गोवर्धन की सप्तकोसी परिक्रमा में एक गांव है जतीपुरा। इस जतीपुरा को पुराने समय में गोपालपुर कहते थे। यहां मध्यकाल में श्रीनाथजी का प्राकट्य हुआ था। यहां पर उनके लिए पहला मन्दिर बनवाया गया। इसी मन्दिर के संस्थापक श्रीबल्लभाचार्य जी ने यहीं से पुष्टि मार्ग की नींव डाली। सिकन्दर लोदी जैसे मूर्ति-मन्दिर भंजक सुल्तान के शासनकाल में श्रीनाथजी के भक्तों ने बड़े संघर्षों के बीच उनका मन्दिर बनवाया। अकबर के उदार शासनकाल में इस मंदिर की महत्ता चरम पर पहुंची। औरंगजेब के समय पर परिस्थिति विपरीत हुई। श्रीनाथजी को ब्रज त्याग कर श्रीनाथद्वारा जाना पड़ा। ये महत्वपूर्ण घटनाक्रम कैसे घटित हुआ आइए विस्तार से जानते हैं।
श्रीनाथजी का प्राकट्य
श्रीनाथजी के प्राकट्य को लेकर विद्वानों की एकराय नहीं है। चैतन्य सम्प्रदाय के भक्त मानते हैं कि माधवेंद्रपुरी सन्त ने श्रीनाथजी का प्राकट्य किया। ये लोग श्रीनाथजी को गोपाल जी कहते हैं। पुष्टिमार्ग के भक्त यह श्रेय महाप्रभु बल्लभाचार्य जी को देते हैं। यह घटना विक्रमी सम्वत 1556 की है। उस वर्ष बल्लभाचार्य जी अपनी दूसरी ब्रजयात्रा के दौरान ब्रज आये हुए थे। इस दौरान जतीपुरा में आचार्यजी सद्दू पांडे नामक एक भक्त के यहां ठहरे। सद्दू पांडे ने उन्हें बताया कि गिरिराज पर्वत की एक कन्दरा से एक भगवद स्वरूप का प्राकट्य हुआ है। श्रीमाधवेंद्र पुरी ने उनका नाम गोपाल रखकर उनकी पूजा के आयोजन की चेष्टा की थी। पर उस समय के शासन की विपरीत परिस्थितियों के कारण वह समुचित व्यवस्था नहीं कर सके थे।
श्रीनाथजी के मन्दिर की स्थापना
सद्दू पांडे से समस्त विवरण जान आचार्यजी ने उक्त देव स्वरूप के दर्शन किये। उन्होंने उन्हें गोवर्धननाथ अथवा श्रीनाथजी के नाम से प्रसिद्ध किया। बल्लभाचार्य जी ने पर्वत पर एक छोटा सा कच्चा मन्दिर बनवा कर श्रीनाथजी के स्वरूप को विराजमान किया। आचार्यजी ने रामदास चौहान को श्रीनाथजी की सेवा के लिए नियुक्त किया। अम्बाला के रहने वाले एक सेठ पूरनमल खत्री ने आचार्यजी की प्रेरणा से श्रीनाथजी का मन्दिर बनवाने का संकल्प किया। आगरा के एक प्रसिद्ध कारीगर हीरामन ने मन्दिर का नक्शा बनाया।
मन्दिर निर्माण में आईं बहुत सी बाधाएं
मन्दिर का निर्माण कार्य संवत 1556 की वैसाख शुक्ल 3 को शुरू हुआ था। उक्त कार्य में लाखों रुपए खर्च होने के बाद भी यह कार्य पूरा नहीं हो पाया। कई बार इस कार्य को उस समय के दिल्ली सल्तनत के सुल्तान सिकन्दर लोदी के आदेश पर रोका और तोड़ा गया। कई बार तो स्थिति ऐसी आयी जब श्रीनाथजी के स्वरूप को मन्दिर से उतारकर वन्य क्षेत्रों में ले जाना पड़ा।
टोड का घना में श्रीनाथजी
चैतन्य सम्प्रदाय के साहित्य के अनुसार एक बार सिकन्दर लोदी के काज़ी ने मंदिरों पर अत्याचार शुरू किया। तब श्रीनाथजी के सेवक उन्हें मन्दिर से उतारकर तीन मील दूर टोड का घना नामक घने जंगलों में ले गए। वहां गुप्त रूप से उनकी सेवा की जाती थी। उस दौरान सुल्तान के सैनिकों ने पूरनमल खत्री द्वारा बनवाये गए मन्दिर को नष्ट कर दिया। सुल्तान के उपद्रव शांत होने पर पास ही में स्थित श्याम ढाक नामक स्थान पर एक पर्ण मन्दिर बनवाकर गोपाल (श्रीनाथजी) को विराजमान किया गया। शांति स्थापित होने पर श्रीनाथजी को पुनः जतीपुरा लाया गया।
