कार्तिक शुक्ला दशमी: मथुरा का कंस मेला

गोपाल शरण शर्मा (साहित्यकार)

ब्रज संस्कृति आस्था,समर्पण और समन्वय की संस्कृति है। यह संस्कृति त्याग, वैराग्य की नही प्रेम-अनुराग और जीवन के समस्त रसों से युक्त संस्कृति है। ब्रज संस्कृति का वास्तविक स्वरूप उत्सवधर्मी है। यहां जन्म से लेकर मृत्यु तक के हर संस्कार में उत्सव की भावना समाहित रहती है। यहां रहने वाले लोग अभावों को दरकिनार करते हुए पूर्ण उत्साह और उल्लास के साथ उत्सव मनाते है। इन उत्सवों का प्रमुख उत्सव है “मेला”। ब्रजवासियों को सदैव से ही उत्सव व मेले प्रिय रहे हैं यह उस समय और भी खास हो जाते हैं जब इन उत्सवों व मेलों से उनके इष्ट श्रीकृष्ण जुड़ जाते हैं।

ऐसा ही एक मेला है जो कार्तिक शुक्ला दशमी को मनाया जाता है।इस मेले को “कंस वध” मेला कहा जाता है। यह मेले लोकजीवन के प्रत्यक्ष सम्वाद का माध्यम है। मथुरा के राजा कंस ने नंदनंदन का वध करने के उद्देश्य से मथुरा में मेले का आयोजन किया। इस मेले में श्री कृष्ण-बलराम को आमंत्रित करने के लिए उसने अक्रूर जी को वृन्दावन भेजा। यह मेला ही राजा कंस के वध का कारण बन गया था। मेले में आये भगवान श्रीकृष्ण और बलराम ने चोटियां पकड़कर अपने मामा कंस को ही मार दिया।

इस मेले का आयोजन मथुरा का चतुर्वेदी समाज आयोजित करता है। यह मेला काफी प्राचीन है। मान्यता है कि छज्जू नामक चौबे कंस के राजघराने में रहने के बावजूद भी भगवान श्रीकृष्ण के अनन्य भक्त थे। कंस का वध करने में इनकी भूमिका भी मानी जाती है। इसलिए चतुर्वेदी समाज अपने इस सम्मानित पूर्वज को स्मरण करते हुए इस मेले का भव्य आयोजन करता है।

कंस वध से पूर्व भगवान श्रीकृष्ण-बलराम ने रास्ते में कुवलयपीड़ हाथी और रजक का उद्धार करने के बाद कंस टीला पर आयोजित मल्ल-उत्सव में आकर भगवान श्रीकृष्ण-बल्देव ने कंस को भी मार दिया। मथुरा मल्ल -विद्या प्रसिद्ध केंद्र रहा है। यहां के मल्लों ने अपनी कला का लोहा देश-विदेश में मनवाया है। कंस मेले में कंस वध लीला का मंचन किया जाता है। कंस का एक विशाल पुतला बनाया जाता है।मेले में चतुर्वेदी समाज के लोग हाथी के आगे कंस की तलवार, कंस के चेहरे, कंस की ढाल एवं लट्ठों को लेकर निकलते हैं। मेले की सुबह चतुर्वेदी समाज के पुरुष, बाल, वृद्ध एवं युवा बालों और हथेलियों पर मेंहदी लगाए,रात्रि में पारे गये काजल को आंखों में लगा कर पूरे सज-धज कर तैयार होते हैं। जब श्रीकृष्ण-बलराम कंस का वध कर देते है तो चौबे समाज के पुरुष गान करते हैं।

कंसा की रानी विलाप करे, हाय छाछ के पिबैयन ने छत्रपति मारौ है।कंस के मरने की खुशी में सब आनंद से विभोर हो जाते है। चारो ओर श्रीकृष्ण के जयकारों से भूमि गुंजायमान हो उठती है। अब दोनों भैया अलमस्त हाथी पर बैठे हैं। पीछे ग्वाल बाल चंवर धुरावै है। हाथी पर सवार दोनों भैया के नख दृश्य सौ समस्त ब्रजवासी धन्य धन्य हो जावे।

दोनों भैया हल्की हल्की विजिया ले कर झूम रहे है उनकी आँखन की अरुनता मानो वायुमण्डल में अरुण गगन हैं गए है। अंखिया में काजर सिर पर मोर मुकुट पीताम्बर वस्त्र धारण किये भये दोऊ भैया की झांकी पर करोडन कामदेव लज्जित है रहे हैं।

ऐसी झांकी आज के दिन ही दीखे है। आनंद में भरे बालक,वृद्ध युवा गाते है:

मार मार लट्ठन धूर करि आये, कंसै मार मधुपुरी आये।

अगरचंदन ते अंगन लिपाये,

गजमुतियन के चौक पुराये।

घर-घर आनंद बजत बधाये,

कंसै मार मधुपुरी आये

सब सखान मिल मंगल गाये…..

घर घर मंगल बजत बधाए

छज्जू लाये खाट के पाये,

मार-मार लट्ठन झूर कर आये!!

बाईं कंस की दाढी लाये…..

बाईं कंस की मूछउ लाये….

कृष्ण बलदेव की जय!!यमुना मैया की जय!!

गोपाल शरण शर्मा (साहित्यकार)

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गोपाल शरण शर्मा

प्रकाशन अधिकारी

ब्रज संस्कृति शोध संस्थान

वृन्दावन

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