पिछले अंक में हमने जाना कि किस तरह आगरा से दिल्ली के मध्य की भूमि पर जाट किसानों ने अपनी जमींदारियां स्थापित कीं और किस तरह अपनी स्वतंत्रता के लिए बार बार मुगल सत्ता को चुनौती दी। शाहजहाँ के काल तक की घटनाओं का जिक्र पहले भाग में हो चुका है। अब आगे पढ़ते हैं …
औरंगजेब का गद्दी पर बैठना और ब्रज मंडल में अराजकता
सितंबर 1657 ईसवी में शाहजहाँ बीमार पड़ गया और राज्य पर उत्तराधिकार के लिए उसके पुत्रों में संघर्ष छिड़ गया। औरंजेब ने इस संघर्ष में सफलता पाई और 21 जुलाई 1658 को आगरा में वह गद्दी पर बैठा। पर अगले कुछ वर्षों तक शाहजहाँ के विशाल राज्य पर पूरी तरह अधिकार करने के लिए उसे भयंकर युद्ध लड़ने पड़े। सेनाओं की दौड़भाग और अकाल ने महंगाई में वृद्धि की। अनाज के भाव बढ़ गए। जमींदार और किसान बदहाल हो गए। औरंगजेब ने जनता को राहत देने के लिए शाही राजपथ, सीमांत चौकी, नदियों की राजदारी व कुछ अन्य करों को हटा दिया पर इसका कोई लाभ नहीं हुआ। ब्रजमंडल के विद्रोही जागीरदारों, जमींदारों व किसानों ने इस स्थिति का लाभ उठाया और मुगल सत्ता को शून्य करने की भरसक कोशिश की।
जाट सरदार नंदराम ठेनुआं को फौजदारी देना (1660-95)
ठेनुआं गोत्री माखनसिंह के प्रपौत्र सरदार नंदराम जाट ने यमुनापारी जाटों का नेतृत्व किया और इस गृहयुद्ध, अकाल और सैनिक व्यस्तता के लाभ उठाया और स्वाधीनता के झण्डा बुलंद किया। 1660 ईसवी में नंदराम ने दरियापुर के पोरच राजा के साथ मिलकर कोइल (वर्तमान अलीगढ़), मुरसान, हाथरस और मथुरा परगने के कुछ गांवों पर अधिकार कर लिया। मई 1658 में मुगल बादशाह के घोषित उत्तराधिकारी दाराशिकोह की हार के बाद ब्रज क्षेत्र में नियुक्त सारे मुगल कर्मचारी भाग चुके थे और यहां अराजकता व्याप्त हो गई थी। औरंगजेब ने इस क्षेत्र में शान्ति बहाल करने के लिए एक नए फौजदार की नियुक्ति करने की आवश्यकता समझी और 1660 ईसवी में नंदराम जाट की योग्यता के प्रभावित होकर उसे फौजदार की उपाधि दे दी। नंदराम जाट को तोछीगढ़ परगने का फौजदार बनाया गया। इस तरह औरंगजेब ने एक विद्रोही सरदार को पद देकर अपनी सेवा में लिया और कूटनीति से विद्रोह दबाने की कोशिश की। नंदराम जाट के फौजदार बनने से कोइल, मुरसान व नौहझील आदि क्षेत्रों के जाट सरदारों ने उसका साथ छोड़ दिया। ये जाट सरदार अपने स्तर से अंशतः विद्रोह जारी रखे हुए थे। दो वर्ष बाद 1662 में कोइल में पुनः एक बड़ा विद्रोह हुआ जिसे दबाने के लिए दिल्ली से सेना भेजनी पड़ी। नंदराम 40 वर्ष तक फौजदार बना रहा। वर्ष 1695 में उसकी मृत्यु हुई।
अब्दुन्नबी को मथुरा का फौजदार बनाया (1660 ईसवी)
