वैर की कहानी के पिछले भाग में हमने वैर की अवस्थिति, नामकरण, जाट शासन के दौरान प्रशासनिक प्रबन्ध, दुर्ग निर्माण, सुरक्षा व्यवस्था आदि पर चर्चा की थी। यहां हम उससे आगे के वर्णन करेंगे।
वैर की ज्ञात कहानी भले ही सत्रहवीं सदी के अंत से मिलनी शुरू होती है पर वास्तव में यह उससे बहुत पुरानी है। वैर की यह पुरानी कहानी उस टीले में दबी हुई है जिस टीले के ऊपर अठारहवीं सदी में राजा प्रताप सिंह ने वैरिगढ़ दुर्ग की नींव रखी थी। वहीं वैर की कहानी में पिछली सदी में एक महत्वपूर्ण नाम आता है रांगेय राघव का। रांगेय राघव पर चर्चा खैर समय आने फिलहाल नजर डालते हैं वैर के उस पुरामहत्त्व के टीले पर।
कभी संस्कृति का मुख्य केंद्र था वैर
डॉ रांघेय राघव ने मार्च 1960 में वैर से एक लिंग, मोहनजोदड़ो शैली के पत्थर का एक ढक्कन व पाषाण के कुछ टुकड़े प्राप्त किये थे। वैर की इस पुरासम्पदा से इसकी महत्ता और प्राचीनता का सहज अनुमान किया जा सकता है। प्राचीन अवशेषों की प्राप्ति की यह श्रृंखला यहीं नहीं रुकती है। कुषाणकाल की लकड़ी की एक प्रतिमा, पार्श्वनाथ की एक प्रतिमा, गुलामवंश काल का एक शिलालेख (1290 ईस्वी) तथा तुगकल शैली की एक प्राचीन मस्जिद के अवशेष भी रांघेय राघव ने यहां प्राप्त किये थे। 1971 ईस्वी में यहां के टीले से एक जैन मन्दिर के कुछ अवशेष तथा चक्रेश्वरी देवी की जिन प्रतिमा प्राप्त हुई थी। यह जिन प्रतिमा लाल पत्थर की है और दसवीं सदी में निर्मित आंकी गई है। यह चक्रेश्वरी देवी की प्रतिमा वर्तमान में भरतपुर के संग्रहालय में रखी हुई है। इन पुरावशेषों से यह स्पष्ट है कि वैर हिन्दू तथा मुस्लिम काल का अति सम्पन्न व सांस्कृतिक कस्बा था।
वैर के अन्य दर्शनीय स्थल
वैर की कहानी की आगे बढ़ाने के पहले थोड़ी चर्चा यहां आसपास के मुख्य दर्शनीय स्थलों के बारे में कर लेते हैं। वैर के ग्राम रायपुर के पास श्वेत चट्टान युक्त गूंजती पहाड़ी तथा पहाड़ी के समीप देव मन्दिर है। देव मन्दिर के समीप भगवा रंग से पुती एक रहस्यमयी संकरी गुफा है। संकरी गुफा के समीप बन्दर जैसी दिखलाई देती दो आकृतियां हैं। इन्हें देख यह तय करना कठिन हो जाता है कि ये आकृतियां प्राकृतिक हैं या मूर्तिकारों ने इन्हें बनाया है। कस्बा के दक्षिण-पश्चिम में हाथौड़ी का किला, इस किले के सामने प्रसिद्ध कदम्ब कुण्ड जलाशय, इसके बाद बल्लभगढ़ का किला व महल तथा वहां की प्रसिद्ध बाबड़ी है। यहीं के ग्राम निठार स्थित महल एवं बावड़ी आदि अनेक दर्शनीय स्थल मौजूद हैं। पास ही प्रसिद्ध जहाज गांव है जहां लोकदेवता देव बाबा का मेला आयोजित होता है।
आइए जानते हैं वैर के संस्थापक के बारे में
वर्तमान वैर के संस्थापक राजा प्रताप सिंह थे। प्रताप सिंह जाट साम्राज्य के संस्थापक राजा बदनसिंह के पुत्र तथा जाटों के प्लेटो कहे जाने वाले महावीर राजा सूरजमल के सहोदर छोटे भाई थे। प्रताप सिंह की माता का नाम देवकी था। आचार्य सोमनाथ प्रताप सिंह के बारे में लिखते हैं, “उसका वर्ण कुंदन, चौड़ा मस्तिष्क, बांकी भौंहें, मुखमण्डल पर दीप्त आभा, नेत्रों में चमक, सुडौल तथा सुपुष्ट शरीर था।” प्रताप सिंह के स्वभाव में सरलता, सादगी, विनम्रता, स्पष्टवादिता तथा स्वतंत्र प्रतिभा थी। वह अपने मित्रों और आश्रितों के प्रति विचारवान, कृपालु, सरस्, सरल और दानी था। प्रताप सिंह अपने बड़े भाई सूरजमल से विशेष स्नेह करता था साथ ही वह उसका बहुत आदर भी करता था।
दिल्ली के अमीरों की तरह था पहनावा
महाराजा सूरजमल और बदनसिंह के बारे में वर्णन मिलता है कि वे अत्यंत सादगी से रहते थे। सूरजमल के बारे में ज्ञात होता है वह साधारण कपड़े पहनते थे और ब्रजभाषा में बातचीत करते थे। पर इस मामले में प्रताप सिंह थोड़ा एडवांस था, उसकी दीगर पोशाक, पगड़ी की बंदिश तथा खानपान दिल्ली के बड़े अमीरों की तरह था। उसे बड़े दरबारों के अमीरों के बीच बैठने-उठने का सलीका ज्ञात था। वह लियाकत वाला था। उसका पुत्र बहादुर सिंह इस मामले में अपने पिता से भी दो कदम आगे था। बहादुर सिंह ने कुरान का अध्ययन किया था और सुराजामी तक अरबी पढ़ा था।
साहित्यिक केंद्र बन गया था वैर
प्रताप सिंह साहित्य का प्रेमी था वह कवियों और साहित्यकारों का आश्रयदाता था। उसके समय पर वैर काथेड राज्य (भरतपुर राज्य) के सांस्कृतिक केंद्र के रूप में उभरा था। आचार्य सोमनाथ मिश्र उसके दरबार के प्रमुख साहित्यकार थे। सोमनाथ को उसने ‘केशव’ का अलंकरण दिया था। कलानिधि भट्ट आदि उस समय के ख्यातिप्राप्त कवि उसके दरबार की शोभा थे।
‘ब्रजराज कुंवर विराजित हैं, सू प्रतापसिंह उजागरौ!
तेहि हेत विरचित कवि कलानिधि चार ग्रन्थ गुनाकरौ!!’
प्रताप सिंह की अप्रत्याशित आत्महत्या
प्रताप सिंह ने कुम्हेर के किले में विष खाकर आत्महत्या कर ली थी। उसकी आत्महत्या के पीछे के कारणों का पता नहीं चल पाता है। प्रतापसिंह और सूरजमल के मध्य स्नेह भी खूब था और राज्य के उत्तराधिकार को लेकर कोई संघर्ष भी नहीं था। ऐसे में सूरजमल के सामने प्रताप सिंह द्वारा विष खाकर जान देने की घटना के कारण अभी तक अज्ञात हैं। बहरहाल, प्रताप सिंह की मृत्यु के बाद वैर के शासन का संचालन उसके पुत्र बहादुर सिंह को सौंपा गया। बहादुर सिंह अपने पिता के नक्शेकदम पर चलने वाला था। उसने सूरजमल के साथ कई युद्धों में भाग लिया।
(अगले भाग में जारी)