी में पानीपत का युद्ध जीतते ही बाबर ने अपने बड़े पुत्र हुमायूं को आगरा पर अधिकार करने रवाना कर दिया। इससे भारतीय शासकों को लगने लगा कि बाबर भारत में रहकर राज्य करने आया है। बाबर ने मेवात, बयाना, धौलपुर, ग्वालियर, रापरी आदि स्थानों के किलेदारों की अपनी अधीनता स्वीकार करने के लिए ससैन्य संदेश भेजे। लोदी सत्ता के पतन के बाद इनमें से अधिकांश किलेदार स्वतंत्र रूप से काम कर रहे थे। बयाना के अफगान किलेदार निजाम खां ने बाबर की अधीनता स्वीकार कर ली जबकि मेवात के सूबेदार हसन खां मेवाती ने बाबर की अधीनता स्वीकार करने से मना कर दिया। बयाना का किला राजस्थान का पूर्वी प्रवेश द्वार था। इस किले के मुगल अधिकार में जाते ही राणा सांगा ने बाबर से युद्ध करने का निश्चय किया। राणा सांगा ने सेना लेकर कूच कर दिया। बाबर भी सेना लेकर आगे बढ़ा। फरवरी 1527 ईस्वी में दोनों सेनाओं के मध्य बयाना में एक भयंकर युद्ध लड़ा गया। इस युद्ध में बाबर की सेना बुरी तरह पराजित हुई और भाग खड़ी हुई। बयाना पर राणा सांगा का अधिकार हो गया। पर यह विजय स्थाई नहीं रह सकी। कुछ ही दिन बाद मार्च 1527 ईस्वी में खानवा के मैदान में बाबर और राणा सांगा के बीच एक और निर्णायक युद्ध हुआ जिसमें भाग्य ने बाबर का साथ दिया। इस तरह बयाना का किला मुगलों के हस्तगत हो गया।
बयाना के मुख्य मार्ग पर तलाकनी मस्जिद हैं। कहा जाता है कि 1527 में राणा सांगा से युद्ध में मिली पहली पराजय से लज्जित होकर बाबर ने शराब नहीं पीने का संकल्प लिया तथा सोने-चांदी से निर्मित शराब के प्याले और जश्न और जलसों में काम आने वाले बर्तन तुड़वा दिए। शराबनोशी से तौबा कर तलाक दे दिया। साथ ही सैनिकों को धर्म उपदेश देकर युद्ध के लिए प्रेरित किया। इस युद्ध के बाद भारत में मुगल साम्राज्य का उदय हुआ।
महमूद अली की बयाना में नियुक्ति
एक अभिलेख बाबर के समय का (934 हिजरी या 1527 ई.), जिससे इस वर्ष में बाबर का बयाना पर अधिकार सूचित होता है। अवश्य ही बाबर के हाथ में यह प्रदेश राणा संग्राम सिंह के खानवा के युद्ध (1527 ई.) में पराजित होने पर आया होगा। बाबर ने बयाना क्षेत्र की सूबेदारी अपने सेनापति महमूद अली को सौंप दी। महमूद अली का महल भीतरवाड़ी में अब भग्नावस्था में है। लोकपरम्परा में एक नाम अजब सिंह भांवरा का भी मिलता है। यह व्यक्ति जाति से ब्राह्मण था जो महमूद अली के मंत्री के तौर पर नियुक्त हुआ था। भांवरा के नाम से बयाना में भांवरा गली प्रसिद्ध है। इस गली में अजब सिंह के बनवाए हुए चौका महल, गिदोरिया कूप तथा अनासागर बाबड़ी आज भी वर्तमान में हैं।
शेरशाह सूरी के पुत्रों का संघर्ष और बयाना