जिस समय नंदराम को तोछीगढ़ परगने की फौजदारी दी गई उसके दो महीने बाद अगस्त 1660 ईसवी में औरंजेब ने अब्दुन्नबी को मथुरा का फौजदार बनाकर भेजा। अबदुन्नबी खां एक कट्टर मजहबी और मुस्लिम परस्त व्यक्ति था। उसने अपने जीवन भर में कुल तीस लाख रुपये से अधिक धन कमाया था। उसने अपनी आमदनी से मथुरा शहर के बीचोबीच हिन्दू मंदिरों के खंडहर पर एक विशाल जामा मस्जिद का निर्माण कराया (1661-62)। यह मस्जिद अभी भी मौजूद है। उसने यहां के किसानों और विद्रोहियों पर बड़े अत्याचार किये। उसने औरंगजेब के मूर्ति भंजन सम्बन्धी फरमानों का बड़ी सख्ती से पालन किया। सितम्बर 1662 ईसवी में उसने औरंगजेब के आदेश पर मथुरा के प्रसिद्ध केशवदेव मंदिर में दाराशिकोह द्वारा दिया गया कटहरा हटा दिया। जनवरी 1666 में शाहजहाँ की मृत्यु के बाद औरंगजेब करीब आठ महीने तक (फरवरी 1666 से अक्तूबर 1666) आगरा में रहा। उसने केशवदेव मन्दिर की उच्चतम छतरियां और प्राचीर को तोड़ने का आदेश भेजा, जिसकी पालना करते हुए अब्दुन्नबी खां ने तत्काल मंदिरों पर कहर ढाना शुरू कर दिया। जनवरी 1670 में औरंगजेब ने केशवदेव मन्दिर को जड़ से तोड़ने का आदेश भेजा जिस पर अमल हुआ और उस मन्दिर को ध्वस्त करके उसके स्थान पर एक विशाल मस्जिद बना दी गई। इतना ही नहीं उसने मथुरा का नाम तक बदल कर इस्लामाबाद कर दिया। हिंदुओं की धार्मिक यात्राओं तथा विशेष उत्सवों पर रोक लगा दी गई। ईश्वर की आराधना, मूर्ति पूजा, होली, दिवाली व मुहर्रम के जुलूस निकालने पर रोक लगाई गई। इन सब अत्याचारों से न केवल ब्रजमंडल साथ ही सारा हिंदुस्तान त्राहि-त्राहि कर उठा। और एक बार फिर विरोध की चिनगारी भड़क उठी। ब्रजमंडल में इस विरोध का नेतृत्व ओला ने किया जिसे इतिहास वीरवर गोकुला के नाम से आदर के साथ याद करता है।
वीरवर गोकुला का संघर्ष
जाटों का नवीन इतिहास पुस्तक (लेखक उपेन्द्रनाथ शर्मा) के अनुसार गोकुला का जन्म सिनसिनी गांव में हुआ था। पूर्व में हम मदू (महीपाल) के बारे में पढ़ चुके हैं। इन मदू के चार पुत्र थे। सिंधुराज, ओला, झमन और समन। 1650-51 में जब मदू और उसके चाचा सिंघा ने जब राजा जयसिंह से संघर्ष किया था तब उसका ज्येष्ठ पुत्र सिंधुराज वीरगति को प्राप्त हुआ था। उस विद्रोह की असफलता के बाद सिंघा ने ओला को अपने साथ लेकर गिरसा गढ़ी छोड़ दी और यमुनापार के जाटों के क्षेत्र में जाकर शरण ली। यह ओला ही आगे चलकर गोकुला कहलाया। गोकुला स्वभाव से ही क्रांतिकारी था। शुरुआत में वह गोकुल-महावन क्षेत्र में रहा और उसके बाद उसने अपनी शक्ति का विस्तार किया तथा दिल्ली के पास तिलपत गांव की जमींदारी प्राप्त करने में सफल हुआ। उसने गोकुला और उसके बाबा सिंघा ने किसान युवाओं को लाठी, बल्लम, भाला, फरसा, तलवार और धनुष बाणों के स्थान पर पहली बार बंदूकें देकर सिपाही बनाया। जल्द ही उसके पास बीस हजार युवाओं की सेना तैयार हो गई। 1669 ईसवी में जब गोकुला ने क्रांति का उद्घोष किया तो तमाम जाट जमींदार, किसान और मजदूर उसके नेतृत्व में खड़े हो गए। औरंगजेब की धार्मिक कट्टरता और हिंदुओं पर हो रहे अत्याचारों के कारण अराजकता की स्थिति बनती चली गई। और ब्रजमंडल के किसान एक बार फिर खुले विद्रोह पर उतर आए। औरंगजेब ने स्थिति को नियंत्रित करने के लिए एक बार फिर से अब्दुन्नबी खां को मथुरा का फौजदार बना कर भेजा।
अब्दुन्नबी खां की (सुरहा) सहोर की लड़ाई में मृत्यु (अप्रैल-मई 1669)