चैतन्य महाप्रभु ने गाँठोली में किये श्रीनाथजी के दर्शन
चैतन्य महाप्रभु जब ब्रज आये तब वे गोपाल जी (श्रीनाथजी) के दर्शन करने जतीपुरा पहुंचे। वहां पहुंचकर उन्हें पता लगा कि यवनों के भय से पुजारी उन्हें गाँठोली के वन में ले गए हैं। चैतन्य महाप्रभु ने गाँठोली के वन ज्वाला कुंड पर विराजमान गोपाल जी के दर्शन किये थे। उस बार श्रीनाथजी तीन दिन तक ज्वाला कुंड पर विराजे थे।
बीस वर्ष में जाकर पूर्ण हुआ मन्दिर निर्माण
पूरनमल खत्री लगातार मन्दिर निर्माण कराते रहे। सुल्तान के कारिंदे अक्सर मन्दिर निर्माण रुकवाते रहे। कई बार निर्माण कार्य ध्वस्त भी किया गया। कई बार श्रीनाथजी के स्वरूप को मन्दिर से बाहर वनों में सुरक्षित स्थानों पर ले जाना पड़ा। बड़े ही संघर्ष का वह दौर समाप्त हुआ सिकन्दर लोदी की मृत्यु के बाद। सुल्तान की मौत के बाद भक्तों ने राहत की सांस ली। सुल्तान की मौत के दो ही वर्ष बाद सम्वत 1576 में यह भव्य मंदिर बनकर पूर्ण हो गया। बल्लभाचार्य जी की प्रेरणा से पूरनमल खत्री के धन और हीरामन के नक्शे पर यह भव्य मंदिर तैयार हुआ। इसी वर्ष अक्षय तृतीया के दिन बड़े ही भव्य आयोजन के साथ श्रीनाथजी का पाटोत्सव किया गया।
बिट्ठलनाथ जी का मन्दिर में प्रवेश हुआ निषेध
यह बल्लभाचार्य जी के बाद कि घटना है। उनके ज्येष्ठ पुत्र गोपीनाथ जी की भी असमय मृत्यु हो गई। गोपीनाथ जी के पुत्र पुरुषोत्तम जी तब नाबालिग थे। कुछ लोग बल्लभाचार्य जी के छोटे पुत्र बिट्ठलनाथ जी को पुष्टि मार्ग का उत्तराधिकारी बनाना चाह रहे थे। उस समय श्रीनाथजी के अधिकारी कृष्णदास थे। ये बहुत प्रभावशाली थे। इन्होंने पुरुषोत्तम जी का पक्ष लिया। कृष्णदास ने बिट्ठलनाथ जी के श्रीनाथजी के मन्दिर में प्रवेश करने पर भी रोक लगा दी थी। बिट्ठलनाथ जी छह महीने तक श्रीनाथजी के दर्शन नहीं कर सके थे।
जब मथुरा के सतघरा में विराजे श्रीनाथजी
यह घटना है सम्वत 1623 की जब बिट्ठलनाथ जी गुजरात की यात्रा पर गए थे। तब उनके ज्येष्ठ पुत्र गिरिधर जी श्रीनाथजी को अपने मथुरा स्थित घर सतघरा ले आये थे। इस दौरान श्रीनाथजी दो माह और 22 दिन तक मथुरा में विराजे। इन दिनों बहुत से आयोजन किये गए और उत्सव मनाए गए। सम्राट अकबर ने इस मंदिर के लिए जतीपुरा गांव माफी में दे दिया था।
जब ब्रज छोड़ गए श्रीनाथजी
यह बहुत ही कष्टप्रद समय था। विक्रमी संवत 1726 आश्विन मास की पूर्णिमा थी। दिल्ली पर उस समय था औरंगजेब का शासन। उस दिन शुक्रवार था जब श्रीनाथजी के गोसाइयों को पता चला कि मन्दिर पर मुग़ल हमला होने वाला है। शाम होते ही एक बैलगाड़ी में श्रीनाथजी को सवार कराया गया। रातोंरात वे आगरा पहुंचे। वहां कुछ दिन रुकने के बाद आगे की यात्रा शुरू की। करीब दो वर्ष चार महीने और सात दिन की लंबी यात्रा के बाद श्रीनाथजी सिंहाड़ पहुंचे। जहां उनके लिए भव्य मंदिर बनाया गया। यह स्थान अब श्रीनाथद्वारा कहा जाता है। वहीं जतीपुरा में स्थित उनका मन्दिर कुछ समय बाद ही मुग़ल हमले में तोड़ दिया गया। उस ध्वस्त मन्दिर पर मस्जिद भी बनवाई गई ऐसा भी उल्लेख मिलता है।