जब शेरशाह सूरी ने चौसा और बिलग्राम के युद्धों (1539-40 ईस्वी) में हुमायूं को पराजित कर दिल्ली राज्य पर अधिकार किया तब उसने बयाना का क्षेत्र अपने बड़े पुत्र आदिलशाह की जागीर में दे दिया। शेरशाह की मृत्यु के बाद उसका दूसरा बेटा जलाल इस्लामशाह के नाम से गद्दी पर बैठा। शेरशाह का बड़ा पुत्र आदिलशाह, जो बयाना की जागीर का स्वामी था, ने उसका विरोध किया। इन दोनों भाइयों के मध्य आगरा के पास एक युद्ध (1546 ईस्वी) लड़ा गया जिसमें आदिलशाह की पराजय हुई और उसे बयाना की जागीर छोड़कर भागना पड़ा। इधर बयाना की जागीर अब हिंडौन के अंतर्गत थी और हिंडौन का गवर्नर बनाया गया गाज़ी खां को। गाज़ी खां शेरशाह सूरी के परिवार का रिश्तेदार था। शेरशाह के छोटे भाई निजाम खां की सबसे छोटी बेटी गाज़ी खां के बेटे इब्राहीम खां सूर की पत्नी थी।
इब्राहीम खां सूर का उत्थान और बयाना
आगे की कहानी समझने के लिए जरूरी है कि उस समय की विकेन्द्रीकृत सत्ता और शेरशाह के अयोग्य उत्ताधिकारियों के बारे में थोड़ी चर्चा कर लें। शेरशाह सूरी के उत्तराधिकारी इस्लामशाह ने निरन्तर विद्रोहों को दबाने और खुद को सुरक्षित रखने के लिए राजधानी को ग्वालियर स्थानांतरित कर लिया था। 1553 ईस्वी में इस्लामशाह की मृत्यु हो गई और उसका 12 वर्षीय पुत्र फिरोजशाह सूरी गद्दी पर बैठा पर उसी वर्ष शेरशाह के छोटे भाई निजाम खां के पुत्र अदील ने उसकी हत्या कर दी और स्वयं मुहम्मद शाह आदिल के नाम से सुल्तान बन गया। इतिहास प्रसिद्ध वीर हेमू इसी शाह आदिल का सेनापति था। बयाना से यह कहानी कुछ इस तरह लिंक होती है कि हिंडौन के गवर्नर गाज़ी खां के पुत्र और मुहम्मद शाह आदिल के बहनोई इब्राहीम खां सूर ने बयाना पहुंच कर विद्रोह कर दिया और दिल्ली समेत साम्राज्य के उत्तरी भाग पर कब्जा कर लिया। मुहम्मद शाह आदिल पूर्व की तरफ के राज्य पर ही काबिज रह गया। इस इब्राहीम खां सूर और हेमू के मध्य की लड़ाइयां बयाना क्षेत्र में लड़ी गईं, जो इस क्षेत्र के इतिहास के अध्ययन की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं।
बयाना के किले पर हेमू का घेरा
मुहम्मद शाह आदिल के आदेश पर हेमू इब्राहीम ख़ाँ सूर के विरुद्ध सेना लेकर आगे बढ़ा। इब्राहीम उस समय अपनी सेना के साथ कालपी में था। हेमू को कालपी की ओर बढ़ता देख इब्राहीम वहां से भाग खड़ा हुआ और अपने पिता के पास बयाना में पहुंच गया। पिता-पुत्र ने अपनी सेना के साथ खुद को बयाना के किले में सुरक्षित कर लिया। हेमू ने अपनी विशाल सेना के साथ बयाना के किले पर घेरा डाल दिया। एक बार हिम्मत करके इब्राहीम बयाना के किले से बाहर निकला और खानवा के मैदान में इसकी हेमू की सेना से मुठभेड़ हुई। यहां से हार एक भागा इब्राहीम एक बार फिर बयाना के किले में जा छुपा।
उस समय देश में भयंकर अकाल पड़ा हुआ था और अन्न का बड़ा संकट था। हेमू के पास अन्न-राशन आदि का पर्याप्त भंडार था जबकि बयाना के किले में छुपी इब्राहीम की सेना भूखों मरने की हालत में थी। उस समय के प्रसिद्ध इतिहासकार अलबदायूंनी, जिसने ‘मंतखाबउल तवारीख़’ नामक पुस्तक लिखी है यह पुस्तक ‘तारीख़े बदायूंनी’ के नाम से जानी जाती है, ने इस किले के घेराव का वर्णन किया है। दिलचस्प तथ्य यह भी है कि इस अलबदायूंनी का जन्मस्थान भी यही बयाना नगर ही है। बदायूंनी लिखता है कि ‘उसने जब बयाना के किले को घेर रखा था तो खुदा के बन्दे रोटी के लिए चिल्ला रहे थे तथा एक-दूसरे की जान ले रहे थे। लोग जौ के एक दाने के लिए तरस रहे थे। लाखों लोग भुखमरी का शिकार हो चुके थे। ऐसे समय में हेमू के पास हेमू के पास पांच सौ हाथियों का भोजन, चावल, तेल और चीनी था।’