सितंबर 1668 में अब्दुन्नबी खां एक बार मथुरा का फौजदार बनाया गया। फौजदारी का प्रबंध संभालते ही उसने प्रशासनिक दृष्टि से यमुना नदी के उस पार गोकुल के दक्षिण में अपने नाम से एक नई छावनी स्थापित की। उधर रबी की फसल कटने के समय गोकुला तिलपत गांव छोड़कर महावन की तरफ आ गया था। अप्रैल 1669 में जब खान के सैनिक दस्ते लगान वसूलने के लिए पहुंचे। लेकिन गोकुला के उकसाने पर वहां के जाट किसानों ने लगान देने से मना कर दिया। इसके कारण खान को युद्ध क्षेत्र में उतरना पड़ा। अब्दुन्नबी खां विद्रोहियों के प्रमुख गढ़ सुरहा (सहोर) की ओर बढ़ा। उसने आसपास के कई गांवों पर अधिकार कर लिया और उन्हें बुरी तरह बर्बाद कर दिया। उसने सुरहा गांव पहुंच कर उसका घेरा डाल दिया। दोनों और से भीषण संघर्ष हुआ और 10 मई 1669 को गोकुला के साथियों ने अब्दुन्नबी खां को गोली से उड़ा दिया। मुगल दस्ते मैदान छोड़कर भाग गए और मुगल सैनिकों की लड़ाई का सामान जाटों के हाथ लगा। इसके बाद विजयी गोकुला की सेनाओं ने सादाबाद नगर और परगने में जमकर लूटपाट की। आगरा, मथुरा, सादाबाद और महावन आदि क्षेत्र पूरी तरह गोकुला के नियंत्रण में थे। मुगल अधिकारी मैदान छोड़कर भाग खड़े हुए।
गोकुला से लड़ने औरंगजेब खुद मथुरा पहुंच गया (नवम्बर 1669)
औरंगजेब ने स्थिति पर नियंत्रण करने के लिए सैफशिकन खान को मथुरा का फौजदार नियुक्त किया। लेकिन सैफशिकन खान को सफलता नहीं मिली और गोकुला का प्रभाव दिनोदिन बढ़ता गया। चार महीने तक कोशिश करके जब सैफशिकन खान हताश हो गया तो उसने गोकुला के पास एक संधि प्रस्ताव भेजा। पर गोकुला ने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया। सैफशिकन खान से निराश होकर औरंगजेब ने खुद मैदान में उतरने का निर्णय किया। 28 नवम्बर 1669 को वह एक बड़ी सेना लेकर मथुरा पहुंचा। उसने मथुरा में अपनी छावनी डाली और खुद छावनी में रुका और अलीवर्दी खान के पुत्र हसन अली को सेनापति बनाकर गोकुला के विरुद्ध भेजा। हसन अली ने सादाबाद और मुरसान की जाट गढ़ियों को कुचलने के लिए सैनिक दस्ते आगे बढ़ाए। मुगल सेनाओं ने रेवाड़ा, चंदरख और सरखरू की गढ़ियों पर घेरा डाल दिया। दोनों ओर से जमकर युद्ध हुआ, विद्रोही किसान हसन अली को हराने में नाकामयाब रहे। इस शुरुआती सफलता के बाद औरंगजेब ने हसन अली को मथुरा का फौजदार नियुक्त कर दिया। आगरा परगने के फौजदार अमानुल्ला खान, आगरा शहर के फौजदार होशियार खान तथा मुरादाबाद के फौजदार नामदार खान को भी उनकी सेनाओं के साथ मथुरा बुलाया गया। इस तरह एक विशाल सेना एकत्र कर महावन और सादाबाद के परगनों को घेर लिया गया।
तिलपत का युद्ध (दिसम्बर 1669)
मुगल फ़ौजदारों की संयुक्त सेनाओं ने गोकुला को घेर लिया। इस क्षेत्र में खुद को कमजोर स्थिति में जानकर गोकुला यहां से निकलकर तिलपत पहुंच गया। गोकुला ने तिलपत पहुंच कर युद्ध की घोषणा कर दी। हसन अली भी अपनी सेनाएं लेकर तिलपत जा पहुंचा। गोकुला के पास उस समय बीस हजार की सेना थी जिसमें पैदल व घुड़सवार शामिल थे। दिसम्बर 1669 में तिलपत से बीस मील दूर जंगलों में दोनों सेनाओं की मुठभेड़ हुई। कई दिनों तक युद्ध चला लेकिन तोप और बंदूकों के बल पर मुगल सेना भारी पड़ी। हसन अली ने आगे बढ़कर तिलपत गांव को घेर लिया। तीन दिन तक घेरा चलता रहा और गोकुला के सिपाही वीरतापूर्वक तोपों और बंदूकों के आगे डटे रहे। अंत में मुगलों ने तिलपत की गढ़ी पर अधिकार कर लिया। इस युद्ध में मुगलों के चार हजार सिपाही मरे और गोकुला के पांच हजार साथी बलिदान हुए। सात हजार साथियों के साथ गोकुला व सिंघा मुगल सिपाहियों के हाथों बंदी बनाये गए।
वीरवर गोकुला का बलिदान (जनवरी 1670)
एक जनवरी 1670 को औरंगजेब मथुरा से चलकर आगरा पहुंचा। गोकुला, सिंघा व उनके सभी बंदी साथियों को बादशाह के सामने पेश किया गया। औरंगजेब ने समस्त युद्ध बंदियों को इस्लाम धर्म स्वीकार करने की आज्ञा दी। गोकुला ने इस्लाम स्वीकार करने से साफ मना कर दिया। जनवरी 1760 के पहले सप्ताह में गोकुला और उदयसिंह सिंघा को आगरा की कोतवाली के सामने एक ऊंचे चबूतरे पर लाया गया। जल्लादों ने उनके एक-एक अंग काट कर निर्दयतापूर्वक उनकी हत्या की। विशाल जनसमूह इस घटना को देख रहा था। उनकी आंखों में एक क्रोध की चिनगारी थी। यह चिनगारी जल्द ही एक ज्वाला बनकर इसी आगरा को झुलसाने वाली थी और वह समय आने में 18 वर्ष लगने वाले थे जब आगरा को गोकुला की हत्या के बदले की कहानी देखनी थी।
गोकुला की हत्या के बाद
गोकुला की हत्या के बाद ब्रजमंडल के किसानों का सामूहिक आंदोलन शांत हो गया पर उसके बलिदान ने नवीन क्रांति का बीजारोपण अवश्य कर दिया। तिलपत को जीतने के बाद भी हसन अली क्रांतिकारी किसानों के गांवों को घेर कर उनके विद्रोह के हर सूत्र को नष्ट करता रहा। जनवरी 1670 में ही मथुरा के केशवदेव मन्दिर को पूरी तरह गिराकर उसके अवशेषों पर मस्जिद बनाई गई। मथुरा की संस्कृत पाठशालाओं को नष्ट किया गया। मथुरा का नाम तक बदल कर इस्लामाबाद कर दिया गया। हालांकि यह नाम परिवर्तन सिर्फ सिर्फ सरकारी कागजों तक ही सीमित रहा। आमजन इसे मथुरा ही कहते रहे। इसी वर्ष गोवर्धन पर्वत पर बने श्रीनाथ जी के मंदिर को गिराने का आदेश मिला। उस मन्दिर के गोस्वामी देव-प्रतिमा को लेकर उदयपुर चले गए। क्षेत्र के तमाम हिन्दू जमींदारों को बेदखल कर बंदी बनाया गया और उनके स्थान पर शाह मोहम्मद नबाज, सीदन बलूच, पेशकार शेख राजउद्दीन, लाल मुहम्मद तथा नजर मुहम्मद आदि को अलग-अलग गांवों की जमींदारियां दी गईं। उनके साथ सैनिक दल भी तैनात किए गए। इस तरह हसन अली खान चार महीने तक लगातार ब्रज के किसानों पर बलप्रयोग कर शांति स्थापित करने में लगा रहा। मई 1670 को वह बादशाह के पास आगरा पहुंचा जहां बादशाह ने उसे शाबाशी दी और पुरस्कृत किया।
(अगले भाग में जारी …)
(विशेष : यह कहानी ठाकुर देशराज, कालिका रंजन कानूनगो, उपेन्द्रनाथ शर्मा आदि इतिहासकारों की पुस्तकों में दिए गए तथ्यों पर आधारित है।)
डिस्क्लेमर : ”इस लेख में बताई गई किसी भी जानकारी/सामग्री में निहित सटीकता या विश्वसनीयता की गारंटी नहीं है। हमारा उद्देश्य महज सूचना पहुंचाना है, इसके उपयोगकर्ता इसे महज सूचना के तहत ही लें।”
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