खैर, 1542 ईस्वी में जब इस घेरे से आजिज आकर इब्राहीम घुटने टेकने की वाला था तभी हेमू को मुहम्मद शाह आदिल ने वापस पूर्व में बुलाने का आदेश भेज दिया। दरअसल वहां आदिल को बंगाल के शासक मुहम्मद खां सूर से खतरा बढ़ गया था। हेमू ने तीन माह से चल रहे घेरे को उठाया और पीछे लौट पड़ा। हेमू जब पीछे हटा तो इब्राहीम ने हिम्मत करके उसके पीछे से धावा बोल दिया। आगरा के छह कोस दूर मंडावर के पास एक भयंकर युद्ध हुआ जिसमें एक बार फिर इब्राहीम को मुंह की कहानी पड़ी।
आइन-ए-अकबरी और बयाना
अकबर के राज्य में यह प्रदेश अपेक्षाकृत शांत रहा। यहां के उद्योग-धंधे उन्नत हुए। यह बयाना क्षेत्र उस दौर में नील की खेती के लिए दुनिया में अपनी पहचान बना चुका था। अबुल फजल द्वारा लिखित पुस्तक ‘आइन-ए-अकबरी’ के अनुसार बयाना में सर्वश्रेष्ठ किस्म की नील का उत्पादन होता था, जबकि घटिया किस्म की नील का उत्पादन दोआब, खुर्जा एवं कोइल (अलीगढ़) में होता था। सर जदुनाथ सरकार लिखते हैं कि बयाना की नील भारत के अन्य क्षेत्रों की नील से 50 प्रतिशत अधिक मूल्य पर बिकती थी। यहाँ से नील इराक होते हुए इटली तक भेजी जाती थी।
उस दौर में बयाना का इतना महत्त्व था कि मथुरा जैसा परगना भी बयाना सरकार के अंतर्गत आता था। 1564 ईस्वी के एक फरमान से ज्ञात हुआ है कि मथुरा परगने पर नियुक्त शिक़दर (सब रेवेन्यू कलेक्टर) का नाम बनारसीदास था वहीं उस समय बयाना सरकार का करोड़ी (रेवेन्यू कलेक्टर) राय मथुरादास नाम का व्यक्ति था। अकबर ने 1593 ईस्वी में सरकार दफ्तर के स्थान पर दस्तूर सर्किल की व्यवस्था बनाई तब भी शुरुआत में मथुरा का परगना बयाना के दस्तूर सर्किल के अंतर्गत ही था। बाद में मथुरा परगना आगरा सर्किल के अंर्तगत कर दिया गया।
जाट शासन के अंतर्गत बयाना
सत्रहवीं सदी के आखिरी वर्षों में सम्पूर्ण काथेड़ क्षेत्र मुगलों से मुक्त होकर स्थानीय जाट शासकों के हाथ में आ गया। अठारहवीं शताब्दी में यहां मजबूती से सिनसिनवार जाट शासकों की सत्ता स्थापित हुई। उस दौर में बयाना में शांति, सुरक्षा और उद्योग आदि में वृद्धि हुई। पर यहां का राजनीतिक महत्त्व जाता रहा। मुगलों के समय पर सारे क्षेत्र का मुख्य राजस्व दफ्तर का केंद्र बयाना अब महज एक जिला सदर मुकाम की भूमिका में आ गया। क्षेत्र की राजनीति के संचालन के केंद्र के रूप में डीग नगर उभर कर आया और धीरे धीरे कुम्हेर और भरतपुर नगरों का विकास हुआ। रियासत काल के बाद आजाद भारत में यह भरतपुर जिले की एक प्रमुख तहसील के रूप में हैं। पर दुर्भाग्य का विषय यह है कि इसका इतिहास अभी भी अंधकार में है। स्थानीय लोग भी इस बयाना नगर के उस इतिहास से अपरिचित हैं जिसे इब्नबतूता और जियाउद्दीन बरनी जैसे लेखकों ने अपनी पुस्तकों में विस्तार से लिखा है।
(शेष अगले भाग में)
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